असम के डिटेंशन सेंटरों में हो रही हैं रहस्यमय तरीके से मौतें
२० मार्च २०२०यह आंकड़ा केंद्रीय गृह राज्य मंत्री जी किशन रेड्डी ने लोकसभा में पेश किया है. उनका कहना था कि बीते चार वर्षों के दौरान इन सेंटरों में बीमारियों की वजह से 26 लोगों की मौत हो गई है. एक अन्य गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने राज्यसभा में इन आंकड़ों को पेश किया. मंत्रियों के इन बयानों से पता चलता है कि इन डिटेंशन सेंटरों में हालात कितने अमानवीय हैं.
असम में विदेशी घोषित लोगों के लिए बने इन डिटेंशन सेंटरों की बदहाली का जिक्र पहले भी कई बार होता रहा है. लेकिन अब जबकि सरकार ने उच्च सदन में इन मौतों की बात स्वीकार की है, इन पर एक बार फिर सवाल उठने लगे हैं. गृह राज्यमंत्री रेड्डी ने एक लिखित सवाल के जवाब में लोकसभा को बताया कि असम सरकार की ओर से मिली जानकारी के मुताबिक राज्य के छह डिटेंशन सेंटरों में इस साल 27 फरवरी तक 799 लोग रह रहे थे. इनमें से 95 लोग तीन साल या उससे ज्यादा समय से वहां रह रहे हैं.
केंद्रीय गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय का कहना था कि बीते साल नवंबर तक इन सेंटरों में 1043 विदेशी रह रहे थे. लेकिन तीन साल की हिरासत की अवधि पूरी होने के बाद सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के मुताबिक कई लोगों को रिहा कर दिया गया. फिलहाल राज्य के ग्वालपाड़ा, कोकराझाड़, तेजपुर, जोरहाट, डिब्रूगढ़ और सिलचर जिलों में ऐसे सेंटर चल रहे हैं.
कब बने थे डिटेंशन सेंटर?
डिटेंशन सेंटरों पर उभरे विवाद को समझने से पहले इनकी स्थापना की पृष्ठभमि के बारे में जानना जरूरी है. असम में वर्ष 2008-09 में राज्य की तत्कालीन तरुण गोगोई सरकार के शासनकाल के दौरान पहले डिटेंशन सेंटर की स्थापना की गई थी. वर्ष 2008 का उतरार्ध असम और गोगोई सरकार के लिए मुश्किलों भरा रहा था. उस साल जुलाई में गौहाटी हाईकोर्ट ने विदेशी आप्रवासी से संबंधित एक मामले में काफी कठोर फैसला सुनाया था. न्यायमूर्ति बीकेशर्मा ने 50 से ज्यादा बांग्लादेशी नागरिकों को धोखाधड़ी के जरिए भारतीय नागरिकता हासिल करने का दोषी मानते हुए उनको देश से निकालने का निर्देश दिया था. वह लोग असम में वोटर भी थे.
यह एक संवेदनशील मुद्दा था. इसकी वजह यह थी कि विदेशी घुसपैठ के मुद्दे पर छह साल लंबे आंदोलन के बाद वर्ष 1985 में असम गण परिषद सरकार सत्ता में आई थी. न्यायमूर्ति शर्मा ने उस समय अपने फैसले में कहा था, "अब यह रहस्य नहीं है कि बांग्लादेशी असम के कोने-कोने में छा गए हैं. वे लोग असम में किंगमेकर बन गए हैं.” हाईकोर्ट के फैसले के बाद तरुण गोगोई सरकार पर अवैध आप्रवासियों के खिलाफ कर्रवाई का दबाव बढ़ा. विपक्ष ने आरोप लगाया था कि कांग्रेस सरकार अवैध घुसपैठियों के प्रति नरमी बरत रही है.
बंगाली मुसलमानों को बनाया निशाना
उसके बाद उस साल सितंबर में असम के कई हिस्सों में हिंसा भड़की और इस दौरान अवैध घुसपैठिया समझे जाने वाले बंगाली मुसलमानों को निशाना बनाया गया. अक्टूबर में राजधानी गुवाहाटी में सीरियल बम विस्फोटों में लगभग 70 लोग मारे गए. कई नेताओं ने इसके लिए अवैध आप्रवासियों को जिम्मेदार ठहराया था. उसके बाद अगले साल जनवरी में भी कई जगह विस्फोट हुए. इससे सरकार पर अवैध घुसपैठियों की शिनाख्त कर उनको जेल में भेजने का दबाव बढ़ता रहा.
जुलाई 2009 में असम के तत्कालीन राजस्व मंत्री भूमिधर बर्मन ने विधानसभा को बताया था कि अवैध आप्रवासियों के लिए दो डिटेंशन सेंटर स्थापित किए जाएंगे. मुख्यमंत्री तरुण गोगोई ने कहा था कि सरकार विदेशियों की शिनाख्त के लिए राज्य के लोगों को स्थायी नागरिक कार्ड देने के लिए तैयार है. वर्ष 2010 के मध्य तक राज्य ग्वालपाड़ा, कोकराझाड़ और सिलचर में तीन डिटेंशन सेंटर खोले गए और नवंबर 2011 तक वहां विदेशी या अवैध आप्रवासी घोषित 362 लोगों को भेजा गया था.
कितना वक्त के लिए रहना होता है डिटेंशन सेंटर में?
तरुण गोगोई सरकार ने सत्ता में लौटने के बाद 2012 में विदेशी घुसपैठ के मुद्दे पर एक श्वेतपत्र जारी करते हुए बताया था कि विभिन्न न्यायाधिकरणों ने 1985 से जुलाई 2012 के बीच 61,774 लोगों को विदेशी घोषित किया है. लेकिन इसके महज दो महीने बाद ही उन्होंने दावा किया कि असम में एक भी विदेशी नागरिक नहीं है.
अब राज्य में नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजंस (एनआरसी) की अंतिम सूची जारी होने के बाद केंद्र के निर्देश पर ग्वालपाड़ा जिले के मतिया में राज्य का सबसे बड़ा डिटेंशन सेंटर बनाया जा रहा है. उसमें तीन हजार विदशियों को रखने की क्षमता होगी. लेकिन सवाल यह है कि इन सेंटरों में कथित विदेशियों को आखिर कितने दिनों तक रखा जा सकता है? सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक फैसले में कहा था कि ऐसे सेंटर में तीन साल बिता चुके लोगों को सशर्त जमानत पर रिहा किया जा सकता है.
आप्रवासी हैं लेकिन अपराधी नहीं
पूर्व नौकरशाह हर्ष मंदेर ने भी 2018 में इन सेंटरों का दौरा किया था. वह वहां की नारकीय हालत देख कर दंग रह गए थे. उनकी रिपोर्ट पर जब मानवाधिकार आयोग ने कोई कार्रवाई नहीं की तो उन्होंने 20 सितंबर 2018 को सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की, जिसमें संविधान के अनुच्छेद 21 में प्रदत्त मानवाधिकारों के उल्लंघन की बात कही.
इस याचिका पर सुप्रीम कोर्ट की ओर से केंद्र सरकार को नोटिस दिए जाने पर केंद्रीय गृह मंत्रालय ने अदालत को सूचित किया कि अवैध प्रवासियों को हिरासत में रखने के लिए बने डिटेंशन सेंटरों के लिए राज्य सरकार को 30-सूत्री दिशानिर्देश भेजा गया है. अदालत का मानना था कि ऐसे सेंटरों में रहने वाले अवैध आप्रवासी जरूर हैं, लेकिन अपराधी नहीं. इसलिए उनको वह तमाम सुविधाएं दी जानी चाहिए, जो किसी आम नागरिक को मिलती हैं.
रहस्यमय तरीके से मौतें
बीते साल अक्टूबर से अब तक राज्य के डिटेंशन सेंटर में दुलाल पाल, फालू दास और नरेश्वर कोच नामक तीन लोगों की रहस्यमय परिस्थितियों में मौत हो चुकी है. फालू दास के पुत्र भागू दास कहते हैं, "मेरे पिता ने अपनी नागरिकता साबित करने में नाकाम रहने के बाद जीवन के आखिरी दो साल डिटेंशन सेंटर में गुजारे.” इन तीनों मामलों में सरकार का दावा था कि उनकी मौत बीमारियों की वजह से हुई है. लेकिन उनके परिजन सरकार के इस दावे को झूठा करार देते हैं. इसकी वजह यह है कि किसी को भी उनके मेडिकल रिकॉर्ड नहीं दिए गए.
दुलाल पाल के पुत्र अशोक बताते हैं, "हमें अचानक बताया गया कि पिता की हालत खराब है और वह गुवाहाटी मेडिकल कॉलेज अस्पताल में भर्ती हैं. लेकिन वहां दो दिन बाद ही उनकी मौत हो गई. हमें नहीं पता कि उनकी मौत आखिर किस वजह से हुई.” इन सभी मामलों में परिजनों ने शव लेने से इंकार कर दिया था. बाद में स्थानीय बीजेपी नेताओं के समझाने और सरकारी नौकरी का भरोसा देने के बाद मामला सुलझा था. लेकिन अब तक उन तीनों की मौत के रहस्य से परदा नहीं उठ सका है.
स्टेटस रिपोर्ट जमा करे सरकार
सुप्रीम कोर्ट ने बीते महीने असम के डिटेंशन सेंटर्स को लेकर केंद्र से जानकारी मांगी है. असम में एनआरसी की प्रक्रिया के बाद बनाए गए डिटेंशन सेंटर्स को लेकर अदालत में दायर याचिका पर सुनवाई के दौरान कोर्ट ने केंद्र सरकार से स्टेटस रिपोर्ट जमा करने को कहा है. कोर्ट ने यह भी पूछा है कि डिटेंशन सेंटर में तीन साल से बंद लोगों को छोड़ा गया है या नहीं.
केंद्र व राज्य सरकार के दावों के बावजूद असम के डिटेंशन सेंटरों की हालत में सुधार पर कोई ध्यान नहीं दिया गया है. बीते साल के आखिर में लगातार तीन लोगों की मौत पर उभरे विवाद के बाद राज्य सरकार ने एक जांच समिति का गठन किया था लेकिन अब तक उसकी रिपोर्ट सामने नहीं आई है.
दूसरी ओर, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का कहना है कि डिटेंशन सेंटरों को लेकर सरकार के पास कोई ठोस व पारदर्शी नीति नहीं है. सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बावजूद कई लोग लंबे अरसे अमानवीय हालात में वहां रह रहे हैं. अब एनआरसी से बाहर रहे 19 लाख से ज्यादा लोगों को कहां रखा जाएगा, इस सवाल का भी सरकार के पास कोई जवाब नहीं है.
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