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समाजभारत

भारतीय समाज का कड़वा सच

DW Mitarbeiterportrait | Mahesh Jha
महेश झा
६ सितम्बर २०१५

महिलाओं को समाज में जिस बर्ताव और जिस हिंसा का सामना करना पड़ता है उसका एक भयानक रूप एसिड हमला है. अगर समाज कुछ करने को तैयार न हो तो भविष्य अपने हाथों में लेना ही सही रास्ता है, कहना है महेश झा का.

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तस्वीर: Ann-Christine Woehrl/Edition Lammerhuber (Ausschnitt)

अकसर समाज अपनी खामियों को आसानी से स्वीकार नहीं करते. और अगर कमियां स्वीकार न की जाएं तो उन्हें ठीक करना भी संभव नहीं. भले ही हम देवियों की पूजा करें लेकिन महिलाओं का सम्मान नहीं करते. देवियों की पूजा अपने फायदे के लिए है, इसी तरह परिवार और समाज में वर्चस्व भी अपने ही फायदे के लिए है. नहीं तो महिलाओं के खिलाफ हो रही हिंसा को रोकने में इतने निरुपाय नहीं होते.

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महेश झा

आगरा में एसिड हमले से पीड़ित कुछ महिलाओं ने स्वाबलंबी बनने का जो विकल्प चुना है वह दूसरे लोगों के लिए भी मिसाल बनेगा. आर्थिक आजादी आत्मसम्मान के अलावा फैसला लेने की हिम्मत भी देती है, आत्मनिर्भर बनाती है, सामाजिक सत्ता के दायरे में स्थिति मजबूत करती है. शायद इसी से हालात बदलेंगे. और वे लोग भी बदलेंगे जो बात न माने जाने की स्थिति में हिंसा का सहारा लेते हैं.

आगरा की पीड़ित लड़कियों की व्यक्तिगत दास्तां भारतीय समाज का कड़वा सच भी सामने लाती है, जहां बाप अपनी बेटी की चिंता नहीं करता और उस पर भी तेजाब फेंकता है. जहां भाई संपत्ति के विवाद में बहन पर तेजाब फेंकता है. उन्हें रोकने के लिए न्यायिक व्यवस्था को चुस्त बनाना जरूरी है. ताकि अपराधी को पता हो कि क्षणिक आवेश उसकी जिंदगी को भी बर्बाद कर सकता है.

सबसे जरूरी हिंसक होते माहौल को बदलना है. सामाजिक संस्थाओं को आक्रोश और आवेश को कम करने के उपाय करने होंगे. दूसरी ओर पीड़ित लड़कियों के लिए इलाज और प्रशिक्षण के उपाय करने होंगे ताकि वे जहां तक हो सके सामान्य जिंदगी जी सकें, सर उठाकर चल सकें, और समाज के विकास में वह योगदान दे सकें जो वे हमले से पहले देना चाहती थीं. आगरा की लड़कियां यही कर रही हैं.

ब्लॉग: महेश झा

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महेश झा सीनियर एडिटर