कार्बन उत्सर्जन की वजह से जल से लेकर जमीन तक हुआ दूषित
२१ मई २०२२विश्व मौसम विज्ञान संगठन (डब्ल्यूएमओ) की हालिया प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार, इंसानों ने वातावरण को गर्मी रोकने वाली गैसों से इतना भर दिया है कि पृथ्वी के स्वास्थ्य के चार महत्वपूर्ण उपायों ने पिछले साल रिकॉर्ड तोड़ दिया. जंगलों को उजाड़ने और जीवाश्म ईंधन को जलाने की वजह से, जलवायु पहले से ही ऐसी अनिश्चित स्थिति में चली गई है जो मानव सभ्यता के इतिहास में पहले कभी नहीं देखी गई.
स्टेट ऑफ द क्लाइमेट रिपोर्ट 2021 में पाया गया कि साल 2021 में दुनिया में ग्रीनहाउस गैस की सघनता का रिकॉर्ड टूट गया है. महासागरों में तापमान और अम्लीयता का स्तर काफी बढ़ गया है. अत्यधिक चरम मौसम की वजह से अरबों डॉलर का नुकसान हुआ है. जलवायु परिवर्तन की वजह से तूफान और जंगल में लगने वाली आग की घटनाओं में काफी ज्यादा वृद्धि हुई है. ऐसे में, कई लोगों को अपना घर-बार छोड़कर दूसरी जगहों पर विस्थापित होना पड़ा. घर तबाह हो गए, मछलियां पकड़ने वाली नौकाएं डूब गईं, और खेत बंजर हो गए.
संयुक्त राष्ट्र संघ की इकाई डब्ल्यूएमओ के महासचिव पेटेरी टालस ने अपने बयान में कहा, "संभावित आपदा से निपटने के लिए वर्षों तक किए गए निवेश का मतलब है कि हम जान बचाने में बेहतर हैं, लेकिन आर्थिक नुकसान बढ़ रहा है. हमें बहुत कुछ करने की जरूरत है.”
चेतावनियों के बावजूद नहीं बंद हो रहा जीवाश्म ईंधन का इस्तेमाल
2015 में जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए पेरिस समझौता हुआ था. इसके तहत, दुनिया के देशों ने सदी के अंत तक धरती के तापमान में वृद्धि को पूर्व-औद्योगिक स्तर से 1.5 डिग्री सेल्सियस तक बनाए रखने की कोशिश करने पर सहमति जताई थी. हालांकि, वैज्ञानिकों का कहना है कि इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए उत्सर्जन में काफी ज्यादा और तत्काल प्रभाव से कटौती करनी होगी.
वहीं, दूसरी ओर अमेरिका से लेकर चीन तक की सरकार ज्यादा से ज्यादा जीवाश्म ईंधन निकालने और उसके इस्तेमाल के लिए बुनियादी ढांचा तैयार करने पर निवेश कर रही है. जबकि, चरम मौसम उनके नागरिकों पर कहर बरपा रहे हैं. दुनिया भर के सरकारों का जो रवैया है उससे पृथ्वी सदी के अंत तक 2.7 डिग्री सेल्सियस गर्म हो सकती है. वैज्ञानिकों ने अनुमान लगाया है कि अगले एक दशक में 1.5 डिग्री सेल्सियस की सीमा पार हो जाएगी.
डब्ल्यूएमओ के जलवायु वैज्ञानिक और रिपोर्ट के प्रमुख लेखक उमर बद्दौर ने कहा, "उस स्तर से नीचे रहने का मतलब है कि जलवायु परिवर्तन के मामले का बेहतर तरीके से प्रबंधन किया जा सकता है. वहीं, ऊपर का मतलब है कि जलवायु परिवर्तन के नतीजों को प्रबंधित कर पाना मुश्किल होगा.”
औसत तापमान ज्यादा होने का मतलब ज्यादा गर्म लहरें
डब्ल्यूएमओ के मुताबिक, पिछले सात साल अब तक के सबसे गर्म सात साल रहे हैं. पिछला साल, 1850 और 1900 के बीच के औसत तापमान से 1.1 डिग्री सेल्सियस अधिक गर्म था. हालांकि, पिछले कुछ वर्षों की तुलना में थोड़ा ठंडा था. इसकी वजह थी ‘ला नीना'. यह एक प्राकृतिक जलवायु घटना है. हालांकि, सिर्फ कोई एक साल ठंडा होने का मतलब यह नहीं है कि तेजी से बढ़ती गर्मी की प्रवृत्ति बदल गई है.
जुलाई में, रिसर्च ग्रुप वर्ल्ड वेदर एट्रिब्यूशन (डब्ल्यूडब्ल्यूए) के वैज्ञानिकों ने पाया कि जलवायु परिवर्तन ने गर्म लहरों के मामले को काफी ज्यादा बढ़ा दिया है. कुछ सप्ताह पहले, इसका असर अमेरिका से लेकर कनाडा तक देखा गया. लोग बिना एयरकंडीशन के सो नहीं पा रहे थे. शोधकर्ताओं ने पाया कि अगर इंसानों ने वातावरण को ग्रीनहाउस गैसों से इतना प्रदूषित नहीं किया होता, तो गर्म लहरें 150 गुना कम होती और तापमान 2 डिग्री सेल्सियस कम होता.
उसी शोध टीम ने यह भी पाया कि जलवायु परिवर्तन की वजह से ही उत्तरी यूरोप में पिछले साल 3 से 19 फीसदी अधिक बारिश हुई थी, जिससे भयंकर बाढ़ आयी. इस बाढ़ की वजह से सिर्फ जर्मनी में 180 से अधिक लोगों की मौत हुई थी.
फिलहाल, धरती पर हर 6 में से 1 व्यक्ति भारत और पाकिस्तान में भीषण गर्मी की लहर से जूझ रहा है. इससे बिजली के ग्रिड पर भी दबाव काफी ज्यादा बढ़ गया है. खासकर, खुली जगहों पर काम करने वाले कामगारों और स्वास्थ्य समस्याओं से जूझ रहे लोगों की परेशानी बढ़ गई है. काम पर आना-जाना और जरूरी सामानों की खरीदारी के लिए घर से निकलना, अपनी जिंदगी से खेलने जैसा हो गया है.
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फसलों को झुलसा रही गर्मी
अंतरराष्ट्रीय जल प्रबंधन संस्थान की वैज्ञानिक अदिति मुखर्जी ने कहा, "भारत की केंद्रीय और राज्य सरकारों को तुरंत गर्मी प्रबंधन योजनाओं को तैयार करना चाहिए. हालांकि, इससे भी जरूरी बात यह है कि भारत और अन्य विकासशील देशों को काफी ज्यादा उत्सर्जन करने वाली कंपनियों या क्षेत्रों पर तुरंत उत्सर्जन कम करने का दबाव बनाना चाहिए. हम इस तरह की गर्मी को बर्दाश्त नहीं कर सकते. उत्सर्जन में कटौती करना ही सबसे बेहतर उपाय है.”
गर्मी का असर भारतीय उपमहाद्वीप के बाहर भी महसूस किया जा रहा है. गर्मी की वजह से भारत में फसलें झुलस गई हैं. उत्पादन प्रभावित होने की आशंका है. जबकि, यूक्रेन पर रूस के हमले के मद्देनजर वैश्विक स्तर पर खाद्य की कमी को दूर करने के लिए इन फसलों का बेहतर उत्पादन जरूरी था. भारत चीन के बाद दुनिया में गेहूं का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक देश है. पिछले हफ्तेभारत ने गेहूं के निर्यात पर रोक लगा दी. इससे गेहूं की कीमतें और बढ़ गईं.
डब्ल्यूएमओ ने पाया कि यह संकटों की एक श्रृंखला के साथ आता है, जैसे कि संघर्ष, चरम मौसम, आर्थिक झटके और महामारी. इसने खाद्य सुरक्षा की दिशा में पहले से ही ‘दशकों की प्रगति को कम कर दिया है.'
डब्ल्यूएमओ के इस विश्लेषण में सहयोग करने वाले अंतरराष्ट्रीय रेड क्रॉस रेड क्रिसेंट क्लाइमेट सेंटर के निदेशक मार्टन वान आल्स्ट ने कहा, "यह बहुत ही चिंता का विषय है. इन सभी समस्याओं की वजह से गरीब और समाज के अंतिम पायदान पर खड़े लोग सबसे ज्यादा प्रभावित होते हैं.”
जीवाश्म ईंधन कंपनियां भी जिम्मेदार
अप्रैल में, इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) ने जलवायु समाधान पर एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी. इसमें कहा गया था कि जीवाश्म ईंधन के मौजूदा और आने वाले समय के लिए प्लान किए गए बुनियादी ढांचे के इस्तेमाल से जो प्रदूषण होगा वह 1.5 डिग्री की सीमा रेखा को पार करने के लिए काफी है. वार्मिंग के इस स्तर पर, हर 10 साल में गर्म लहरों के मामले 5 गुना और 50 साल में आठ गुना बढ़ने का अनुमान है.
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पिछले साल एनर्जी रिसर्च एंड सोशल साइंस जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन में पाया गया कि निवेशकों के मालिकाना हक वाली चार सबसे बड़ी जीवाश्म ईंधन कंपनियां शेवरॉन, एक्सॉनमोबिल, बीपी और शेल 1965 और 2018 के बीच वैश्विक स्तर पर जीवाश्म ईंधन और सीमेंट से होने वाले उत्सर्जन के 11 फीसदी हिस्से के लिए जिम्मेदार थीं. इस आंकड़े में वह प्रदूषण भी शामिल है जो उनके बेचे जाने वाले ईंधन को जलाने से हुआ है.
शेवरॉन, एक्सॉनमोबिल और बीपी ने अपने बेचे गए ईंधन को जलाने की वजह से चरम मौसम की घटनाओं के लिए अपनी जिम्मेदारी पर प्रतिक्रिया के अनुरोध का जवाब नहीं दिया. शेल ने किसी तरह की प्रतिक्रिया देने से इनकार कर दिया.
फिलीपींस में फ्राइडे फॉर फ्यूचर मूवमेंट के जलवायु कार्यकर्ता मित्जी जोनेल टैन ने कहा कि जीवाश्म ईंधन कंपनियां ना सिर्फ जलवायु संकट की वजह हैं, बल्कि उन्होंने इसे लोगों से छिपाया है और कार्रवाई में देरी करने की पैरवी की है. आईपीसीसी की सबसे नई रिपोर्ट को तैयार करने में सैकड़ों वैज्ञानिकों ने योगदान दिया है. इस रिपोर्ट में पाया गया है कि ‘मौजूदा स्थिति के हितों का विरोध' कठोर जलवायु नीतियों को स्थापित करने में सबसे बड़ी बाधा है.
टैन ने कहा, "लोग अपनी लालच की वजह से पीड़ित हैं. ये कंपनियां कम से कम इतना कर सकती हैं कि इन्होंने जो नुकसान किया है या हमने नुकसान का जो अनुभव किया है उसकी भरपाई के लिए भुगतान करें.”