क्यों मुरझा गयी ग्रीन पार्टी
२० जुलाई २०१७राजनीतिक विश्लेषकों से पूछिए तो जर्मनी की ग्रीन पार्टी को बीते 15 सालों में जनता से सबसे कम समर्थन मिलने का कारण वे यह बताएंगे कि मूल रूप से ग्रीन की सारी नीतियां तो अब मुख्यधारी वाली पार्टियों ने अपना ली हैं.
सन 2011 में फुकुशिमा परमाणु आपदा के ठीक बाद ग्रीन पार्टी को जनमत सर्वेक्षणों में थोड़े समय के लिए 20 फीसदी से भी अधिक समर्थन मिला था. लेकिन उसके बाद से छह सालों में एसपीडी की कंजर्वेटिव नेता चांसलर अंगेला मैर्केल और उनके महागठबंधन ने जर्मनी से न्यूक्लियर प्लांट्स को धीरे धीरे हटाने का कार्यक्रम चला दिया. अब एक बार फिर ग्रीन्स के पास मुद्दा ही नहीं बचा और हाल के सर्वेक्षण में पार्टी छह फीसदी पर सिमटी गयी.
जर्मन संसद बुंडेसटाग में ग्रीन पार्टी के सदस्य रह चुके हुबर्ट क्लाइनेर्ट कहते हैं, "ऊर्जा नीति अब कोई विवादास्पद मुद्दा रहा ही नहीं, हर कोई जलवायु संरक्षण के पक्ष में ही है." क्लाइनेर्ट बताते हैं कि "ग्रीन्स को नये मुद्दे चाहिए, दिलचस्प मुद्दे, एक नहीं ऐसी अनेक मांगें होनी चाहिए."
हालांकि पर्यावरण के क्षेत्र में अभी भी बहुत कुछ किया जाना बाकी है लेकिन परमाणु संयंत्र जैसा कोई गर्मागर्म विषय नहीं. पॉलिटिकल साइंटिस्ट उलरिष सार्किनेली कहते हैं, "किसी हद तक वे खुद अपनी सफलता के शिकार बन गये हैं. और अब वे जो भी मुद्दे ले कर आते हैं वह बहुत ही छोटे या घरेलू लगते हैं."
छवि की समस्या
यह भी एक बड़ी समस्या है. 1980 में पार्टी की स्थापना के बाद के सालों में ना केवल ग्रीन पार्टी की नीतियों बल्कि उनके नेताओं ने भी उथल पुथल मचायी थी. बुंडेसटाग में उनके नेता लंबे बाल रखे और स्नीकर जूते पहन कर पहुंच जाते. उस समय उनकी छवि मस्तमौला युवाओं और स्थापित मान्यताओं को तोड़ने वालों की बनी. आज पार्टी उस छवि से कोसों दूर है और खुद राजनीतिक प्रतिष्ठान का हिस्सा है. वे भी सबकी तरह लगते हैं और काफी हद तक उबाऊ भी.
उलरिष सार्किनेली कहते हैं, "वे कुछ ज्यादा ही अच्छे हैं, कुछ ज्यादा ही सभ्य. लेकिन आज की राजनीतिक संस्कृति बहुत अलग है. ट्रंप और ब्रेक्जिट के युग में वोटर ऐसे नेता चाहते हैं जो कहीं ज्यादा टकराव करता हो."
अब दो नेताओं के नेतृत्व में चल रही पार्टी को सार्किनेली असल में "बिना चेहरे वाली" बताते हैं. 50 वर्षीया कातरीन ग्योरिंग-एकार्ट और 51 वर्षीय चेम ओएत्सेमीर की संयुक्त अध्यक्षता में जनता को वो करिश्मा नहीं दिखता. प्रोफेसर हुबर्ट क्लाइनेर्ट पार्टी में युवा चेहरों की कमी को भी एक दिक्कत बताते हैं.
पार्टी के जन्म से लेकर पहली बार ऐसी स्थिति बनती दिख रही है कि बुंडेसटाग में जगह बनाने के लिए राष्ट्रीय चुनाव में पांच फीसदी वोट पाने की शर्त पूरी करना भी मुश्किल नजर आ रहा है. फिर भी पार्टी सासंद कॉन्स्टांटिन लोट्स को यकीन है कि उनकी पार्टी के मुद्दे वोटरों को अपील करेंगे, वे कहते हैं, "लोग चाहते हैं कि हम जलवायु को बचाने, पर्यावरण, कृषि सुधार और नागरिकों के अधिकारों को लेकर काम करें."
लेकिन अगर सर्वेक्षणों की मानें तो जर्मन वोटर शरणार्थियों, आतंकवाद और सामाजिक बराबरी को लेकर ज्यादा चिंतित हैं.
एक मौका और खतरा भी
ग्रीन पार्टी केवल सोशल डेमोक्रैट्स (एसपीडी) के ही भरोसेमंद गठबंधन पार्टनर ही नहीं बल्कि मैर्केल की सीडीयू के लिए भी संभावित पार्टनर हो सकते हैं. कई विश्लेषक को लगता है कि इस बार के चुनाव के बाद ही एक महागठबंधन का बनना लगभग तय है. एसपीडी की घटती लोकप्रियता को देखते हुए किसी एक्सक्लुसिव लेफ्ट विंग गठबंधन की संभावना कम ही लग रही है. इसके बाद जिसकी सबसे ज्यादा संभावना है लो है सीडीयू, लिबरल फ्री डैमोक्रैट्स और शायद ग्रीन पार्टी का गठबंधन बनना.
वहीं कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि मैर्केल मन ही मन ग्रीन पार्टी के साथ सरकार बनाने की उम्मीद लगाये हुए हैं. ग्रीन पार्टी का वर्तमान नेतृत्व भी ऐसा ही चाह सकता है. लेकिन राजनीतिक विश्लेषकों की माने तो ग्रीन का कंजर्वेटिव के साथ आना अगर एक मौका है तो शायद एक खतरा भी.
सार्किनेली कहते हैं, "सवाल उठता है कि यह जमीनी स्तर पर काम करने वाले साधारण जनसमुदाय को कैसा लगेगा, जो आम तौर पर उनके लिए वोट करते हैं. अगर चुनाव से पहले ग्रीन्स ने ऐसे गठबंधन के काफी संकेत दे दिये, तो शायद ये लोग भी पोलिंग बूथ तक ना पहुंचें."
ग्रीन पार्टी के पारंपरिक वोटर कुछ वाम झुकाव वाले होते हैं और सीडीयू के साथ आने की संभावना से वे जरूर निराश होंगे. ऐसे में 24 सितंबर को मतदान से पहले तक ग्रीन पार्टी को ऐसी किसी भी गलती से बचना होगा वरना वाकई वे बुंडेसटाग के दरवाजे के बाहर ही रह जाएंगे.