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आखिर क्यों भड़कते हैं आरक्षण के आंदोलन

शिवप्रसाद जोशी
१२ फ़रवरी २०१९

राजस्थान मे एक बार फिर गुर्जरों के आरक्षण आंदोलन से जनजीवन अस्तव्यस्त है. सालों से मांग के समर्थन में आंदोलन चल रहा है लेकिन कोई हल नहीं निकला है. नौकरियों की कमी के कारण आरक्षण सबसे अहम मांग सा बन गया है.

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Protest der indischen Volksgruppe der Gujjar
तस्वीर: AFP/Getty Images/Raveendran

राज्य के छह जिले आंदोलन की चपेट में हैं और उन जिलों से होकर गुजरने वाली ट्रेनें या तो रद्द कर दी गई हैं या उनके रूट बदल दिए गए हैं, सरकारी बस सेवाओ का भी यही हाल है. रेलवे पटरियों पर धरने के साथ शुरू हुआ आंदोलन अब हाईवे जाम और सड़कों पर प्रदर्शनों तक चला गया है. पुलिस गाड़ियां फूंकने के मामले भी सामने आए हैं. धारा 144 लगाए जाने के बावजूद गुर्जर सड़कों और पटरियों से हटने को तैयार नहीं हैं और राज्य सरकार की बातचीत की पेशकश को भी ठुकरा चुके हैं. गुर्जर समाज सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्‍थानों में प्रवेश के लिए रायका रेबारी, गडिया, लुहार, बंजारा और गड़रिया समाज को पांच प्रतिशत आरक्षण की मांग कर रहा है.

लेकिन सरकार के लिए इतना आसान होता तो ये मामला 1981 से यूं इतना लंबा न खिंचा आ रहा होता. 2006 से इस मांग ने जोर पकड़ा और आरक्षण की मांग के इस दशकों पुराने आंदोलन में 2008 के दौरान खूब खून बहा, बड़े पैमाने पर हिंसा और मौतें हुईं और सरकारी संपत्ति को करोड़ों रुपये का भारी भरकम नुकसान हुआ. एससी या एसटी श्रेणी में किसी जाति को शामिल करने के लिए केंद्र की सहमति जरूरी है और उसके बाद मौजूदा सूची में संविधान संशोधन करने के लिए आखिरी मुहर संसद की लगती है. राज्य की भूमिका सिर्फ इतनी है कि वो संबद्ध जिला कलेक्टरों की रिपोर्टों के आधार पर इस बारे में सिफारिश कर सकती है. गुर्जरों के मामले में बताया जाता है कि कुछ वर्ष पहले सरकार ने जिलों से रिपोर्ट मंगाई थी लेकिन इन रिपोर्टों के निष्कर्ष क्या हैं, ये स्पष्ट नहीं है.

2008 में वसुंधरा राजे सरकार ने विधानसभा में गुर्जरों और अन्य चार समुदायों को एसबीसी (स्पेशल बैकवर्ड क्लास) श्रेणी के तहत पांच प्रतिशत आरक्षण का बिल पेश किया था. राजस्थान हाईकोर्ट ने बिल पर स्टे लगा दिया. सितंबर 2015 में इसे फिर पेश किया गया. ये भी खारिज हुआ. पूर्व बीजेपी सरकार ने एक बार फिर इस बिल को पेश किया लेकिन हाईकोर्ट ने इसे ये कहकर फिर खारिज कर दिया कि ये आरक्षण की 50 फीसदी सीलिंग का उल्लंघन है. फिलहाल राजस्थान में एससी को 16 प्रतिशत, एसटी को 12, ओबीसी को 21 और अत्यंत पिछड़ी जाति के तहत गुर्जरों को एक प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था की गई है जो सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित 50 प्रतिशत की सीलिंग के भीतर आती है. तय सीलिंग से ज्यादा आरक्षण देने वाला देश का इकलौता राज्य तमिलनाडु हैं जहां 69 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था है लेकिन इसके लिए केंद्र को संविधान की नौवीं अनुसूची में संशोधन करना पड़ा है. सुप्रीम कोर्ट से भी इसे हरी झंडी मिल गई. 2010 के एक फैसले में कोर्ट ने कहा था कि अगर राज्य के पास ठोस वैज्ञानिक डाटा है तो उस आधार पर वो सीलिंग से आगे जा सकता है. तेलंगाना का आरक्षण कोटा 62 प्रतिशत तक कर देने का एक बिल केंद्र के पास संस्तुति के लिए लंबित है. हरियाणा में भी आरक्षण सीलिंग को पार करने का मामला कोर्ट में गया था. 

Protest der indischen Volksgruppe der Gujjar
तस्वीर: AFP/Getty Images/Raveendran

राजस्थान की कुल आबादी में 12-15 प्रतिशत जाट, 10 प्रतिशत मीणा और छह प्रतिशत गुर्जर हैं. जाटों को 1999 में ओबीसी और मीणाओं को बहुत पहले 1954 में एसटी दर्जा मिल चुका है. 200 सीटों वाली विधानसभा में गुर्जरों के मुकाबले जाट और मीणा प्रतिनिधियों की अधिकता है. आरक्षित पदों की नौकरियां भी अधिकांश उनके हिस्से आ जाती हैं. पुलिस और प्रशासनिक सेवाओं में मीणाओं का बोलबाला है. राजनीतिक, आर्थिक, शैक्षणिक और प्रशासनिक दबदबे वाले मीणा और जाट समुदाय के समांतर गुर्जरों को वैसी ताकत हासिल नहीं है और यही इस लड़ाई का मुख्य पहलू है जिसमें जातीय हित और अन्य क्षेत्रों में प्रतिस्पर्धा ने इसे और तीखा बना दिया है. गुर्जरों को लगता है कि उनकी सामाजिक स्थिति कमतर होने के बावजूद उन्हें आरक्षण के लाभ से वंचित रखा गया. अब ये बिंदु ऐसा है कि जिस पर सरकारें और राजनीतिक दल, वोटबैंक की राजनीति के तहत बोलते या चुप्पी लगा जाते हैं.

लिंगानुपात से लेकर शैक्षणिक पिछड़ापन और रोजगार की समस्या भी अन्य जातियों की अपेक्षा गुर्जरों में अधिक है. सवाई माधोपुर, करौली, ढोलपुर, भरतपुर और दौसा जिलों में अधिकांश गुर्जर आबादी रहती है. लेकिन गुर्जरों के एसटी में आने की दशकों पुरानी मांग का मीणा समुदाय पुरजोर विरोध करता आ रहा है, सरकार के लिए भी ये एक बड़ा सिरदर्द इसलिए है कि अगर गुर्जर की मांग पर कोई सकारात्मक पहल तलाशी गई तो मीणा विरोध में उठ खड़े होंगे. जैसे जाटों को ओबीसी में लाने के बाद उस श्रेणी की जातियों ने तीखा विरोध किया था. और वो फांस अब भी बनी हुई है.

सवाल यही है कि आरक्षण के लिए रह रह कर भड़क उठते आंदोलन विभिन्न सरकारों की शार्टकट नीतियों का परिणाम हैं, पैंडोरा बॉक्स की तरह जो खुल गया है और अब बंद होने को नहीं आता? देश के विभिन्न हिस्सों में आरक्षण की मांगें सर उठाती रही हैं और रक्तरंजित और हिंसा भरे आंदोलन चले हैं. गुजरात का पाटीदार आंदोलन या हरियाणा का जाट आंदोलन या सवर्ण गरीबों को दस फीसदी आरक्षण की केंद्र की हाल की घोषणा से लगता है कि देश मानो आरक्षण की सुविधा के लिए छीनाझपटी में उलझा हुआ है. ये भुला दिया गया है कि आरक्षण की व्यवस्था संविधान में बराबरी का हक दिलाने के लिए पीढ़ियों से वंचित और दलित समाजों के लिए की गई थी, ये उनका संविधान प्रदत्त अधिकार बनाया गया था लेकिन अब आरक्षण के लिए मारामारी, बंपर सेल की तरह हो गई है.

और एक बात लगातार इस पूरी बहस में सामने नहीं आने दी जा रही है कि आखिर इस आरक्षण का उपयोग कहां होगा. शिक्षा, स्वास्थ्य, नौकरी में कटौतियों और छंटनी के सवाल दबे हुए हैं- ये सवाल भी दबा हुआ है कि आखिर कॉरपोरेट और निजी संस्थानों का शिक्षा, स्वास्थ्य और नौकरियों में कैसा बोलबाला होता जा रहा है और सरकारी सेवाएं सिकुड़ रही हैं. आरक्षण के आंदोलनों को अपनी सुविधा से हवा देने या दबाने के समीकरण बैठाते राजनीतिक दलों को सरकारों के जरिए पिछड़े और उपेक्षित तबकों के बीच स्कूल, अस्पताल, शिक्षा और रोजगार के अवसर बनाने, संस्थानों को खड़ा करने और लोगों को उनके हाल पर न छोड़ने की जिम्मेदारी है. लेकिन जिस तरह से सरकारें आंखे मूंदे रहती हैं और लाभ उठाने की राजनीति करती हैं, वैसे में आरक्षण के ये आंदोलन तो शायद ही कभी थमें, सरकारी संपत्ति और मानव संसाधन का नुकसान होता रहेगा, जाति, धर्म और राजनीति में वर्चस्व की लड़ाई ही बची रहेगी. विभाजित समाज का ध्यान असली मुद्दों से भटकता रहेगा.