अस्पताल या जुल्म की कोठरी
१९ अगस्त २०१३
शहर के दूसरे सरकारी अस्पताल पावलोव मेंटल हॉस्पिटल में भी नजारा अलग नहीं है. यहां 250 बिस्तरों पर करीब 400 मरीज हैं. जिन्हें ज्यादा मानसिक बीमारी है, उन्हें चार गुना पांच फीट की कोठरियों में बंद कर दिया गया है. वहां भारतीय टॉयलेट हैं और उसी के बगल में बैठ कर उन्हें खाना पड़ता है. और अगर उन्हें जुएं हों, तो अस्पताल के एक कर्मचारी का कहना है कि उनके शरीर पर तिलचट्टे मारने वाला कीटनाशक छिड़क दिया जाता है.
ऐसे खतरनाक और दयनीय हालात के साथ अमानवीय व्यवहार. एक कर्मचारी का कहना है, "अस्पताल में खाना, कपड़े और चटाइयों के लिए जो पैसे आते हैं, वे अधिकारी बांट लेते हैं. यहां तक कि वे अस्पताल की चादरें और पर्दे भी घर ले जाते हैं."
बाहर से अस्पताल अच्छा दिखता है, लेकिन इसके अंदर पुनर्वास की सुविधा नहीं है. मरीजों के लिए रोजगार से जुड़ी ट्रेनिंग का कोई प्रावधान नहीं. नतीजा यह होता है कि जो मरीज बेहतर हो जाते हैं, वे वक्त के साथ अपनी क्षमताएं खोने लगते हैं और उनका ध्यान भटकने लगता है, उत्पादकता घटने लगती है और आखिर में वे जीने का हौसला छोड़ बैठते हैं.
एक अधिकारी का कहना है, "पिछले दो साल में इस परिसर की शक्ल बदलने के लिए बहुत से कदम उठाए गए हैं. लेकिन फिर भी मरीज अमानवीय हालात में रहते हैं."
वाराणसी के मानसिक अस्पताल को 1809 में दिमागी बीमारी वाले अपराधियों के लिए जेल में बदल दिया गया. आज यहां के 290 मरीजों में सिर्फ 54 अपराधी हैं. लेकिन नियम वही औपनिवेशिक काल के अपनाए जा रहे हैं.
मरीजों को दुर्गंध से भरी कोठरियों में रहना पड़ रहा है. तापमान भले ही 40 डिग्री पार कर जाए, इन कोठरियों में कोई पंखा नहीं. मरीजों को गंदे फर्श पर सोना पड़ता है, क्योंकि यहां कोई बिस्तर ही नहीं है. और जेल के पुराने नियमों की बलिहारी है कि मरीजों को हर दिन 17 घंटे कोठरियों में बिताने पड़ते हैं. अगर किसी मरीज ने कुछ मांग कर दी, तो उसे जम कर पीटा जाता है. वहां के एक पुरुष मरीज का कहना है, "हमें तो भर पेट खाना भी नहीं मिलता."
अस्पताल में 300 मरीज रहते हैं और करीब इतने ही मरीजों को रोज देखा जाता है. लेकिन इनके लिए सिर्फ दो मनोचिकित्सक हैं. कोई नर्स नहीं, क्लिनिकल मनोविज्ञानी नहीं, कोई थेरेपिस्ट नहीं, कोई सामाजिक कार्यकर्ता नहीं. यहां के एक वरिष्ठ डॉक्टर का कहना है, "पिछले 24 साल से मैं यहां हूं, मरीजों की बेहतरी के लिए कुछ नहीं किया गया है."
पश्चिम बंगाल हो, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश या महाराष्ट्र, ज्यादातर सरकारी मानसिक अस्पताल बुरी हालत में हैं. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के मुताबिक भारत में सिर्फ 43 सरकारी मानसिक अस्पताल हैं, जिनमें से सिर्फ आधे दर्जन ही ऐसे हैं, जहां जीने लायक परिस्थितियां हैं. आयोग के सदस्य पीसी शर्मा का कहना है, "राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग से 90 के दशक में कहा गया कि वह मानसिक अस्पतालों पर रिपोर्ट पेश करे. हमने पहली रिपोर्ट 1999 में जारी की. मानसिक अस्पतालों की स्थिति हैरान करने वाली थी. एक दशक बाद भी स्थिति वैसी ही बनी रही. यह दिखाती है कि सरकार मानसिक अस्पतालों को लेकर कौन सा रवैया अपनाती है."
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मानवाधिकार आयोग ने 1999 और 2011 में रिपोर्टें जारी कीं. दोनों एक जैसी लगती हैं. ज्यादातर अस्पतालों में पानी और हवादार कमरों की भी कमी है. बहुत सी इमारतें जर्जर हो गई हैं क्योंकि वे ब्रिटिश जमाने की हैं, ज्यादातर जेलें हैं. मिसाल के तौर पर कोलकाता के बांगुर इंस्टीट्यूट को लीजिए. मरीज यहां गंदे, बिना रोशनी वाले, सीलन भरी जेल की कोठरियों में रह रहे हैं, मरीजों के पुनर्वास की तो बात ही भूल जाइए. यहां स्वयंसेवी के तौर पर काम करने वाले एक मनोविज्ञानी का कहना है, "अगर एक बल्ब फ्यूज हो जाता है, तो इसे बदलने में पांच दिन लगते हैं."
मैंने खुद को एक मरीज की बेटी के तौर पर पेश किया और इनसे पूछा कि क्या मैं उन्हें यहां दाखिल कर सकती हूं. उन्होंने कहा, "यह एक जेल को छोड़ कर कुछ नहीं है. इससे आपके पिता की स्थिति और खराब होगी. यह आप जैसे लोगों के लिए नहीं है."
मानवाधिकार आयोग ने 2011 की रिपोर्ट में कोलकाता के इंस्टीट्यूट ऑफ साइक्याट्री के बारे में डॉक्टर लक्ष्मीधर मिश्र ने लिखा, "मैंने करीब 12 बजे दोपहर यहां के डाइनिंग रूम का निरीक्षण किया. करीब 10 मरीज खाना खा रहे थे, उन्हें 100 ग्राम चावल, करीब 50 ग्राम दाल (जो बिलकुल पानी की तरह था), एक आलू और मिली जुली सब्जी का शोरबा दिया गया था. उन्हें मछली का एक छोटा टुकड़ा भी दिया गया था. कोई सलाद नहीं, कोई तली हुई सब्जी नहीं, कोई पालक नहीं, कोई फल नहीं." इस खाने की औसत कैलोरी करीब 1500 बनती है, जबकि इंसान को कम से कम 2500 कैलोरी की जरूरत होती है.
इंदौर का मानसिक अस्पताल दूर से अस्पताल दिखता भी नहीं. करीब दर्जन भर पुरुष मरीज हैं और उनका हिस्सा धूल से सना है. खिड़कियां टूटी हुई हैं. टॉयलेट बुरी तरह बदबू फैला रहे हैं. महिलाओं के हिस्से में तो कई जगह दरवाजे भी नहीं हैं.
मानसिक स्वास्थ्य और मानवाधिकार पर 2008 में जारी किताब में मानवाधिकार आयोग ने लिखा है, "इंदौर का मानसिक अस्पताल मानवीय लिहाज से बेहद खराब स्थिति में है. यहां मरीजों को जंजीरों में जकड़ा जाता है, उन पर जुल्म किया जाता है और उन्हें नजरअंदाज किया जाता है." स्थिति आज भी वैसी ही है.
शायद यही वजह थी कि अस्पताल के सुपरिटेंडेंट डॉक्टर रामगुलाम राजदान ने मुझे मरीजों और कर्मचारियों से बात करने से मना कर दिया, "नई इमारत बन रही है और हम तीन से चार महीने के अंदर सभी मरीजों को वहां भेज देंगे. जब 1998 में मैंने पद संभाला, तो इस इमारत की छत जर्जर हो चुकी थी. राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी की वजह से सुधार नहीं हो पा रहे हैं."
भारत में करीब 10 करोड़ लोग मानसिक बीमारी से पीड़ित हैं. करीब एक करोड़ को अस्पतालों की जरूरत है. सिर्फ 43 सरकारी मानसिक अस्पताल हैं, जिनमें से ज्यादातर की हालत बेहद खराब है. सिर्फ 4000 मनोविज्ञानी देश में हैं, जिनमें से 70 फीसदी निजी अस्पतालों में प्रैक्टिस करते हैं.
पैरामेडिकों की भी कमी है. मानवाधिकार आयोग की 2008 वाली रिपोर्ट के मुताबिक वाराणसी में एक मनोविज्ञानी के जिम्मे 331 बिस्तरें थीं. जनरल मेडिकल ऑफिसर, मनोचिकित्सक, सामाजिक कार्यकर्ता, डायटीशियन और नर्सों की कमी है. इसके अलावा देश भर के मानसिक अस्पतालों में नर्सों के 30 फीसदी पद खाली पड़े हैं. इसके अलावा चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों की भी भारी कमी है. इनके जिम्मे अस्पतालों और मरीजों के रोजमर्रा के काम होते हैं. इन सबके अलावा यहां बिना बेहोश किए मरीजों को बिजली के झटके दिए जाते हैं क्योंकि यहां एनेस्थीसिया उपलब्ध नहीं होता.
मिश्रा का कहना है, "समस्या इन अस्पतालों का प्रबंधन संभाल रहे अधिकारियों के रवैये का है. भारत के ज्यादातर अस्पतालों का प्रबंधन मनोविज्ञानी नहीं संभाल रहे हैं. इसलिए उन्हें मनोचिकित्सा की बारीकियों के बारे में कुछ पता नहीं है."
मिसाल के तौर पर वाराणसी का मानसिक अस्पताल डॉक्टर केके सिंह चला रहे हैं, जो नाक, कान और गले के विशेषज्ञ हैं. जनरल फीजिशियन और महिला रोग विशेषज्ञों के जिम्मे भी मानसिक अस्पतालों की जिम्मेदारी है. उत्तर प्रदेश के एक सरकारी अस्पताल में काम कर रहे मनोचिकित्सक का कहना है, "इन डॉक्टरों को मानसिक बीमारियों की जटिलताओं के बारे में कुछ पता नहीं होता. उन्हें मरीजों के इलाज के बारे में भी जानकारी नहीं होती."
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साल 2011-12 में बजट में सिर्फ 103 करोड़ रुपये मानसिक बीमारियों के मद पर दिए गए, जो स्वास्थ्य बजट के एक फीसदी से भी कम है. विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक किसी भी देश की आबादी का लगभग 10 फीसदी हिस्सा किसी न किसी तरह दिमागी बीमारी से पीड़ित है. और एक चौथाई आबादी किसी न किसी समय मानसिक बीमारी से जूझता है.
अगर हम भारत के हिसाब से सात फीसदी भी रखें, तो भी करीब आठ करोड़ लोग दिमागी बीमारी से पीड़ित हैं. कोलकाता के एक गैरसरकारी संगठन सेवक के तपस राय का कहना है, "इसका मतलब यह हुआ कि हर मानसिक रोग के लिए साल में सिर्फ 13 रुपये का बजट है. जबकि बुनियादी सुविधाएं, दवाइयां, खाने और रहने के लिए हर महीने कम से कम 500 रुपये की जरूरत है."
केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के मानसिक बीमारी वाले विभाग में काम करने वाले एक वरिष्ठ अधिकारी का कहना है कि सरकार के लिए दिमागी बीमारी कभी भी प्राथमिकता नहीं रही. 1982 में जिला स्तरीय मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम की शुरुआत हुई, जो 1996 तक सिर्फ कागजों पर ही रहा. इसके बाद सरकार ने आखिरकार 27 जिलों में 27 करोड़ की लागत से इसकी शुरुआत की. इस कार्यक्रम से आज सिर्फ 123 जिले कवर होते हैं, जिनमें से 40 फीसदी पद खाली पड़े हैं.
मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी का कहना है कि पैसों की कमी नहीं है. कई बार तो राज्यों ने पैसे वापस कर दिए क्योंकि वे इसका इस्तेमाल नहीं कर पाए, "मानसिक अस्पतालों की बारीकी से निगरानी की जानी चाहिए. लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि इसके लिए लोग नहीं हैं. हमारे पास केंद्रीय मानसिक स्वास्थ्य प्राधिकरण है, लेकिन तीन साल से इसके सदस्य मिले ही नहीं हैं. ऐसी ही हालत राज्य स्तर पर भी है."
कैग ने केरल में पिछले अच्युतानंदन सरकार को फटकार लगाते हुए कहा था कि उसे 9.98 करोड़ रुपये मिले, जिसमें से 4.07 करोड़ रुपये खर्च ही नहीं हुए. केरल ऐसा राज्य है, जहां राष्ट्रीय औसत से तीनगुना दिमागी मरीज हैं.
खराब मेडिकल सिस्टम और मानसिक बीमारी के प्रति जागरूकता की कमी के बीच नीम हकीम मरीजों का इलाज कर रहे हैं. जयपुर के मानसिक अस्पताल के पूर्व सुपरिटेंडेंट डॉक्टर शिव गौतम के एक अध्ययन के मुताबिक 68 फीसदी मरीजों को अस्पताल लाने से पहले ओझा गुणियों के पास ले जाया जाता है.
गौतम का कहना है, "इस अंधविश्वास का कारण यह है कि ज्यादातर डॉक्टर इस बीमारी के बारे में कुछ बता पाने में नाकाम रहते हैं." भारत में एमबीबीएस यानी डॉक्टरी की पढ़ाई में मनोविज्ञान कोई विषय ही नहीं है और इसके लिए सिर्फ 11-12 लेक्चर दिए जाते हैं.
दिल्ली में दिमागी बीमारी से जुड़े कॉस्मोस इंस्टीट्यूट के निदेशक डॉक्टर सुनीत मित्तल का कहना है, "सच तो यह है कि भारत से ज्यादा भारत के मनोविज्ञानी अमेरिका में हैं." आम तौर पर मरीज दिमागी गड़बड़ी के लक्षण के बाद पहले आम डॉक्टर के पास जाता है. अगर वह नाकाम रहा, तो अंधविश्वास की शरण में चला जाता है. गौतम का कहना है, "दिमागी तौर पर बीमार व्यक्ति के अंदर जो लक्षण होते हैं, उसे दैवी शक्ति मान लिया जाता है. ऐसे मरीजों पर जुल्म किया जाता है, जंजीरों में बांधा जाता है और उनके परिवारों से पैसे उगाहे जाते हैं."
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हेमा एक मिसाल है. अंग्रेजी में एमए कर रही यह महिला कुछ महीने पहले तक खुद को मिसेज सोनू निगम कहती थी. यानी मशहूर गायक सोनू निगम की पत्नी. यह शित्सोफ्रेनिया का लक्षण है. लेकिन उसके परिवार वाले उसे अहमदाबाद के पास दातर शरीफ के मजार ले गए. उन्हें लगा कि कोई बुरी आत्मा परेशान कर रही है. वहां वह एक साल तक रही, जंजीरों में बंध कर. जब उसकी हालत बहुत खराब हो गई, तो उसके परिवार वाले उसे गौतम के पास लाए. गौतम का कहना है, "सिर्फ 15 दिन के अंदर उसकी स्थिति में सुधार आने लगा और अब एक महीने बाद वह नॉर्मल है."
हालांकि दिल्ली के बिजनेसमैन संजय इतने खुशकिस्मत नहीं. चार साल पहले उन्हें दिमागी बीमारी के हल्के लक्षण थे. उन्हें दवाइयां दी गईं और उनकी स्थिति बेहतर हुई. लेकिन जैसे ही दवाइयां रोकी गईं, स्थिति फिर खराब हो गई. इसके बाद उनके पिता उन्हें राजस्थान के झुंझुनू जिले में नरहर शरीफ की दरगाह पर ले गए.
संजय का कहना है, "तीन महीने तक मुझे चेन में बांध कर रखा गया. मैं घर लौट कर अपने डॉक्टर से मिलना चाहता था. मेरे पिता को यहां के लोगों पर भरोसा हो गया था कि मैं तभी जा सकता हूं, जब यहां दरगाह से हुक्म होगा." संजय बहुत भावुक होते हुए सलाह देते हैं, "किसी को कभी भी, किसी भी हालात में किसी दरगाह पर मत लाइए."
हीस्टीरिया जैसे मामलों में मरीजों की स्थिति अचानक बिगड़ती है. झाड़ फूंक करने वाले इसका फायदा उठाते हैं. वे ऐसी हरकतें करते हैं, जो मरीज दोहराता है. ओझा लोगों को बेवकूफ बनाते हैं कि वे आत्मा से बात कर रहे हैं.
शित्जोफ्रेनिया के मरीजों के साथ बर्बरता से पेश आते हैं. कई मरीजों को चाबुक से मारा जाता है या फिर जंजीरों में जकड़ दिया जाता है. किसी को जलती हुई मिर्ची का धुआं सुंघाया जाता है तो किसी के आंखों में मिर्ची का पावडर डाल दिया जाता है. किसी किसी को तो जलते हुए सिक्कों से जला दिया जाता है. गौतम का कहना है, "मैं हाल में एक ऐसे मरीज से मिला, जिसके सांस लेने की नली से सिर्फ 2 मिलीमीटर की दूरी पर उसे जलाया गया था."
हालांकि कानून ऐसी चीजों से मना करता है. लेकिन दरगाह और मंदिरों में कई बार लोगों को बांध कर रखा जाता है और वह भी जिंदगी भर के लिए. साल 2001 में तमिलनाडु के रामानाथपुरम के इरावदी गांव की एक दरगाह पर जब आग लगी, तो 26 मानसिक रोगी झुलस गए. वे भाग नहीं पाए क्योंकि उन्हें जंजीरों से बांध कर रखा गया था.
इस घटना के फौरन बाद भारतीय सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को निर्देश दिया कि वह पूरे भारत में सर्वे कराए और पता करे कि कितने रजिस्टर्ड और गैर रजिस्टर्ड केंद्र हैं. अदालत ने यह भी निर्देश दिया कि हर राज्य में कम से कम एक सरकारी दिमागी अस्पताल होना चाहिए. लेकिन आज भी हरियाणा जैसे राज्यों में ऐसी सुविधा नहीं है.
आधिकारिक और सामाजिक स्थिति के बहाने ऐसे मरीजों के रिश्तेदार आसानी से इनसे "निजात" पा रहे हैं. केरल के थिसूर जिले से हाल में एक घटना सामने आई, जहां एक गैरकानूनी केंद्र का पता चला. यहां से 35 पुरुषों और सात बच्चों को अमानवीय स्थिति से बाहर निकाला गया. बताया जाता है कि इन लोगों को इतने दिनों से नहाया नहीं गया था कि इनके शरीर से बू आने लगी और पड़ोसियों ने इसकी खबर स्वास्थ्य अधिकारियों को दी.
इसके बाद अधिकारियों ने इस जगह पर छापा मारा. वहां नंगे और जंजीरों में जकड़े मरीज मिले. इनके परिवार वालों ने इन्हें यहां छोड़ दिया था. कुछ तो अपने शरीर से निकली गंदगी के बीच रेंग रहे थे, कुछ इसे खा रहे थे. उनके शरीर पर यातना के गहरे निशान थे. कुछ के पीठ पर सर्जरी के निशान थे. आरोप है कि यह केंद्र किडनी के सौदागरों से जुड़ा था. हालांकि रजिस्टर में 78 मरीजों के दाखिले का जिक्र था लेकिन सिर्फ 41 मरीज ही मिले.
एक और खतरनाक बात ऐसे मरीजों को जंगल में छोड़ने की बात सामने आई है. वे इन केंद्रों के मालिकों से मिल कर अपने मरीजों को जंगलों तक पहुंचा देते हैं. ये जंगल आम तौर पर दक्षिणी भारत में हैं और उत्तर भारत के लोग कई बार ट्रक ड्राइवरों को मोटी रकम देते हैं कि इन लोगों को जंगलों तक पहुंचा दिया जाए. जंगल में बच्चे और औरतें भी हैं. वायानाद और बांदीपुर के सामाजिक कार्यकर्ताओं का दावा है कि ड्राइवर महिला मरीजों को जंगल में छोड़ने से पहले उनका बलात्कार करते हैं.
केरल के सामाजिक कार्यकर्ता मुरुगन एस कहते हैं कि उन्हें तो याद भी नहीं है कि उन्होंने कितने मानसिक मरीजों को सड़कों, ट्रेन स्टेशनों और बस स्टैंड से बचाया है, "किसी परिवार को क्रूर बताने से पहले हमें यह सोचना चाहिए कि वे ऐसा क्यों करते हैं." वह वही बात कहते हैं, जो पता नहीं कितनी बार दुहराई गई है, "सिस्टम बदलने की जरूरत है."
रिपोर्टः गुंजन शर्मा, द वीक
अनुवादः अनवर जे अशरफ
संपादनः महेश झा
(गुंजन शर्मा स्वास्थ्य और आम लोगों से जुड़े मुद्दों की रिपोर्टिंग करती हैं और भारत की अंग्रेजी पत्रिका द वीक में काम करती हैं. उन्होंने जनसंचार में पढ़ाई के बाद लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में भी पढ़ाई की है. उन्हें इस साल जर्मनी का प्रतिष्ठित डेवलपमेंट मीडिया अवार्ड दिया गया है.)