कराची में दहशत और कश्मीर में दमन
१८ सितम्बर २०१०एमक्यूएम के नेता इमरान फारुक की लंदन में हत्या के बाद कराची में हिंसा की एक नई लहर की आशंका बढ़ गई है. कराची की हिंसा कुछ समय से जर्मन अखबारों की नजर में रही है. मसलन समाचार पत्र फ़्रांकफुर्टर आलगेमाइने त्साइटुंग में प्रकाशित एक लेख में इस हिंसा की पृष्ठभूमि के खुलासे की कोशिश की गई थी. इस लेख में कहा गया:
यह हिंसा एक कड़वे सत्ता संघर्ष का नतीजा है, जिसके केंद्र में एमक्यूएम एक पक्ष है. वर्षों से कराची में उसका दबदबा है, और उभरते प्रतिद्वंद्वियों के खिलाफ इसे बनाए रखने के लिए वह हर साधन का इस्तेमाल कर रहा है. प्रतिद्वंद्वी है अवामी नेशनल पार्टी एएनपी, शहर में बढ़ता पख्तुन समुदाय जिसका अनुयायी है. एमक्युएम पख्तुनों को इसलिए भी खतरा समझता है, क्योंकि उनमें राजनीतिक चेतना बढ़ती जा रही है. लेकिन सवाल यहां राजनीतिक असर का ही नहीं है. सवाल जमीन का है, कराची में जिसकी भारी कमी है और दोनों पक्षों के असामाजिक तत्व प्रशासन और व्यापार जगत को अपनी ओर खींचना चाहते हैं, जिसके सिलसिले में कराची में भू-माफिया का हवाला दिया जाता है.
समाचार पत्र फ़्रांकफुर्टर आलगेमाइने त्साइटुंग में इस सिलसिले में कराची में निशाना बनाकर की जा रही हत्याओं का जिक्र किया है. इमरान फारुक से पहले पिछले महीने वहां एमक्युएम के रज़ा हैदर की हत्या कर दी गई थी, जिसके बाद अशांति भड़क उठी. फ़्रांकफुर्टर आलगेमाइने त्साइटुंग का कहना है कि खाई इतनी गहरी हो चुकी है कि मध्यस्थता की सरकारी कोशिशों के बावजूद वह पट नहीं रही है. आगे कहा गयाः
पाकिस्तानी राष्ट्रपति जरदारी की पार्टी पीपीपी स्थिति पर नियंत्रण की कोशिश कर रही है. सिंध प्रदेश में वह एमक्युएम के साथ सरकार में है, जबकि इस्लामाबाद में एएनपी के साथ उसका गठबंधन है. लेकिन विवाद में लिप्त पक्ष खुद अपना हिसाब चुकाना चाहते हैं. ऐसा ही लगता है, जब एमक्युएम के ख्वाजा इजहार उल हसर कहते हैं, हमें पता है, रजा हैदर की हत्या किसने की है. वे कराची में हैं, हमें पता है वे कहां हैं. शहर में कहा जा रहा है कि हैदर को पुलिस की ओर से तैनात बॉडीगार्डों पर भरोसा नहीं था. पुलिस को बिकाऊ माना जाता है. पख्तुनों के नेता शाही सैयद की राय में सिर्फ सेना ही इस संघर्ष को रोक सकती है. 1980 वाले दशक में भी वह ऐसे संघर्ष को खत्म कर चुकी है. सिर्फ वे ही ऐसा नहीं सोचते हैं.
और लंदन में रह रहे जनरल परवेज मुशर्रफ सत्ता के गलियारे में वापस लौटना चाहते हैं. बीबीसी को दिए गए एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा कि वह जल्द एक पार्टी बनाएंगे और सन 2013 में संसद का चुनाव लड़ना चाहते हैं. बर्लिन के समाचार पत्र टागेसश्पीगेल ने ध्यान दिलाया है कि भुट्टो की पार्टी पीपीपी की सरकार ने अभी तक लोगों को निराश ही किया है. समाचार पत्र में कहा गयाः
खासकर राष्ट्रपति जरदारी की वजह से सारी सहानुभूति खत्म हो गई, जो बाढ़ के समय अपनी जनता के बीच होने के बदले यूरोप की सैर कर रहे थे. इसके विपरीत सेना जनता की सहानुभूति बटोर रही है, जैसा कि वर्षों से नहीं देखा गया है. बाढ़पीड़ितों की मदद के लिए सेना ने दसियों हजार सैनिक भेजे. उन्होंने पानी में फंसे लोगों को निकाला, राहत सामग्रियां बांटी और रिलीफ कैंप खोले. नेताओं के निकम्मेपन पर गुस्सा इस कदर बढ़ चुका है कि इस बीच मध्यवर्ग के बीच भी सत्ता पर सेना की वापसी की आवाज़ सुनाई देने लगी है.
और सुर्खियों में है भारत प्रशासित जम्मू कश्मीर की स्थिति. साप्ताहिक पत्रिका डेर श्पीगेल के ऑनलाइन अंक में कहा गया है कि पुलिस और प्रदर्शनकारियों के बीच झड़प में अब तक लगभग 90 लोगों की मौत हो चुकी है. समाचार पत्र का कहना हैः
कश्मीर में एक ऐसी पीढ़ी उभर रही है, जो सड़कों पर पूछताछ, घरों की तलाशी और सैनिकों व पुलिस के सिपाहियों की बदसलूकी की आदी हो चुकी है. एक ऐसी पीढ़ी, जो अब बर्दाश्त करने को तैयार नहीं है, जो अपनी बात कहना चाहती है, जरूरत हो तो हिंसा के जरिये. विरोध अब श्रीनगर से निकलकर सारे प्रदेश में फैल चुका है. सैनिकों और सिपाहियों के बीच भी डर फैलता जा रहा है. उन्हें डर है कि किसी भी वक्त उन पर हमला हो सकता है और वे उसी तरीके से पेश आ रहे हैं. कश्मीर के मुख्यमंत्री ओमर अब्दुल्ला कहते हैं कि उनका प्रदेश फिर एक बार हिंसा के चक्र में फंस गया है.
और समाचार पत्र नॉय त्स्युरषर त्साइटुंग का कहना है कि दिल्ली की सरकार कश्मीर के सवाल पर बंटी हुई है. वह लाचार दिखती हैः
सत्तारूढ़ कांग्रेस के नेताओं का बहुमत पाकिस्तान समर्थित पृथकतावादियों को किसी प्रकार की छूट देने के खिलाफ है. हालांकि कुछ लोगों का कहना है कि कश्मीरियों के साथ मिलकर एक राजनीतिक समाधान ढूंढ़ा जाए और इस तरह दुश्मन पाकिस्तान का मौका खत्म कर दिया जाए. प्रधानमंत्री मनमोहन सिह ने हाल ही में फिर एक बार कश्मीरियों से अपील की है कि वे बातचीत के रास्ते पर आएं. पिछले दशकों में दिल्ली में सरकारें बदलती रही हैं, लेकिन कश्मीर के हालात नहीं बदले हैं.