कुपोषण मिटाने के लक्ष्य से कितना दूर है भारत
१७ फ़रवरी २०२०इतना ही नहीं पिछले साल ग्लोबल हंगर इंडेक्स (जीएचआई, 2019) में भारत 117 देशों की सूची में 102 नंबर पर रहा और पता चला कि उसकी रैंकिंग श्रीलंका, नेपाल, बांग्लादेश और पाकिस्तान से भी खराब है. ऐसे में दिल्ली स्थित सेंटर ऑफ साइंस एंड इन्वायरनमेंट (सीएसई) की सालाना रिपोर्ट में नई चेतावनी दी गई है. देश के पर्यावरण पर सीएसई की ताजा रिपोर्ट बताती है कि कुपोषण पर 2030 तक तय लक्ष्य हासिल करना भारत के लिए नामुमकिन है.
महत्वपूर्ण है कि संयुक्त राष्ट्र ने कुल 17 सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल्स (एसडीजी) रखे हैं जिन्हें 2030 तक हासिल किया जाना है. दूसरे देशों के साथ भारत ने भी 2015 में इन एसडीजी को हासिल करने का संकल्प लिया है. सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल्स के तहत दूसरा लक्ष्य अगले 10 सालों में सभी देशों से भूख और हर प्रकार का कुपोषण खत्म करना है.
सीएसई के शोध में पिछले दो दशकों के ग्लोबल हंगर इंडेक्स का विश्लेषण किया गया जिसमें पाया गया कि भूख को मिटाने की दिशा में भारत ने पिछले 20 साल में अपने स्कोर में केवल 21.9% सुधार किया जबकि इसी दौर में उसके पड़ोसी नेपाल का स्कोर 43.5%, पाकिस्तान का स्कोर 25.6% और बांग्लादेश का स्कोर 28.5% सुधरा. अफ्रीकी देश इथियोपिया ने अपने स्कोर में 48% से अधिक सुधार किया तो लैटिन अमेरिकी देश ब्राजील का स्कोर 55% से ज्यादा बेहतर हुआ.
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे (एनएफएचएस) के आंकड़ों में सुधार की रफ्तार इतनी धीमी है कि भारत को बच्चों की स्टंटेड ग्रोथ (उम्र के हिसाब से कद में कमी) की समस्या को खत्म करने में अभी कम से कम 40 साल लगेंगे. झारखंड जैसे राज्यों में तो मौजूदा रफ्तार से यह समस्या खत्म होने में 100 साल से अधिक वक्त लगेगा. इसी तरह कम वजन की समस्या खत्म होने में 53 साल लगेंगे. महाराष्ट्र जैसे समृद्ध माने जाने वाले राज्य में भी बच्चों में अंडरवेट की समस्या केवल 0.1% की सालाना दर से सुधर रही है और इसे खत्म करने में महाराष्ट्र को मौजूदा रफ्तार से 360 साल लग जाएंगे.
सीएसई के लिए इन आंकड़ों की समीक्षा करने वाले सचिन जैन का कहना है कि कुपोषण समाज के बड़े हिस्से में विद्यमान है और देश के हर कोने में यह समस्या है लेकिन आर्थिक विकास का मॉडल असमानता पैदा करने वाला रहा है और उसने समाज के एक बहुत छोटे हिस्से को फायदा पहुंचाया है. सचिन जैन ने कहा, "हमारा पूरा ध्यान योजना बनाने और कार्यक्रम से जुड़े भवन बनाने जैसे कामों में रहा है. जैसे हम केवल आंगनबाड़ी केंद्र या पोषण पुनर्वास केंद्र पर ही ध्यान देने की बात कर रहे हैं जबकि जरूरत इस बात की है कि विकेन्द्रीयकरण पर जोर देकर कई साल पहले ही हमें समुदाय आधारित प्रबंधन के मॉडल को अपना लेना चाहियए था.”
जैन के मुताबिक जब भी कुपोषण की बात होती है तो इसे महिला और बाल विकास विभाग और आंगनबाड़ी के पोषण आहार तक सीमित करके देखा जाता है जबकि इसका संबंध पीने के साफ पानी, स्वास्थ्य सेवाएं, खेती और रोजगार सब के साथ है. उधर सरकार इन आरोपों को सही नहीं मानती और कहती है कि हालात में धीरे-धीरे ही सही लेकिन निरंतर सुधार हो रहा है. केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के आधिकारिक बयान में कहा गया है कि पोषण अभियान के तहत एनीमिया मुक्त भारत के साथ-साथ परिवार में नवजात और छोटे (2 साल तक की उम्र के) बच्चों की देखरेख के लिए लगातार कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं और इनकी मॉनिटरिंग हो रही है.
सरकार कहती है कि नवजात शिशु केयर में कर्मचारी मौजूदा वित्त वर्ष (2019-20) के अप्रैल से सितंबर महीने में पिछले साल के मुकाबले 16% अधिक घरों तक पहुंचे. एक वरिष्ठ अधिकारी ने डीडब्ल्यू को बताया कि शिशु और माता की मृत्यु दर में लगातार कमी आई है लेकिन सीएसई का डेटा एनालिसिस कहता है कि इस कमी की रफ्तार सारे अभियान के मूल उद्देश्य को पूरा नहीं करती और अगर एसडीजी के घोषित लक्ष्य को हासिल करना है तो बेहतरी की रफ्तार मौजूदा गति से कम से कम 3 गुना अधिक होनी चाहिए.
सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल के बारे में पूछे जाने पर केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि संयुक्त राष्ट्र द्वारा निर्धारित एसडीजी का लक्ष्य "सारी मशीनरी और सिस्टम को काम करने के लिए प्रेरित करना है. आखिरकार जो भी किया जाना है वह तो सभी को मिलकर करना होगा.”
इस अधिकारी ने कहा,"हम यह मानते हैं कि मां और नवजात बच्चे की मृत्यु दर में कमी का लक्ष्य तो हम (एसजीडी की) तय समय सीमा से पहले ही हासिल कर लेंगे लेकिन यह भी समझना चाहिए कि यह केवल केंद्र सरकार का काम नहीं है. बहुत कुछ राज्यों के जिम्मे है और उन्हें जिला प्रशासन और पंचायतों के साथ मिलकर काम करना है. अगर आप पोषण अभियान को ही लें तो देखिए इसने कितने सारे मंत्रालयों को एक ही लक्ष्य के लिए आपस में जोड़ दिया है. चाहे वह हेल्थ मिनिस्ट्री हो या ग्रामीण विकास मंत्रालय या पंचायती राज और या फिर महिला और बाल कल्याण मंत्रालय. नतीजे आने में वक्त लग सकता है लेकिन काम सही दिशा में हो रहा है.”
भारत की अर्थव्यवस्था का आकार 1991 से अब तक दोगुना हो गया है. पिछले 45 सालों से देश में आंगनबाड़ी कार्यक्रम भी चल रहा है लेकिन भुखमरी और कुपोषण के आंकड़ों में विरोधाभास दिखता है. आज दुनिया में भुखमरी के शिकार लोगों की संख्या करीब 82 करोड़ है जिनमें 50 करोड़ से अधिक एशिया में हैं. भारत में 20 करोड़ लोगों को पर्याप्त पोषण नहीं मिल रहा और 5 साल से कम उम्र के करीब ढाई करोड़ बच्चों का वजन सामान्य से कम है.
अर्थशास्त्री दीपा सिन्हा कहती हैं कि दुनिया के तमाम देशों के अनुभव हमें बताते हैं कि सिर्फ आर्थिक विकास की दर बढ़ जाने से कुपोषण जैसी समस्या खत्म नहीं होती है. "अगर आप भारत को दक्षिण एशिया के देशों के बीच देखें और तुलना करें तो पता चलता है कि आर्थिक तरक्की के मामले में हम आसपास के देशों से बेहतर हैं लेकिन भूख और कुपोषण के मामले में बांग्लादेश, नेपाल, श्रीलंका और पाकिस्तान से भी नीचे हैं.”
जानकार इस हालात से निबटने के लिए महिलाओं की स्थिति सुधारने की सलाह देते हैं. उनके मुताबिक देश में कुपोषित बच्चे इसलिए भी पैदा हो रहे हैं क्योंकि माताएं खुद शारीरिक रूप से कमजोर और कुपोषित हैं और यह समस्या का बड़ा हिस्सा है. यह याद रखना महत्वपूर्ण है कि पिछले साल अक्टूबर में संयुक्त राष्ट्र ने भी कहा था कि भारत को कुपोषण के खिलाफ सुधार तेज करना होगा. यूएन वर्ल्ड फूड प्रोग्राम के प्रतिनिधि बिशो पाराजुली ने कहा कि जहां पिछले 2 दशक में गरीबी मिटाने, आर्थिक विकास दर बढ़ाने और खाद्य सुरक्षा में भारत ने तरक्की की है वहीं कुपोषण की दर में भी गिरावट हुई है. हालांकि एसडीजी के लक्ष्य हासिल करने के लिए कुपोषण के खिलाफ सुधार और तेज करना होगा.
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