कोरोना से कैसे लड़ रहे हैं मुसलमान
२० अप्रैल २०२०अरब जगत के धार्मिक विद्वान और संस्थाएं कोविड 19 को लेकर सरकार के उठाए कदमों की वैधानिकता की व्याख्या कर रहे हैं. इतिहास गवाह है कि धर्म, धार्मिक संस्थाएं और फतवा अरब राजव्यवस्था का हिस्सा हैं. वहां किसी काम की धार्मिकता और वैधानिकता तय करना मौलवियों के हाथ में रहा है.
अरब जगत के मौलवी अपनी धार्मिक जिम्मेदारियों के तहत मस्जिदों को बंद करने और उमरा पर प्रतिबंध लगाने के कदम का पैगंबर के उपदेशों और इस्लाम की कसौटियों, धार्मिक तकरीरों और टीका टिप्पणी के आधार पर व्याख्या कर रहे हैं. वैधानिकता की यह कवायद इसलिए जरूरी है क्योंकि इस बीमारी को रोकने के लिए सामाजिक दूरी चाहिए. दूसरी तरफ रोजमर्रा के इस्लामिक रिवाजों में लोगों का एक साथ आना भी जरूरी है. अब यह चाहे मस्जिदों में पांच वक्त के नमाज और साप्ताहिक जुमे की नमाज हो सालाना हज और उमरा के लिए मक्का या मदीना में जमा होना या फिर रमजान के महीने में इफ्तार.
कोविड 19 को लेकर धार्मिक मिथक
मुसलमानों में बहुत से लोग महामारी को अल्लाह पर यकीन नहीं रखने के लिए खुदाई सजा के तौर पर देख रहे हैं. वो नहीं मानते कि इस बीमारी की कोई जैविक उत्पत्ति नहीं है. कुछ लोगों ने तो कोविड-19 के फैलने में साजिश भी देख लिया. ईरान के सम्मानित विद्वानों में एक वलीउल्लाह नकी बूर ने टीवी पर प्रसारित एक इंटरव्यू में कहा कि इस्रायल अपनी जादुई शक्तियों का इस्तेमाल ईरान, हमास और हिज्बुल्लाह को तबाह करने में कर रहा है, क्योंकि यहूदियों के पास बड़ी भारी जादुई और मायावी शक्ति है.
ईरान के सर्वोच्च नेता अयातोल्लाह खमेनेई की प्रतिक्रिया भी ठीक इसी लाइन पर है. खमेनेई ने कहा "किसी को कोविड 19 से हैरान नहीं होना चाहिए क्योंकि यह दुश्मन जिन्न और इंसान दोनों तरफ से आया है और इसके लिए उनके बीच खुफिया साजिश हुई है." इस्राएल के स्वास्थ्य मंत्री याकोव भी ईरानी मौलवियों से अलग नहीं हैं. वो कोविड 19 को समलैंगिकता की सजा मानते हैं. इस्लामिक स्टेट ने कोरोना वायरस को अल्लाह की सेना माना है, जो चीन के खिलाफ दैवीय हमला करने आया है.
अरब जगत में तो कोरोना वायरस के कुम शहर से उत्पन्न होने को उनकी विधर्मी नीतियों के प्रति अल्लाह का बदला कहा जा रहा है. दिलचस्प है कि इस्लामिक स्टेट ने हदीस का हवाला दे कर शरिया के नियम भी जारी किए हैं और अपने सदस्यों को महामारी वाले इलाके में जाने से रोका है. बेरुत यूनिवर्सिटी से जुड़े मानवविज्ञानी तालहुका रोउला का कहना है कि महामारी की दुनियाबी उत्पत्ति को नकारने की वजह स्थानीय मिथकों पर लोगों का यकीन और उनकी सोच पर अंधविश्वासों का मजबूत नियंत्रण है. रोउला ने यह भी कहा कि संकट के समय लोग यथार्थ और कल्पना से ज्यादा भावुकता और पराभौतिक चीजों की तरफ खिंचते हैं.
कोविड 19 का संकट और धार्मिक संस्थाओं की प्रतिक्रिया
मार्च की शुरुआत में जब कोविड 19 के मामलों की संख्या बढ़नी शुरू हुई तो अरब जगत की कई सरकारों ने मस्जिदों को बंद करने और शुक्रवार की नमाज पर रोक लगाने का फैसला किया ताकि सामाजिक दूरी को लागू किया जा सके. इस के बाद ऐसे फतवों की बाढ़ आ गई. सबसे चौंकाने वाला सऊदी सरकार का फैसला था जिसमें 5 मार्च को मक्का की मस्जिद को बंद करने और उमरा को रोकने की बात कही गई. हाल के दशकों में यह कभी नहीं हुआ. इससे पहले 930 ईसवी में शिया कारमातियन खानदान के शासन में राजनीतिक वजहों से और दोबारा 968 ईसवी में प्लेग के कारण हज और उमरा को पूरी तरह बंद किया गया था. मुस्लिम जगत में सऊदी अरब की बेहद खास स्थिति है क्योंकि यह इस्लाम की जन्मभूमि होने के साथ ही दो सबसे पवित्र मस्जिदों की भी जमीन है. वहां की सरकार शासन तंत्र चलाने के साथ धर्म की सरपरस्त भी है. दोनों में से किसी एक के उठाए कदम को दूसरे की स्वाभाविक मंजूरी मिल जाती है.
इस देश में वर्ल्ड मुस्लिम लीग और सीनियर काउंसिल ऑफ उलेमा दो सबसे प्रमुख धार्मिक संस्थाएं हैं. इन दोनों ने बिना किसी वैधानिकता की परख किए इन फैसलों पर अपनी मुहर लगा दी. इमाम अब्दुल्लाह अल जुहानी ने तो शुक्रवार की तकरीर में यह कहा कि उमरा को निलंबित करने का सरकार का फैसला पूरी तरह से इस्लामिक शरिया के मुताबिक है. इसी तरह लीग के महासचिव मोहम्मद अल इसा ने कहा कि कोविड 19 जैसी महामारी के वक्त मस्जिदों को बंद करना धार्मिक कर्तव्य है. उन्होंने यह भी कहा कि उमरा को निलंबित करना एक कठिन फैसला है लेकिन दुनिया के मुसलमानों को इसकी गंभीरता समझनी चाहिए. सऊदी अरब के धार्मिक मामलों के मंत्रालय के अधिकारी ने रमजान के महीन में तरावीह की नमाज को भी निलंबित करने के संकेत दिए हैं.
इस पर भी बहस चल रही है कि क्या रमजान को टाला जाना चाहिए. दरअसल कोविड 19 से बचने के लिए नियमित रूप से पानी पीना जरूरी है . मिस्र के भूतपूर्व बड़े मुफ्ती अली गुमा ने ऐसी संभावनाओं का विरोध किया और कहा कि आशंकाओं के आधार पर कोई वैधानिक फैसला नहीं लिया जा सकता. दूसरी तरफ इराक के प्रमुख शिया धार्मिक विद्वान अयातोल्लाह अली सिस्तानी ने रोजे छोड़ने की वकालत की है. उनका कहना है कि इससे अगर संक्रमण का खतरा टाला जा सकता है तो इसे छोड़ देना चाहिए.
सरकारों का समर्थन
सऊदी अरब के बाद काहिरा की अल अजहर यूनिवर्सिटी भी इस्लाम के लिए मानक मानी जाती है. यूनिवर्सिटी के बड़े मुफ्ती डॉ अहमद अल तैयब ने धार्मिक जमावड़े को निलंबित करने की मांग की. हालांकि लोग मस्जिदों में तब तक जाते रहे जब तक कि सरकार ने मस्जिद में नमाज को रोकने के आदेश नहीं दे दिए. सरकार का फैसला आने से पहले ही अल अजहर मस्जिद ने 20 मार्च से खुद ही मस्जिद को बंद कर दिया. 1200 साल के इतिहास में यह पहली बार हुआ. धार्मिक मामलों में सरकारों को कोई कदम उठाने से पहले उस पर होने वाली प्रतिक्रिया को लेकर संदेह की स्थिति रहती है. सरकार की प्रमुखता के बावजूद मौलवी इन फैसलों को प्रभावित करते हैं. सरकार को लोगों के विरोध का डर रहता है और वो धार्मिक संस्थाओं से उनकी पुष्टि करा लेना चाहती हैं.
संयुक्त अरब अमीरात में 5 मार्च से ही सभी इमामों को शुक्रवार की तकरीर में "इलाज से बेहतर है बचाव" के बारे में बताने को कहा गया और साथ ही नमाज का वक्त भी घटा दिया गया. डब्लिन की यूरोपीयन काउंसिल फॉर फतवा एंड रिसर्च के प्रमुख हुसैन हलावा का कहना है, "मैं उन लोगों पर यकीन नहीं कर सकता जो इसे वैश्विक साजिश कह रहे हैं या इसे चीन की सजा मान रहे हैं क्योंकि वायरस किसी को नहीं बख्श रहा." अफ्रीकी देशों में सरकार धार्मिक संस्थाओं के बलबूते अपने फैसलों की वैधानिकता तय कराती है. मोरक्को की सरकार ने 16 मार्च को मस्जिदों को बंद करने का फैसला किया. बहुत से लोग मस्जिद से माइक पर नमाज पढ़े जाने और लोगों को घर में रहकर उसका पालन कराने के पक्ष में थे लेकिन इसकी इजाजत नहीं मिली. अल्जीरिया में भी सरकार ने मस्जिदों में नमाज को बंद कराने के लिए न्यायिक कमेटी से फतवा जारी करने को कहा.
बंटी हैं भारत की इस्लामी संस्थाएं
भारत में भी कई तरह की आवाजें सुनाई दे रही हैं हालांकि लोगों की राय संस्थाओं की राय से अलग है. भारत के 20 करोड़ मुसलमान भी ऐसे मामलों में फतवा जारी करने और करवाने के मामले में दूसरे देशों के मुसलमान से अलग नहीं हैं. भारत के उलेमा भी सरकार के फैसले के समर्थन में आगे आए हैं. नक्शबंदी इस्लामिक मौलवी शेख खलील उर रहमान सज्जाद नोमानी का कहना है कि मस्जिदों में नमाज बंद करने का कोई नुकसान नहीं हैं, क्योंकि वायरस को फैलने से रोकने के लिए कदम उठाना जरूरी है. नोमानी ऑल इंडिया पर्सनल लॉ बोर्ड के प्रवक्ता भी हैं. उनका कहना है कि अजान जारी रहनी चाहिए क्योंकि इसे इस्लाम में जरूरी बताया गया है. उधर दारुल उलूम देवबंद के अरशद फारुकी का कहना है कि भारत के उलेमा अपने धार्मिक विचारों के लिए स्वतंत्र और सक्षम हैं और अरब के मौलवी क्या कह रहे हैं उसकी परवाह करने की जरूरत नहीं है. उन्होंने मस्जिदों में नमाज बंद करने का विरोध किया है. उनका कहना है कि पहली बार महामारी नहीं आई है और इतिहास में ऐसा पहले कभी नहीं हुआ कि मस्जिद में नमाज बंद की गई हो. फारुकी के मुताबिक युद्धभूमि में भी नमाज बंद नहीं होती.
दिल्ली की इस्लामिक फिक एकेडमी के खालिद सैफुल्लाह रहमानी का कहना है कि रमजान में तरावीह की नमाज पांच लोगों के साथ की जा सकती है और सामाजिक दूरी का ख्याल सरकार के निर्देशों के मुताबिक होना चाहिए. उनकी राय सऊदी अरब के मौलवियों से बिल्कुल अलग है जिन्होंने सामूहिक नमाज पर पूरी तरह से रोक लगाने का फैसला किया है. लखनऊ के इस्लामिक सेंटर ऑफ इंडिया ने अपने फतवे में कहा है कि कोविड 19 की मेडिकल जांच से बचना नहीं चाहिए और इस बीमारी को छुपाना गुनाह है. इसके साथ ही उन्होंने कोरोना के शिकार हुए लोगों को आम लोगों की तरह ही मुस्लिम कब्रगाहों में दफनाने की इजाजत देने की वकालत की है.
पाकिस्तान में क्या हो रहा है
पाकिस्तान में जब मस्जिदों में कोरोना वायरस के कारण नमाजियों की संख्या पांच पर सीमित कर दी गई तो बहुत से लोग भड़क उठे. पुलिस ने जब बड़ी संख्या में उन्हें रोकने की कोशिश की तो झड़पें होने लगीं. वहां एक जंग ट्वीटर पर भी चल रही है. बहुत से लोगों का कहना है कि इस्लामिक देश किसी भी सूरते हाल में मस्जिदों को बंद नहीं कर सकता. वास्तव में पाकिस्तान की कहानी दूसरे देशों से बिल्कुल अलग है. पाकिस्तान के बनने के बाद से ही यहां सरकारी संस्थाएं और धार्मिक संस्थाएं एक दूसरे से भिड़ती नजर आती हैं. धार्मिक संस्थाएं सरकारी संस्थाओं पर नियंत्रण की कोशिश करती हैं.
यहां यह बताना भी जरूरी है कि पाकिस्तान में पूरी तरह से तालाबंदी नहीं लागू नहीं की गई है. 17 मार्च को ऑल पाकिस्तान उलेमा काउंसिल ने संयुक्त फतवा जारी कर धार्मिक जमावड़ों पर रोक लगा दी. लोगों से नमाज के वक्त दूरी बनाए रखने को कहा गया. मस्जिदों के प्रशासन ने सामूहिक नमाजों को उस फर्श पर अता करने की सलाह दी जिसे रोज धोया जाना चाहिए. पाकिस्तान के बड़े मुफ्ती तकी उस्मानी ने 14 अप्रैल को प्रेस कांफ्रेंस कर कहा कि मस्जिद खुले रहें लेकिन 3-5 लोगों को ही वहां जाने की इजाजत हो. इसके साथ ही बुजुर्गों और बीमारों को मस्जिद ना जाने दिया जाए. उनका यह भी कहना है कि रमजान में सारी मस्जिदें खुलें लेकिन 10 से ज्यादा लोग वहां ना जाएं. इसके साथ ही सरकार के दिशानिर्देशों का पालन हो.
पाकिस्तान काउंसिल ऑफ इस्लामिक आइडियोलॉजी के प्रमुख डॉ किबिला अयाज का कहना है कि लोगों को महामारी का संबंध किसी धार्मिक समूह से जोड़ कर नहीं देखना चाहिए. उन्होंने सरकार के फैसले का समर्थन किया है. इसके साथ ही लोगों से जितनी जल्दी हो सके जकात (धार्मिक दान) देने का अनुरोध किया है ताकि गरीबों और उन लोगों की मदद की जा सके जिनका कामकाज ठप्प हो गया है. काउंसिल ने लोगों से उमरा या हज के लिए जमा धन को भी इस तरह के कामों पर खर्च करने की बात कही है.
आस्था के नाम पर अनादर
अरब देशों की सड़कों और सोशल मीडिया पर मस्जिदों और नमाज को बंद करने को लेकर अलग तरह से प्रतिक्रिया हो रही है. एक कुवैती नागरिक ने कहा कि अगर मेरी मस्जिद कोरोना वायरस से भर जाए तो भी मैं सिर्फ मस्जिद में ही नमाज पढू़ंगा. फलस्तीन के तुल्कारम शहर में एक दिलचस्प नजारा दिखा जब एक डॉक्टर शुक्रवार की तकरीर में लोगों को कोरोना वायरस के संक्रमण के बारे में जानकारी दे रहा था. उस वक्त मस्जिद खचाखच भरी हुई थी. बहुत से लोग मक्का और मदीना की पवित्र मस्जिदों को बंद करने के फैसले से नाखुश हैं. ईरान में भी कुम और माशाद की शिया धर्मस्थलों को बंद करने का विरोध हुआ और सरकार विरोधी नारे लगाए गए. लोगों ने जबरदस्ती इन जगहों पर जाने की कोशिश की तो उन्हें गिरफ्तार करना पड़ा. मोरक्को में और दूसरी कई जगहों पर बहुत से लोगों ने "अल्लाहो अकबर और केवल अल्लाह बचाएगा" जैसे नारे भी लगाए.
धार्मिक या सरकारी संस्थाओं की अवहेलना करने के पीछे सहज ज्ञान को छोड़ अंधविश्वास का सहारा लेना वजह है. इस वक्त ज्यादा जरूरी है कि सहज बुद्धि का इस्तेमाल किया जाए ना कि धार्मिक विचारों का. महामारी से लड़ने में वैज्ञानिक तरीकों का इस्तेमाल ज्यादा कारगर होगा और यह बाहरी एजेंसियों के काम को भी आसान बनाएगा. आखिरकार धर्म की वजह से एक अनुशासन होना चाहिए जिसमें सहज बुद्धि का इस्तेमाल हो.
मस्जिदों और नमाज के साथ उमरा को निलंबित करने को लेकर दो तरह के विचार हैं. एक निजी और दूसरा संस्थागत. सभी धार्मिक संस्थाओं और स्वतंत्र विद्वानों ने सरकार के फैसले का समर्थन किया. हां मुट्ठी भर लोग ऐसे जरूर हैं जो उमरा और नमाज को लेकर लिए गए फैसलों को गैरइस्लामी करार दे रहे हैं. कुछ लोगों ने पैगंबर की परंपराओं और पारंपरिक विधिवेत्ताओं की राय को सरकार के फैसले का समर्थन करने की वजह माना है जबकि कुछ लोग सीधे तौर पर मानते हैं कि सरकार की बात मानना शरिया को मानना है. शुरुआती दिनों में कुछ लोग सरकार के आदेश को नहीं मान रहे थे जब तक कि धार्मिक संस्थाएं उस पर अपनी मुहर ना लगा दें. सरकारों ने भी लोगों के विरोध को देखते हुए इन संस्थाओं की शरण में जाना ही ठीक समझा है.
फज्जुर रहमान सिद्दिकी मध्यपूर्व और राजनीतिक इस्लाम विशेषज्ञ हैं और दिल्ली के एक थिंक टैंक से जुड़े हैं.
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