आर्कटिक के ऊपर ओजोन की परत में सबसे बड़ा छेद
१४ अप्रैल २०२०वैज्ञानिकों का मानना है कि ओजोन परत में छेद का कारण इस साल आया ध्रुवीय चक्रवात है. पोलर वोर्टेक्स के चलते धरती के उत्तरी ध्रुव पर करीब 10 लाख वर्ग किलोमीटर का छेद खुल गया है. यह डाटा यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी ईएसए के जिस उपग्रह से मिला है उसका नाम कोपरनिकस सेंटिनेल-5पी है. 2020 की शुरुआत से ही रिसर्चरों को आर्कटिक के ऊपर ओजोन का घनत्व काफी कम लगने लगा था. अप्रैल आते आते इस छेद का आकार बढ़कर 10 लाख वर्ग किलोमीटर तक पहुंच गया.
जर्मनी के अल्फ्रेड-वेगनर इंस्टीट्यूट में एटमोस्फियरिक फिजिक्स विभाग के प्रमुख मार्कुस रेक्स का कहना है, "ओजोन परत के जिन हिस्सों की मोटाई सबसे ज्यादा है, उनमें भी करीब 90 फीसदी की कमी आई है." आर्कटिक के ऊपर घटती ओजोन परत को लेकर काफी पहले से चिंता जताई जाती रही है.
क्या सामान्य है ओजोन का घटना
असल में धरती के उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव के पास के वातावरण से हर साल ओजोन की मात्रा घटती है. इसका कारण वहां का बेहद कम तापमान होता है जिसके चलते ध्रुवों के ऊपर के बादल आपस में चिपक कर एक बड़ा पिंड बना लेते हैं. उद्योग धंधों से निकलने वाली क्लोरीन और ब्रोमीन जैसी गैसों की इन बादलों से मिलकर ऐसी प्रतिक्रिया होती है जिसके कारण वहां स्थिति ओजोन परत का क्षरण होने लगता है.
धरती को चारों ओर से घेरने वाली ओजोन परत उसकी सुरक्षा करती है. ऑक्सीजन के तीन अणु मिलकर ओजोन बनाते हैं. ओजोन की परत धरती से 10 किलोमीटर की ऊंचाई पर शुरू हो जाती है और 50 किलोमीटर ऊपर तक मौजूद रहती है. ओजोन की परत इंसानों में कैंसर पैदा करने वाली सूरज की पराबैंगनी किरणों को भी रोकती है. पहले वैज्ञानिकों ने अनुमान लगाया था कि ओजोन परत इस सदी के मध्य तक पूरी तरह ठीक हो सकती है.
कम तापमान है एक कारण
आर्कटिक की ही तरह अंटार्कटिक के ऊपर भी जाड़ों में अत्यधिक कम तापमान के कारण छेद बड़ा हो जाता है. इनका आकार भी 2.0 से 2.5 करोड़ वर्ग किलोमीटर तक हो सकता है और तीन से चार महीने तक रह सकता है. इससे पता चलता है कि आर्कटिक के ऊपर का छेद असल में अंटार्कटिक के छेद से कितना छोटा होता है. लेकिन गौर करने वाली बात यह है कि आर्कटिक के ऊपर ओजोन परत में इतना बड़ा छेद ही असामान्य बात है क्योंकि इस ध्रुव पर तापमान में आमतौर पर इतनी गिरावट नहीं आती. यही वजह है कि आर्कटिक पर इतने बड़े ओजोन होल ने वैज्ञानिकों को हैरत में डाल दिया है.
वैज्ञानिकों ने 1970 के दशक में चेतावनी दी थी कि पृथ्वी के ऊपर मौजूद ओजोन परत लगातार पतली होती जा रही है. अंटार्कटिक के ऊपर मौजूद छेद का पता 1985 में चला था. 1987 में मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल के तहत ज्यादातर देशों ने क्लोरोफ्लोरो कार्बन पर प्रतिबंध लगा दिया, जिसका इस्तेमाल कूलिंग के लिए किया जाता था. सीएफसी क्लोरीन गैस में बदलकर ओजोन को रासायनिक रूप से तोड़ता है. इसका अच्छा असर अब ओजोन परत पर दिखाई पड़ रहा है. रेक्स का कहना है, "अगर ये रेगुलेशन नहीं होते तो इस साल के हालात और भी बुरे होते."
आरपी/एमजे (डीपीए)
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