आजादी के बाद से ही शुरू हो गया था रक्षा घोटालों का इतिहास
७ मार्च २०१९जीप घोटाला, 1948
1947 में आजादी के बाद से ही भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव चलता रहा है. जब पाकिस्तान की कबाइली फौजों ने कश्मीर पर आक्रमण शुरू किया तो सीमा की देखभाल और दूसरे कामों के लिए भारतीय सेना ने सरकार से जीपों की मांग की.
भारत सरकार की तरफ से इंग्लैंड में भारत के उच्चायुक्त वीके कृष्णमेनन ने ब्रिटिश कंपनियों के साथ जीप खरीदने का सौदा किया. मेनन ने एक संदिग्ध कंपनी के साथ 1500 जीपों की खरीददारी का सौदा कर लिया. इसके लिए उन्होंने 80 लाख रुपए कंपनी को एडवांस में दे दिए.
इन जीपों की जरूरत भारत को तुरंत थी लेकिन इनकी पहली खेप जिसमें 150 जीपें थीं, सीजफायर होने के बाद भारत पहुंची. साथ ही ये इतनी घटिया क्वालिटी की थीं कि चल भी नहीं सकती थीं.
इस घोटाले की जांच के लिए अनंथसायनम आयंगर की अध्यक्षता में कमिटी बनाई गई. लेकिन इसका कोई नतीजा नहीं निकल सका और 30 सितंबर 1955 को ये केस बंद कर दिया गया. साथ ही, 3 फरवरी 1956 को मेनन जवाहर लाल नेहरू की सरकार में मंत्री बन गए. भारत-चीन युद्ध के समय मेनन भारत के रक्षा मंत्री थे. इस युद्ध के बाद उन्हें इस्तीफा देना पड़ा था.
बोफोर्स घोटाला, 1987
1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने. 1984 के लोकसभा चुनाव में राजीव की अगुवाई में कांग्रेस ने रिकॉर्ड 412 सीटें हासिल कीं. लेकिन 1989 के चुनाव में उनकी सरकार चली गई. इसका एक बड़ा कारण बोफोर्स घोटाला था. भारत सरकार ने सेना के लिए 155 एमएम फील्ड हवित्जर खरीदने के लिए टेंडर निकाला.
हवित्जर का मतलब छोटी तोप या बंदूक होता है. सरकार ने तय किया था कि इस डील में कोई बिचौलिया नहीं होगा. तीन देशों फ्रांस, ऑस्ट्रिया और स्वीडन ने इस सौदे में दिलचस्पी दिखाई. स्वीडन और ऑस्ट्रिया ने आपस में तय किया कि तोप स्वीडन सप्लाई करेगा और गोला-बारूद ऑस्ट्रिया का होगा. ऐसे में स्वीडन की कंपनी बोफोर्स एबी को ये डील मिल गई.
करीब 1500 करोड़ के इस सौदे में भारत को 410 हवित्जर बेची गईं. लेकिन मई, 1986 में स्वीडन के एक रेडियो पर खबर आई कि बोफोर्स ने इस सौदे को हासिल करने के लिए करीब 64 करोड़ रुपए की रिश्वत दी है. और इस कथित रिश्वत देने में राजीव गांधी का भी नाम आया. साथ ही बोफोर्स तोप की क्षमता पर भी सवाल उठाए गए. इस डील में इटली के रहने वाले और उस दौर में गांधी परिवार के करीबी ओतावियो क्वात्रोकी पर इस सौदे में दलाल की भूमिका निभाने का आरोप लगा.
इन्होंने खाई जेल की हवा
1989 के चुनाव में कांग्रेस सत्ता से बाहर हो गई. क्वात्रोकी भारत से भागकर विदेश चले गए. राजीव गांधी पर क्वात्रोकी की मदद के भी आरोप लगे. इस मामले की सीबीआई जांच शुरू हुई. 1991 में राजीव की हत्या के बाद उनका नाम आरोपियों की सूची से हटा दिया गया. हालांकि जांच जारी रही और 31 मई, 2005 को दिल्ली हाइकोर्ट ने राजीव गांधी के खिलाफ लगे सारे आरोपों को गलत करार दिया.
सीबीआई ने इंटरपोल से लेकर कई संस्थाओं से क्वात्रोकी को हिरासत में लेने की कोशिश की लेकिन सफल न हो सकी. 12 जुलाई, 2013 को क्वात्रोकी की मौत हो गई. साथ ही, 1999 में हुए कारगिल युद्ध में बोफोर्स तोप की अच्छी परफॉर्मेंस ने इसकी क्वालिटी पर खड़े किए गए सवालों को हमेशा के लिए बंद कर दिया.
कारगिल ताबूत घोटाला, 1999
हथियारों की खरीद-फरोख्त के अलावा कारगिल युद्ध में मारे गए सैनिकों के लिए खरीदे गए कफनों और ताबूतों की खरीददारी में भ्रष्टाचार का आरोप अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार पर लगा. कैग की रिपोर्ट के मुताबिक कारगिल युद्ध में मारे गए भारतीय सैनिकों के लिए सरकार ने अमेरिकी फर्म बुइटरोन एंड बैजा से 500 एल्युमिनियम ताबूत खरीदने का सौदा किया.
एक ताबूत की कीमत करीब 2500 डॉलर रखी गई. कैग के अनुमान के मुताबिक यह कीमत वास्तविक कीमत का 13 गुना थी. हालांकि भारत और अमेरिका दोनों के राजदूतों ने यह घोषणा की थी कि ऐसे एक ताबूत की कीमत 2768 डॉलर थी.
इस सौदे में तत्कालीन रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडीस और तीन आर्मी अफसरों का नाम आया. सीबीआई जांच हुई. दिसंबर, 2013 में सीबीआई की स्पेशल कोर्ट के फैसले में सभी आरोपियों को बरी कर दिया गया. और ये केस भी खत्म हो गया.
बराक मिसाइल डील घोटाला, 2001
साल 2001 में तहलका पत्रिका ने ऑपरेशन वेस्ट एंड नाम से एक स्टिंग ऑपरेशन किया. इसमें आरोप लगाया गया कि भारत सरकार द्वारा किए गए 15 रक्षा सौदों में रिश्वतखोरी हुई है. इस्राएल से खरीदे जाने वाली बराक मिसाइल भी इनमें से एक थी. भारत सरकार इस्राएल से 7 बराक मिसाइल सिस्टम और 200 मिसाइल खरीदने वाली थी.
भारत सरकार की जो टीम इस मिसाइल को देखने इस्राएल गई थी उसने इस मिसाइल की क्षमता पर प्रश्नचिह्न लगाए. साथ ही, उस समय डीआरडीओ प्रमुख रहे डॉ अब्दुल कलाम ने भी इसकी क्षमता पर आपत्ति जताई. लेकिन फिर भी इस सौदे को हरी झंडी दे दी गई. तहलका के इस स्टिंग में एनडीए सरकार की सहयोगी समता पार्टी के खजांची आरके जैन ने कबूल किया कि इस सौदे को करवाने के लिए उन्हें पूर्व नौसेना प्रमुख एसएम नंदा के बेटे सुनील नंदा से एक करोड़ रुपये की रिश्वत मिली थी.
साथ ही उन्होंने जॉर्ज फर्नांडीस और उनकी करीबी जया जेटली को भी पैसे दिए थे. इस घोटाले की सीबीआई जांच हुई और आरके जैन और सुनील नंदा को गिरफ्तार किया गया. 24 दिसंबर, 2013 को सीबीआई ने यह केस सबूतों की कमी के चलते बंद कर दिया. खास बात ये थी कि इस केस के बंद होने से एक दिन पहले यानी 23 दिसंबर, 2013 को तत्कालीन रक्षा मंत्री एके एंटनी ने 262 बराक मिसाइल खरीदने की अनुमति दी थी.
अगस्ता वेस्टलैंड हेलिकॉप्टर डील स्कैम, 2007
साल 2000 में भारतीय वायुसेना ने रक्षा मंत्रालय से कहा कि भारत के राष्ट्रपति, पीएम और सेनाध्यक्षों समेत तमाम दूसरे बड़े वीवीआईपी लोगों के लिए नए हेलिकॉप्टर्स की जरूरत है. तब तक ये एमआई-8 हेलिकॉप्टर का इस्तेमाल कर रहे थे. अगले 10 सालों में इन्हें बदलने की जरूरत थी.
सुरक्षा की दृष्टि से तय किया गया कि ये ऐसे हेलिकॉप्टर हों जो 6 हजार मीटर की ऊंचाई तक उड़ सकें. 2007 में टेंडर निकाले गए. दो कंपनियां सामने आईं. पहली सिकोर्स्की और दूसरी फिनमैकेनिका. फिनमैकेनिका अगस्ता वेस्टलैंड की पैरेंट कंपनी है. केंद्र सरकार ने एयरफोर्स की सिफारिश पर अगस्ता वेस्टलैंड के मॉडल एडब्ल्यू 101 को चुना.
12 हेलिकॉप्टरों की कीमत करीब 3600 करोड़ थी. 2012 से डिलिवरी शुरू हो गई. 2013 तक 3 हेलिकॉप्टर भारत आ गए. लेकिन 2013 में इस डील में रिश्वतखोरी की बात सामने आई. आरोप लगा पूर्व एयर चीफ मार्शल एस पी त्यागी पर. कहा गया कि उन्होंने डील के नियम बदले और ऊंचाई की सीमा को घटाकर 6000 मीटर से 4500 मीटर कर दिया. इससे अगस्ता वेस्टलैंड को ये सौदा मिल गया.
इसके एवज में त्यागी और उनके रिश्तेदारों पर 360 करोड़ रुपए की रिश्वत लेने के आरोप लगे. अगस्ता वेस्टलैंड की तरफ से इस पूरे सौदे को करवाने की जिम्मेदारी क्रिश्चियन मिशेल नाम के दलाल पर थी. उन्हें कंपनी ने कथित तौर पर 225 करोड़ रुपये दिए थे. इस मामले के सामने आते ही सरकार ने ये सौदा रद्द कर दिया. फिलहाल एसपी त्यागी और मिशेल दोनों सीबीआई की गिरफ्त में हैं और जांच चल रही है.