एनआरसी की भूल सुधारने के लिए नागरिकता संशोधन करेगी बीजेपी
११ अक्टूबर २०१९असम में करीब 19 लाख लोगों को भारत की नागरिकता खोने का डर सता रहा है. इन लोगों का नाम एनआरसी की लिस्ट से बाहर हो गया है. यह लिस्ट बांग्लादेश मूल के अवैध प्रवासियों को देश से बाहर निकालने के लिए लाई गई थी. लेकिन आरोप लगाए जा रहे हैं कि इनमें बहुत से मूल नागरिकों का नाम भी है. इनमें से ज्यादातर लोगों को यह उम्मीद है कि केंद्र की मोदी सरकार उन्हें इस संकट से उबारने का काम करेगी.
2016 में असम में विधानसभा चुनाव हुआ था. बीजेपी ने इस चुनाव में लोगों से 'अवैध बांग्लादेशियों' से 'जाति, माटी और भेती' बचाने का नारा दिया था. बीजेपी को इस नारे का फायदा भी मिला और राज्य में उनकी सरकार बनी. पार्टी ने बांग्लादेश से आए मुसलमानों को 'घुसपैठिया' और हिंदू, सिख, बौद्ध और जैन लोगों को 'शरणार्थी' घोषित कर दिया. बीजेपी ने कहा कि ये शरणार्थी उत्पीड़न से बचने के लिए यहां आए थे. बीजेपी सरकार द्वारा प्रस्तावित नए नागरिकता संशोधन विधेयक के अनुसार यदि ये लोग साबित कर देते हैं कि वे 31 दिसंबर 2014 से पहले से भारत में रह रहे हैं तो उन्हें नागरिकता दे दी जाएगी.
हिंदू भी एनआरसी लिस्ट से हुए बाहर
जब एनआरसी का पहला मसौदा 2018 में जारी किया गया था तब उस समय करीब 41 लाख लोगों का नाम इस लिस्ट में नहीं था. इन लोगों की नागरिकता खतरे में पड़ गई थी. इनमें से कई सारे लोग मुस्लिम समुदाय के थे जो काफी गरीब और अशिक्षित थे. हालांकि इस मसौदे की फिर से समीक्षा की गई और अगस्त 2019 में एनआरसी की फाइनल लिस्ट जारी हुई. इस बार लिस्ट में कई सारे हिंदुओं और आदिवासियों का भी नाम नहीं है. असम के प्रदेश भाजपा अध्यक्ष रंजीत कुमार दास ने कहा, "यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि करीब 19 लाख लोगों का नाम एनआरसी की लिस्ट में नहीं है. इसमें कई सारे आदिवासी लोग भी शामिल हैं. अधिकारियों द्वारा माइग्रेशन सर्टिफिकेट जैसे दस्तावेज नहीं लिए गए. हमने देखा है कि एनआरसी में विदेशियों का नाम भी शामिल है, जो गलत है."
हिमंता बिस्वा सरमा 2016 में कांग्रेस छोड़कर बीजेपी में शामिल हुए थे. वे असम की सरकार में वित्त मंत्री हैं. सरमा कहते हैं, "हमें एनआरसी में किसी तरह की दिलचस्पी नहीं है. बांग्लादेश की सीमा से सटे जिलों में एनआरसी लिस्ट के बाहर होने की दर सबसे कम क्यों है? कुछ तो गलत है." सरमा बांग्लादेश की सीमा से सटे धुबरी, करीमगंज और दक्षिण सलमार जिले की बात कर रहे थे, जहां सबसे ज्यादा प्रवासी पहुंचे माने जाते थे. मध्य असम के एक गांव मलोइबारी में रहने वाले काफी हिंदुओं का नाम एनआरसी लिस्ट से बाहर हो गया है. इस गांव में रहने वाले स्वास्थ्य कर्मचारी बाबुलाल कार कहते हैं, "एनआरसी लिस्ट से बाहर हुए कई लोगों ने आत्महत्या कर ली है क्योंकि वे ज्यादा तनाव नहीं झेल सकते थे. पहले मतदाता सूची में नाम होने की वजह से उन्हें सारी सुविधाएं मिल रही थी."
जिन लोगों के नाम लिस्ट से बाहर हो गया है, उनके पास अब अधिकारियों को दिखाने के लिए और कोई दस्तावेज नहीं बचा है. वे पहले ही माइग्रेशन सर्टिफिकेट, पुश्तैनी रिकॉर्ड और जमीन के कागजात जमा कर चुके हैं. उत्तरी असम के डिब्रूगढ़, तिनसुकिया और शिवसागर जिले के लोगों की भी समस्या कुछ इसी तरह की है. ये जिले म्यांमार और अरुणाचल प्रदेश की सीमा से सटे हुए हैं.
असम के कई समूह हैं नाराज
असम में विपक्षी नेताओं और प्रमुख नागरिक समूहों ने बीजेपी में एनआरसी को लेकर भावनाओं में बदलाव पैदा करना शुरू कर दिया है. इसका असर ये है कि जो पहले जोर-शोर से एनआरसी का उत्साहपूर्वक समर्थन कर रहे थे, अब असल नागरिकों के बाहर निकाले जाने की आंशका से शांत पड़ गए हैं. गैर-सरकारी संगठन असम पब्लिक वर्क्स ने 2015 में एनआरसी रजिस्टर को अपडेट करने और अवैध विदेशियों को देश से बहर निकालने के लिए याचिका दायर की थी. अब इस संगठन ने एनआरसी की फाइनल लिस्ट के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील करने का निश्चय किया है.
असमिया राष्ट्रवादी जो पहले एनआरसी लिस्ट को अपडेट करने की वकालत कर रहे थे, अब नतीजों से उदास हैं. सबसे पहले ऑल असम स्टूडेट यूनियन (आसू) ने एनआरसी का विचार रखा था. अब इस संगठन ने सरकार पर आरोप लगाया है कि वह राज्य के मूल नागरिकों को 'विदेशी लोगों से अलग करने' में विफल रही. संगठन की महासचिव ल्यूरिन ज्योति गोगोई कहती हैं, "यह एनआरसी अधूरा है और गलतियों से भरा हुआ है. हम रि-वेरिफिकेशन की मांग करते हैं और इसके लिए सुप्रीम कोर्ट जाएंगे." असम की आजादी के लिए संघर्ष कर रहे प्रतिबंधित चरमपंथी संगठन यूनाइटेड लेफ्ट फ्रंट ऑफ असम के महासचिव अनुप चेतिया कहते हैं, "आदिवासियों और भारतीय नागरिकों को हर हाल में एनआरसी में जगह मिलनी चाहिए. अब सरकार को विदेशियों को पहचानने के लिए विशेष टास्क फोर्स का गठन करना चाहिए."
असंतुष्टों को साथ लाने की कोशिश
बीजेपी इस मुश्किल स्थिति को सुधारने का प्रयास कर रही है. नागरिकता संशोधन विधेयक (सीएबी) और राष्ट्रीय स्तर पर नागरिकों की सूची दोनों को पेश कर भारत के नागरिकता नियमों में संशोधन करना चाहती है. कुछ सप्ताह पहले भारत के गृह मंत्री अमित शाह असम गए थे. उन्होंने लोगों को आश्वस्त किया था कि उनकी पार्टी गलत तरीके से सूची से बाहर हो गए लोगों की मदद करेगी. उन्होंने कहा, "मैं यहां सभी शरणार्थी भाई-बहनों को आश्वस्त करता हूं कि उन्हें घबराने की जरूरत नहीं है. केंद्र सरकार उन्हें देश से जबरन बाहर नहीं निकालेगी. हम नागरिकता संशोधन विधेयक लाएंगे जो यह सुनिश्चित करेगा कि उन्हें भारत की नागरिकता मिल सके."
नागरिकता संशोधन विधेयक के तहत बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान से आए उन हिंदुओं, जैनियों, ईसाइयों, सिखों, बौद्धों और पारसियों को नागरिकता देने का वादा किया है जो छह साल से ज्यादा समय से भारत में रह रहे हैं. लेकिन मुसलमानों को इससे बाहर रखा गया है. फिलहाल 1955 के नागरिकता अधिनियम के तहत कम से कम 11 साल तक देश में रहने वालों को भारत की नागरिकता दी जा सकती है. नागरिकता संशोधन बिल को जुलाई 2016 में संसद में पेश किया गया था लेकिन विरोध की वजह से वापस ले लिया गया था. अब नरेंद्र मोदी की सरकार ने इसे फिर से जनवरी 2019 में इसे पेश किया था. लोकसभा से पास होने के बाद यह बिल अटक गया था. हालांकि मिजोरम जैसे पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों ने इस नए बिल को पेश नहीं करने का आग्रह किया है. उनका कहना है कि इससे राज्य में अवैध प्रवासियों की बाढ़ आ जाएगी.
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