ब्रेक्जिट की दिशा तय करेंगे ब्रिटेन के आम चुनाव
१२ दिसम्बर २०१९क्रिसमस की सरगर्मी कहीं ना कहीं चुनावी हलचल के सामने फीकी पड़ती नजर आई है. ब्रिटेन की आम जनता को अपनी ओर करने के लिए यूके के सभी प्रमुख राजनीतिक दलों ने जम कर प्रचार अभियान चलाए. लेकिन असल मुकाबला इस बार भी दो सबसे बड़े ऐतिहासिक प्रतिद्वंद्वियों के बीच ही है. कंजर्वेटिव टोरी पार्टी और वाम लेबर पार्टी के बीच हर एक सीट पर कांटे की टक्कर है. प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन सही मायने में पहली बार देश के प्रधानमंत्री पद के लिए चुने जाने की आकांक्षा लिए जनता के बीच गए हैं. जॉनसन ने प्रचार अभियान के दौरान अपने 'गेट ब्रेक्जिट डन' यानि ब्रेक्जिट पूरा करने के संदेश को लाखों बार दोहरा कर जनता के दिमाग में कामयाबी से डाल दिया है. चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों में देश के 60 फीसदी से अधिक मतदाता उनके इस चुनावी नारे से परिचित पाए गए.
वहीं लेबर नेता जेरेमी कॉर्बिन ने चुनाव जीतने पर अगले तीन महीनों में ब्रेक्जिट का एक नया मसौदा तैयार करने, यूरोपीय संघ से उसे पास करवाने और अगले तीन महीनों में ब्रिटिश जनता से उस पर रेफरेंडम करवाने का वादा किया है. हालांकि अपनी खुद की स्थिति साफ ना करने के कारण जनता यह नहीं समझ पा रही है कि कॉर्बिन ब्रेक्जिट के पक्ष में हैं या नहीं. इस बात पर टोरी नेता ने भी उन्हें कई बार घेरा है. चार साल में तीसरी बार हो रहा यह आम चुनाव देश की नई संसद को ब्रेक्जिट करवाने या न करवाने का जनादेश दे सकता है. वहीं अगर किसी भी पक्ष को बहुमत नहीं मिला तो अन्य छोटे दलों के समर्थन वाली साझा सरकार बनने की स्थिति पैदा होगी.
चुनाव पूर्व कराए गए ज्यादातर सर्वेक्षणों में जॉनसन की पार्टी को लेबर से 20 से 30 सीटें ज्यादा मिलने का अनुमान जताया गया है. लेकिन ब्रेक्जिट पर जनमत सर्वेक्षण के समय और 2017 के चुनावों में ऐसे अनुमान असल नतीजों से काफी दूर रहे. यही कारण है कि इस बार भी इन अनुमानों को त्रुटि की बड़ी संभावना के साथ ही देखा जाना चाहिए. अगर जॉनसन वाकई बहुत सीटें ले आते हैं तो उनका दावा है कि वह नई संसद में आधिकारिक रूप से 'विड्रॉल समझौता' कहे जाने वाली ब्रेक्जिट डील को पास करवा लेंगे और 31 जनवरी को यूके को यूरोपीय संघ से निकाल लेंगे. इसके बाद 2020 के अंत कर उनकी कोशिश रहेगी कि वे स्वतंत्र रूप से यूरोप, अमेरिका और दूसरे अहम साझेदारों के साथ नए व्यापारिक समझौते कर लेंगे. इस दावे को लेकर विपक्षियों ने संदेह जताया है और जेरेमी कॉर्बिन ने तो यहां तक कहा कि एक साल क्या अगले सात साल तक में ये समझौते पूरे नहीं हो सकते. अगर ऐसा होता है तो फिर एक बार बिना किसी डील के ब्रिटेन के ईयू से बाहर निकलने की स्थिति बन सकती है.
अगर जॉनसन को 650 सीटों वाली संसद में 320 से ऊपर सीटें नहीं मिलती हैं तो वह किसी छोटी पार्टी के साथ गठबंधन सरकार भी बना सकते हैं. वहीं दूसरी संभावना यह बनेगी कि लेबर पार्टी अपने नेता जेरेमी कॉर्बिन के नेतृत्व में स्कॉटिश नेशनल पार्टी और लिबरल डेमोक्रैट्स के साथ मिलकर सरकार बनाए. अगर ऐसा होता है तो कॉर्बिन अपने दो खंड वाले ब्रेक्जिट प्लान पर आगे बढ़ने की कोशिश करेंगे. पहला खंड - ईयू नेताओं के साथ तीन महीने में नई डील पर पहुंचना और दूसरा खंड - छह महीने के भीतर मतदाताओं के सामने उस पर जनमत संग्रह करवाना. ब्रिटिश जनता को वे एक बार फिर मौका देना चाहते हैं कि उस नई डील के साथ ईयू से बाहर निकलें या यूरोप में भी बने रहने का फैसला लें. इन दोनों सूरतों में कॉर्बिन ने जनता के फैसले के साथ जाने की घोषणा की है. वेस्टमिंस्टर में चाहे जो भी सत्ता में आए, सबसे बड़ा सवाल ब्रेक्जिट ही बना रहेगा. इसके बाद देश की चरमराती स्वास्थ्य बीमा व्यवस्था, अस्पतालों और स्कूलों में सरकारी निवेश बढ़ाने और देश की टैक्स-संरचना में बदलाव करने जैसे मुद्दे आएंगे.
जून 2016 में ब्रिटेन को ईयू से बाहर निकालने के समर्थकों का सपना था कि इससे ब्रिटेन को उसके पुराने औपनिवेशिक काल वाले वैभवशाली दर्जे पर लौटाया जा सकेगा. ब्रिटिश हुकूमत ने एक समय जिस तरह करीब करीब आधे विश्व में अपने व्यापारिक संबंधों और औपनिवेशिक शासन के जरिए राज किया था, ब्रेक्जिट समर्थकों को उस वैभव को फिर से हासिल करने के सपने दिखाए गए. लेकिन आज की दुनिया में अमेरिका, यूरोप और यहां तक कि भारत के साथ भी व्यापारिक समझौते करते समय भी ब्रिटेन सिर्फ अपने हित ऊपर नहीं रख सकता. अपने "ग्लोबल ब्रिटेन" बनाने के इरादे को पूरा करने के लिए यूके एक बार फिर भारत की तरफ देखेगा, जैसा कि ब्रेक्जिट रेफरेंडम के बाद नवंबर 2016 में तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री टेरीजा मे के भारत दौरे से साफ हो गया था. सन 2016 में ब्रिटेन भारत के उत्पादों का पांचवा सबसे बड़ा निर्यातक था, जो कि कुल भारतीय निर्यात का केवल 3.3 फीसदी था. वहीं भारत का 16 फीसदी निर्यात यूरोपीय संघ में हुआ जो कि ब्रिटेन के मुकाबले कई गुना ज्यादा है. ईयू खुद भी 2007 से ही भारत के साथ एक ट्रेड डील करने की प्रक्रिया में हैं जो अब तक नहीं हो पाई है.
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