ऑनर किलिंग के डर में जी रही हैं पाकिस्तानी लड़कियां
२४ अक्टूबर २०१८15 साल की उम्र से ही खानजैद महबूब पाकिस्तान के सिंध प्रांत के एक गांव में अपना स्कूल चला रहीं थी. खानजैद के काम और लगन से खुश होकर एक गैर सरकारी संस्था ने 2011 में स्कूल के लिए एक बिल्डिंग दे दी. हालांकि खानजदी के लिए जिंदगी इतनी आसान नहीं थी. जैसे ही उन्होंने 12वीं की पढ़ाई पूरी की उनके घरवालों का दबाव उन पर बढ़ने लगा. खानजदी कहती हैं, "मेरे चाचा और परिवार के दूसरे सदस्य मुझ पर शादी के लिए दबाव बनाने लगे और मुझसे पढ़ाना छोड़ने के लिए कहने लगे."
उन्होंने डीडब्ल्यू को बताया, "मेरा परिवार स्कूल बिल्डिंग पर कब्जा कर मेरी मर्जी के खिलाफ मेरी शादी करना चाहता था. जब मैंने मना किया उन्होंने मुझे घर से निकाल दिया और वो स्कूल भी बंद करा दिया जहां कई बच्चे पढ़ने के आते थे. कुछ समय के लिए मैं अपने एक रिश्तेदार के यहां रहीं." उन्होंने बताया, "मेरे एक चाचा ने मुझे अपने घर में बंद कर दिया जिसके बाद मैंने पुलिस से इमरजेंसी नंबर पर कॉल किया. पुलिस ने मुझे वहां से छुड़ा कर एक शेल्टर हाउस(संरक्षण गृह) में भेज दिया. जहां मैं कुछ महीने रही." अब खानजैद कराची में रहती हैं.
शादी के चलते खतरा
परिवारवालों से भागने के बाद भी खानजैद की परेशानियां खत्म नहीं हुई. बकौल खानजैद, "जब मैंने शेल्टर हाउस छोड़ा था तब मेरे पास एक कौड़ी भी नहीं थी. एक पुलिस वाले ने दया कर मुझे कुछ पैसे दे दिए थे. इसके बाद जब मैं कराची पहुंची थी तो मैंने अपनी मर्जी से मेरे गांव के एक लड़के से शादी करना तय किया. मेरे इस फैसले ने मेरे परिवारवालों को भड़का दिया. उन्होंने ऐलान कर दिया कि वह मुझे और मेरे पति को जान से मार डालेंगे. उन्होंने मेरे पति के परिवार वालों की जमीन और घरों पर कब्जा कर लिया." ये कहानी सिर्फ खानजैद की नहीं है. आज पाकिस्तान में कई लड़कियां ऑनर किलिंग के डर में जी रही हैं. देश के मानवाधिकार आयोग के मुताबिक अक्टूबर 2016 से जून 2017 तक देश में ऑनर किलिंग के तकरीबन 280 मामले सामने आए हैं.
पाकिस्तान के सिंध प्रांत के कई शहरों में ऑनर किलिंग एक आम बात है. इस भयानक परंपरा को सिंध में "करो-करी" कहा जाता है. देश के कई हिस्सों में यह प्रथा दशकों से चली आ रही है. कुछ मामलों में औरतों को सिर्फ पुरुषों से बात करने के चलते मार दिया जाता है. देश के सख्त कानून अब तक इस कबायली परंपरा पर लगाम नहीं लगा सके हैं. हाल ही में पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में एक 18 साल की लड़की और उसके 21 साल के बॉयफ्रेंड को जान से मार दिया गया था.
आज खानजैद को सिर्फ अपनी जान का डर नहीं है बल्कि वह अपने बच्चे के लिए भी परेशान हैं. उसने बताया, "मैं बचने के लिए हमेशा जगह बदलती रहती हूं, लेकिन मैं यह कब तक कर सकती हूं? मैं बहुत ही गरीब परिवार से हूं, मेरे पति पुलिस में काम करते हैं. हमारे पास ज्यादा कुछ नहीं है, मैं डर और मौत के साये में जी रही हूं. मैं अपने गांव वापस जाना चाहती हूं और बच्चों को शांति से स्कूल में पढ़ाना चाहती हूं."
मजबूर प्रशासन
खानजैद कहती हैं कि प्रशासन उनके परिवार को सुरक्षा देने में नाकाम हैं. वह कहती हैं, "प्रशासन क्या कर लेगा. सरकार, अदालतें, पुलिस और प्रशासन सब मजबूर हैं. सिंध में कबायली और सामंतवादी ताकतों का दबदबा है. क्या वह 24 घंटे मुझे और मेरे पति को सुरक्षा दे सकते हैं?" पाकिस्तान के मानवाधिकार आयोग से जुड़े असद बट्ट इस मजबूरी को समझते हैं. डीडब्ल्यू से बातचीत में उन्होंने कहा, "ऐसे कई मामले सामने आए हैं जब परिवार वाले पुलिस से वादा करते हैं कि वह इन जोड़ों को नुकसान नहीं पहुंचाएंगे. लेकिन जब ऐसे पति-पत्नी वापस अपने घर जाते हैं तो परिवार की इज्जत के नाम पर इन्हें मार दिया जाता है और मामला भी दब जाता है."
बट्ट ऑनर किलिंग के लिए क्षेत्र की सामंती और आदिवासी व्यवस्था को जिम्मेदार मानते हैं. आदिवासी समुदायों की अदालतें जिन्हें "जिरगा" भी कहा जाता है यहां काफी सक्रिय हैं. विश्लेषक मानते हैं कि सरकारी नीतियां सुस्त और धीमी हैं, किसी छोटे मामले के निपटारे में भी वक्त लग जाता है, इसके चलते लोग इन आदिवासी अदालतों का रुख करते हैं. बट्ट कहते हैं, "देश की सुप्रीम कोर्ट ने जिरगा को गैरकानूनी और असंवैधानिक करार दिया है लेकिन कानून निर्माता खुद जिरगा के फैसले के सामने सिर झुका देते है. जब तक सामंतवाद को खत्म नहीं किया जाएगा तब तक कुछ नहीं बदलेगा."
हाल के सालों में कई लोगों ने सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश से संपर्क किया है लेकिन खानजैद अब अदालत, पुलिस और प्रशासन से कोई उम्मीद नहीं रखती हैं. उन्होंने कहा, "सिर्फ मेरे क्षेत्र का मुखिया ही इस मसले को खत्म कर सकता है. वह हमें माफ कर सकता है और एक नई जिंदगी शुरू करने में हमारी मदद कर सकता है. साथ ही हमारी हिफाजत भी कर सकता है." खानजैद कहती हैं कि उनके जैसे कई लड़के-लड़कियां शहरों में रह रहे हैं. जिन्होंने अपनी मर्जी से शादी की है उनके लिए गांवों में रहना, जिरगा का मुकाबला करना नामुमकिन है इसलिए वह इन सबसे बचने के लिए शहरों में आ गए हैं. यहां छोटी-मोटी नौकरियां करने के लिए मजबूर हैं. झुग्गी बस्तियों में रह कर दिन काट रहे हैं." इन सब के बीच खानजैद के मन में यह उम्मीद बाकि है कि शायद वे कभी अपने घर लौट सकें.
ए सत्तार/एए