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कॉमनवेल्थ खेल: जर्मन प्रेस की टेढ़ी नजर

१५ अक्टूबर २०१०

दिल्ली में संपन्न कॉमनवेल्थ खेलों पर जर्मन समाचार पत्रों में टिप्पणियां जारी है. खेलों के आयोजन की सफलता को स्वीकारने के बावजूद अधिकतर लेखों में आलोचना का स्वर ही देखने को मिला है.

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तस्वीर: AP

दैनिक फ्रांकफुर्टर अलगेमाइने त्साइटुंग की पत्रकार याद करती हैं कि दिल्ली से उनकी सहेली ने लिखा था कि इस दौरान दिल्ली में होना पागलपन होगा. वह शहर छोड़कर भाग रही है, थाईलैंड में छुट्टी मनाएगी. दिल्ली की हालत तो नरक जैसी होगी. खेलों के आयोजन के बारे में अपने लेख में वह कहती हैं, ''हालांकि कोई भयानक घटना नहीं हुई और एक सकारात्मक लेखाजोखा किया जा सकता है, एक करोड़ सत्तर लाख की आबादी वाले इस शहर को अपनी हद तक जाना पड़ा. गैर सरकारी संगठन इनटैख के प्रधान व वास्तुकार कृष्णा मेनन कहते हैं कि इस शहर की समस्याएं बिल्कुल दूसरी हैं. शहर चारों ओर जैसे फट रहा है. महानगर दिल्ली मकान, बिजली और पानी की कमी, अवैध कूड़ाघरों और बस्तियों, स्मॉग, भ्रष्टाचार और चिकित्सीय सुविधा के अभाव जैसी समस्याओं से जूझ रहा है.''

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तस्वीर: AP

समाचार पत्र नॉए त्स्युरिषर त्साइटुंग का कहना है कि भारतीय नौकरशाहों और नेताओं ने अपने स्वभावसिद्ध घमंड के साथ कहा था कि यह इतिहास के सर्वश्रेष्ठ कॉमनवेल्थ खेल होंगे. इस पैमाने पर विफलता ही सामने आई है. एक लेख में कहा गया है, ''कुछ समय के लिए यह डर पैदा हो गया था कि खेल रद्द करने पड़ेंगे और जब 3 अक्टूबर को जवाहर लाल नेहरू स्टेडियम में विशाल भव्य उद्घाटन समारोह संपन्न हो गया, तो सब ने राहत की सांस ली. तब तक उम्मीदें काफी नीचे स्तर तक आ चुकी थीं. अब दुनिया को दिखा देने की बात नहीं रह गई थी, बल्कि सिर्फ अपनी नाक बचान और 14 अक्टूबर तक चलने वाले खेलों को कायदे से निपटा देने के बारे में सोचा जा रहा था. और दिल्ली ने इसे करके दिखाया. जैसा कि भारत में अक्सर होता है, आखिरी सेकंड में सारी ताकत जुटाई गई और समय रहते रहते खेल गांव और स्टेडियमों को तैयार कर लिया गया.''

उधर बर्लिन के वामपंथी अखबार नॉएस डॉएचलांड के एक लेख में पूछा गया है, कहां गए दिल्ली के भिखारी? इस शीर्षक से प्रकाशित एक लेख में कहा गया है, ''दिल्ली इस वक्त खुशमस्त होने का दावा कर रही है. ब्रिटिश कॉमनवेल्थ के 71 देशों के खिलाड़ियों और खेल अधिकारियों, व साथ ही, हजारों विदेशी पर्यटकों के सामने दिल्ली की एक खूबसूरत तस्वीर पेश की जा रही है. हर कहीं दिखने वाली गरीबी अचानक गायब हो गई है. सामाजिक न्याय विभाग के अनुसार आमतौर पर दिल्ली में लगभग 60 हजार भिखारी होते हैं, इनमें से 20 हजार की उम्र 18 से कम है, 70 फीसदी पुरुष हैं और 30 फीसदी महिलाएं. पूछे जाने पर विभाग के एक कर्मी ने बताया कि खेलों की वजह से किसी भिखारी या बेघर इंसान को विस्थापित नहीं किया गया है. इस दावे का खंडन करते हुए इंडो ग्लोबल सोशल सर्विसेज सोसायटी के इंदू प्रकाश सिंह कहते हैं कि बहुतेरे गरीब लोगों को खदेड़ कर स्टेशन ले जाया गया और अनजान जगहों में भेज दिया गया. दिल्ली में बेघर लोगों के बीच काम करने वाले संगठन आश्रय अधिकार अभियान के संजय कुमार को भी ऐसा ही देखने को मिला है. वह कहते हैं, भिखारियों को ट्रकों में लादा गया और शहर के बाहर भेज दिया गया.''

समाचार पत्र का कहना है कि खेलों के बाद अब हजारों भिखारी शहर वापस लौट आएंगे.

संकलन: उज्ज्वल भट्टाचार्य

संपादन: ओ सिंह