कोटा में फंसे बच्चों की वापसी पर बढ़ रही है नाराजगी
२१ अप्रैल २०२०तकनीकी शिक्षा का हब माने जाने वाले राजस्थान के कोटा शहर के विभिन्न शैक्षणिक संस्थानों में इंजीनियरिंग व मेडिकल प्रवेश परीक्षा की पढ़ाई कर रहे बिहार के हजारों बच्चे लॉकडाउन के कारण वहां फंस गए हैं. घर लौटने को बेताब ये बच्चे मीडिया के जरिए या फिर सोशल मीडिया पर वीडियो डालकर लगातार नीतीश सरकार से गुहार कर रहे हैं, "प्लीज, हमें बुला लीजिए. जब योगी जी यूपी के बच्चों को बुला सकते हैं तो आप क्यों नहीं?"
कोविड-19 के बढ़ते आतंक से ये बच्चे भी अछूते नहीं रह गए हैं. भयाक्रांत हो चुके बच्चे किसी हाल में 1100 किलोमीटर दूर कोटा से निकल कर अपने घर पहुंचना चाहते हैं. लेकिन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की सरकार उन्हें वहां से लाने की कोई व्यवस्था नहीं करने पर अड़ी है. तर्क यह दिया जा रहा कि ऐसा करने से लॉकडाउन का उल्लंघन होगा और यह प्रभावी नहीं रह जाएगा. बिहार सरकार को शायद यह डर भी सता रहा है कि अगर इन बच्चों के लिए व्यवस्था की गई तो बाहर फंसे मजदूरों या अन्य लोगों को भी लाने की व्यवस्था करनी होगी और ऐसा न करने पर अनावश्यक विवाद होगा जो कहीं न कहीं भविष्य में वोट बैंक को प्रभावित करेगा.
भारत सहित कई देशों ने विदेशों में फंसे अपने लोगों को वापस लाने के कदम उठाए हैं. जर्मनी ने तो लॉकडाउन के दौरान भी करीब 1000 नागरिकों और प्रवासी भारतीयों के जर्मनी लौटने का इंतजाम किया. बहुत से माता पिता ये सवाल कर रहे हैं कि भारत का एक राज्य दूसरे राज्य से अपने नौनिहालों को उनके घर पहुंचाने की व्यवस्था क्यों नहीं कर पा रहा है. ये बच्चे दिल्ली या मुंबई की तरह कोटा के बस अड्डे पहुंचकर हंगामा नहीं कर रहे हैं क्योंकि भारत के इन भविष्य निर्माताओं को इतना भान तो है ही कि ऐसा करने से लॉकडाउन का उल्लंघन होगा.
परेशान हैं किशोर लड़के-लड़कियां
कोटा के संस्थानों में पढ़ने वाले बच्चे इंस्टीच्यूट के हॉस्टल या निजी छात्रावास या फिर प्राइवेट गेस्ट के तौर पर रहते हैं. कोरोना के कहर के दौर पर उनके हॉस्टल वालों ने भी उनका साथ छोड़ दिया है. मेडिकल परीक्षा की तैयारी कर रही मुजफ्फरपुर की अनामिका कहती है, "सबसे गुहार लगा चुकी लेकिन कोई सुनता नहीं. नारी सशक्तिकरण की बात करने वाले हमारे मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी हमारी विकट परिस्थिति पर ध्यान नहीं दे रहे. हमारी पढ़ाई-लिखाई भी नहीं हो रही, हमें यहां बहुत डर लग रहा है, हॉस्टल भी लगभग खाली हो चुका. तीन किलोमीटर दूर से खाना आ रहा है, यह कितना सेफ होगा यह सोचकर डर लगता है. कहीं हम भी कोरोना के शिकार न हो जाएं. घर पर मम्मी-पापा अलग परेशान हैं, हम भी भावनात्मक रूप से कमजोर होते जा रहे हैं. पता नहीं क्या होगा?" आईआईटी की तैयारी कर रहे वैशाली के हर्ष की स्थिति तो और भी खराब है. हॉस्टल व मेस वाले पैसे की डिमांड कर रहे. वे यह समझने को तैयार नहीं कि लॉकडाउन के दौरान बिहार के गांव में रह रहे उनके गार्जियन के लिए पैसा ट्रांसफर करना कितना कठिन है. "समझ में नहीं आ रहा, उन्हें कैसे समझाऊं?"
कुछ ऐसी ही व्यथा 19 वर्षीया स्वाति गुप्ता की है. कहती है, "मेडिकल की तैयारी करने का सपना अब टूटता दिख रहा है. हॉस्टल की वार्डन भी जा रहीं और कह रहीं, तुम भी चली जाओ. मैं भी डिप्रेस्ड हूं और मेरे घरवाले भी. रहना भी दूभर हो रहा और मानसिक स्थिति भी बिगड़ती जा रही है." सिवान की हर्षिता कहती है, "टाइम पर खाना नहीं मिल रहा और जो मिल भी रहा वह भी खाने लायक नहीं होता. पढने-खाने में मन नहीं लगता. समझ नहीं आ रहा, कैसे घर जाऊं. पता नहीं जा भी पाऊंगी या नहीं. यूपी के बच्चे आंखों के सामने अपने घर चले गए, हमारे लिए सरकार क्यों नहीं कुछ करती?" बांका के अनुराग का कहना है, "चलो हम सब भूलकर यहां रह भी गए तो खाएंगे क्या? खाना बाहर से आता है. मेसवाला रोज धमकी देता है कि बच्चे कम हो गए अब इतनी दूर खाना लेकर दो-चार बच्चों के लिए नहीं आऊंगा. तब क्या होगा? बिस्कुट व मैगी खाकर कब तक जान बचेगी? जान चली जाएगी तो मेरे मम्मी-पापा को कौन जवाब देगा?"
बढ़ रही है अभिभावकों में नाराजगी
अपने बच्चों की हालत देखकर इन बच्चों के अभिभावक भी परेशान हैं. मुजफ्फरपुर के किसलय के पिता राजीव कुमार कहते हैं, "माननीय तो अपनी बिटिया को जाकर ले आए लेकिन, आम आदमी क्या करे? ई-पास के लिए जो ऑप्शन दिए गए हैं उनमें ऐसा कोई विकल्प नहीं है जिसके तहत बच्चे को लाने के लिए अप्लाई किया जा सके. मेरा इकलौता बच्चा जिस स्थिति में रह रहा है, उसकी कल्पना कर मन सिहर उठता है. सरकार को इन बच्चों के लिए सोचना चाहिए." पटना के मो. एजाज अहमद कहते हैं, मेरी बच्ची सबीना वहां इंजीनियरिंग की तैयारी के लिए गई है. एक कमरे में पता नहीं किस तरह कैदी के रूप में रह रही होगी. खाना भी ढंग का नहीं मिल रहा, वह भी डिप्रेसन में है और हमलोग भी. लगता है, सरकार ने इन बच्चों को प्रवासी मजदूरों की श्रेणी में रख दिया है. चीन से बच्चों को भारत लाया गया तो कोटा से बिहार क्यों नहीं लाया जा सकता?"
नाम न प्रकाशित करने की शर्त पर कोटा के एक संस्थान में जीव विज्ञान पढ़ाने वाले एक शिक्षक कहते हैं,"कई बच्चों की शिकायतें आ रही हैं. हम अपने संस्थान को भी बता रहे हैं. लेकिन हमलोगों के स्तर से बहुत कुछ किया जाना संभव नहीं है. कोरोना के इस भयावह माहौल में बच्चों की स्थिति बिगड़ती जा रही है. कहीं किसी बच्चे ने कोई गलत कदम उठा लिया तो कौन जिम्मेदार होगा? भगवान न करे ऐसा हो लेकिन कम उम्र के ये बच्चे आखिर कितना धैर्य कब तक रख पाएंगे?"
मानसिक स्वास्थ्य की चिंता
इस बीच ऐसी आवाजें भी उठ रही हैं जो बच्चों को चिकित्सकों के निरीक्षण में वापसी को संभव मानते हैं. पटना के वरीय चिकित्सक डॉ. शैलेंद्र कुमार कहते हैं, "बच्चों की जांच कर उन्हें यहां लाने में क्या परेशानी है? बस या ट्रेन से लाने के पहले वाहन को सैनिटाइज कर दिया जाए फिर वहीं बच्चों की थर्मल स्क्रीनिंग की जाए और उन्हें सोशल डिस्टेंशिंग के नियमों का अनुपालन करते हुए बिठाया जाए. अगर कोई बच्चा कहीं से संदिग्ध लक्षण वाला दिखता है तो उसे वहां प्रॉपर ट्रीटमेंट दिया जाए. यह भी तो जरूरी है. यहां लाकर उन्हें होम क्वारंटाइन कर उसी तरह ऑब्जर्वेशन में रखा जाए जैसे बाहर से स्वयं आए मजदूरों को रखा गया है. इस तरह वे कहीं से कोरोना वाहक नहीं बनेंगे."
सिर्फ माता-पिता ही नहीं मनोवैज्ञानिक भी किशोर छात्रों के स्वास्थ्य को लेकर चिंता जता रहे हैं. मनोचिकित्सक डॉ. संजय का कहना है, "16 से 20 साल के ये बच्चे कब तक अपनी मन:स्थिति बिगड़ने से रोक सकेंगे. कोरोना के खौफ के बीच अपनी व घरवालों की परेशानी को सोचकर कब तक ये बच्चे धैर्य रख सकेंगे. एक तय समय के बाद उन्हें डिप्रेसन का शिकार होना ही है. डर यह भी है कि पोस्ट ट्रॉमेटिक डिसऑर्डर के शिकार न हो जाएं."
बिहार में शुरू हुई सियासी बहस
कोटा में पढ़ने वाले बच्चों की वापसी की बहस इस बीच सियासी होती जा रही है. बिहार भाजपा के सचेतक व हिसुआ के विधायक अनिल कुमार तो लॉकडाउन के बीच अपनी बिटिया को कोटा से ले आए. अजीब विडंबना है कि बिहार सरकार परिवार से दूर पढ़ाई कर रहे बच्चों के बारे में नहीं सोच रही है. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार मौके-बेमौके यह कहने से गुरेज नहीं करते कि बिहार हर जगह है. क्षेत्र चाहे कोई भी क्यों न हो? बिहारी अगर दिल्ली से चले जाएं तो दिल्ली थम जाएगी. ऐसी धारणा रखने वाले मुख्यमंत्री को तो यह सोचना ही चाहिए कि भविष्य के बिहार के इन कर्णधारों को यह दंश क्यों झेलना पड़ रहा?
इसको लेकर बिहार में सियासत तेज हो गई है. विपक्ष सरकार पर हमलावर है. खासकर राजद कोटा में फंसे बच्चों को लेकर सरकार पर दोहरी नीति अपनाने का आरोप लगा रहा है. लालू यादव के पुत्र व पूर्व उप मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव ने सरकार से पूछा है कि क्या कोटा से आने के बाद विधायक या उनकी बिटिया की कोरोना जांच की गई? अगर नहीं तो क्यों? हालांकि इस प्रकरण को विराम देने की नीयत से राज्य सरकार ने ई-पास जारी करने का अधिकार एसडीएम से लेकर जिलाधिकारी यानी डीएम को दे दिया है. विधानसभा सचिवालय ने भी उस गाड़ी के चालक से स्पष्टीकरण पूछा है जो भाजपा विधायक की गाड़ी लेकर कोटा गया था. लेकिन विवादों से दूर विधायक अनिल कुमार का कहना है, मैं जनप्रतिनिधि होने के साथ-साथ पिता भी हूं. बिटिया डिप्रेस्ड हो रही थी. नियम का पालन करते हुए कोटा गया और आया तो इसमें गलत क्या है?
कई राज्य सरकारें वापस ला रही हैं बच्चों को
उत्तर प्रदेश की सरकार द्वारा अपने बच्चों को कोटा से यूपी वापस लाए जाने के बाद कई राज्य सरकारों पर दबाव बढ़ा है. झारखंड के मुख्यमंत्री ने भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से इस मुद्दे पर बात की है. लेकिन उन्हें अभी कुछ ठोस जवाब नहीं मिला है. झारखंड की सरकार भी बिहार सरकार जैसी दलील दे रही है. लेकिन उत्तर प्रदेश के बाद मध्य प्रदेश, बंगाल, गुजरात, छत्तीसगढ़ और असम की सरकारों ने भी अपने यहां के बच्चों को वापस ले जाने का फैसला किया है. राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने कहा है कि उन्होंने केंद्रीय गृह सचिव से बात की है और केंद्र सरकार ने बच्चों को वापस भेजने के कदम की पुष्टि कर दी है.
राजस्थान से सांसद और लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला ने भी कोटा में फंसे बच्चों के लिए राजस्थान सरकार से रहने-खाने की व्यवस्था करने को कहा है. लेकिन बिहार सरकार अभी भी बच्चों की वापसी पर अड़ियल रुख अपना रही है. जिन इंजीनियरों और डॉक्टरों पर बिहार के लोग नाज करते हैं, उसी की तैयारी के लिए कोटा गए बच्चों को इस तरह नजरअंदाज करना बिहार की सरकार को मुश्किल में डाल सकता है. नीतीश कुमार की सरकार पर दबाव लगातार बढ़ रहा है.
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