खस्ताहाल उद्योग-धंधे, अर्थव्यवस्था की हालत भी पतली
२० जून २०२०कोरोना संकट के दौरान लाखों प्रवासी कामगारों ने यह सोच कर घरों का रुख किया कि वे अपने लोगों के बीच रहकर कुछ न कुछ करके जीवन-यापन कर लेंगे. लेकिन बिहार में रोजगार के सीमित अवसरों के बीच 'कुछ न कुछ' भी तलाशना उनके लिए भारी पड़ रहा है. अकुशल मजदूरों के लिए दिहाड़ी तो कुशल या अर्द्धकुशल कामगारों के लिए रोजगार के सीमित अवसर परेशानी का सबब बन गए. बीमारू प्रदेश की सूची में शामिल इस राज्य में पहले से ही उद्योग-धंधों का अभाव है. जो कल-कारखाने यहां चल भी रहे हैं, वे अपनी पूरी क्षमता के अनुरूप उत्पादन नहीं कर रहे.
लगातार बदतर हुई राज्य की हालत
बिहार में उद्योग धंधों की हालत लालू-राबड़ी के पंद्रह साल के शासनकाल में बदतर हो गई. कानून-व्यवस्था के बिगड़ने की वजह से बड़े व्यवसायियों ने यहां से कारोबार समेट लिया. परिणाम यह हुआ कि नीतीश कुमार की काफी कोशिश के बाद भी निवेशकर्ताओं ने बिहार का रुख नहीं किया. राज्य के सभी इंडस्ट्रियल एरिया इसके गवाह हैं. इस परिस्थिति में केवल मनरेगा या फिर निर्माण योजनाओं के सहारे आखिरकार इतनी बड़ी संख्या में रोजगार कैसे बने. नतीजतन प्रवासियों को शीघ्र रोजगार मिलने में संशय होने लगा और वे न चाहते हुए भी पुन: लौटने का मन बनाने लगे. राज्य सरकार ने स्किल मैपिंग करवाया लेकिन इन्हें तत्काल रोजगार तो तब मिल सकेगा जब उन्हें यहां खपाने लायक स्थिति हो.
राज्य के कुछ जिलों में जिला प्रशासन द्वारा कैंप लगाकर श्रमिकों को उनकी क्षमता के अनुसार रोजगार दिलाने की कोशिश की जा रही है. बिहार इंडस्ट्रीज एसोसिएशन के अध्यक्ष रामलाल खेतान कहते हैं, "प्रवासी कामगार तो यहां तभी रुकेंगे जब उन्हें तुरंत यानी आज से ही कुछ काम मिल जाए. सरकार की जो योजनाएं हैं, उनसे उन्हें अस्थाई काम मिल रहा है जिस पर उन्हें भरोसा नहीं हो रहा. इसलिए मजबूरी में और बेमन से ही लोग फिर बाहर जा रहे हैं. सरकार ने इस संबंध में जो नीति बनाई है वह व्यावहारिक नहीं है." रामलाल खेतान का कहना है कि एसोसिएशन के सदस्यों ने रजिस्ट्रेशन कराया और कामगारों के संदर्भ में अपनी आवश्यकता सरकार को बताई लेकिन आजतक उस पर सरकार की ओर से कोई जवाब नहीं आया है. वे पूछते हैं, "आखिरकार कोई आदमी, जिसे काम करना है वह कितने दिन इंतजार करेगा."
सरकार ने जब कामगारों की आवश्यकता के संबंध में रिक्तियां मांगी थी तब उद्योगपतियों को लग रहा था कि आज दिया और कल लेबर मिल जाएगा. अब रोजगार के लिए लेबर द्वारा रजिस्ट्रेशन कराने की बात कही जा रही है, लेकिन जो लोग गांवों में रहते हैं उन्हें कैसे पता चलेगा कि कहां रजिस्ट्रेशन कराना है. हर लेबर तो पढ़ा-लिखा नहीं है. सरकार ने कहा है कि जो लोग आए हैं उनके स्किल के आधार पर उद्योग लगाए जाएं, ऐसा तो नहीं होता. लेबर की काबिलियत के अनुसार तो उद्योग लगेगा नहीं. ऐसा लगता है सरकार के पास कोई ठोस योजना नहीं है और जो भी है वह चुनावी माहौल को देखते हुए बनाई गई है.''
उद्योग जगत पर अपेक्षित असर नहीं
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार व्यवसाय जगत के दिग्गजों से बिहार में उद्योग लगाने का आग्रह करते रहे हैं. बिहार को उपभोक्ताओं का राज्य बताकर उन्होंने यहां टेक्सटाइल, तसर सिल्क, लेदर, फर्नीचर, बैग व साइकिल में अपार संभावनाएं जताईं. उन्होंने उद्योगपतियों को हरसंभव सहयोग का भी आश्वासन दिया. हाल के दिनों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ चर्चा में तो उन्होंने कहा कि अगर केंद्र सरकार अपनी ओर से पहल कर राज्य में कोई उद्योग लगवाने में मदद करे तो राज्य सरकार एक हजार एकड़ जमीन देने को तैयार है. सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद स्किल मैपिंग कराकर कामगारों को रोजगार मुहैया कराना राज्य सरकार की जिम्मेदारी बनती है. उद्योग मंत्री श्याम रजक कहते हैं, "क्वारंटीन सेंटर में रखे गए विभिन्न इलाकों से आए सोलह लाख स्किल्ड कामगार की पहचान की गई है. इनमें दर्जी, बढ़ई, टेक्सटाइल व हैंडलूम वर्कर व निर्माण क्षेत्र के कामगार हैं. जिलास्तर पर एक सहायता केंद्र बनाया गया है जिसके जरिए राज्य सरकार की योजनाओं में उन्हें काम मिल सकेगा." वे बताते हैं कि फूड प्रोसेसिंग, कृषि उपकरण निर्माण, हेल्थकेयर, रसायन, ऊर्जा, आइटी, लेदर व टेक्सटाइल फील्ड में राज्य में उद्योग स्थापित करने की दो कंपनियों ने इच्छा जाहिर की है. कोविड-19 के कारण उत्पन्न स्थिति सामान्य होने पर दोनों कंपनियां आएंगी.
एक ओर तो नए उद्यमों को लाने के प्रयास हैं तो दूसरी ओर पुराने उद्योगों पर दबाव है. इससे इतर बिहार इंडस्ट्रीज एसोसिएशन ने सरकार द्वारा विकास आयुक्त की अध्यक्षता में गठित टास्क फोर्स के समक्ष यह साफ कर दिया है कि राज्य में मौजूद औद्योगिक इकाइयां अपनी क्षमता का सिर्फ पचास प्रतिशत काम कर पा रहीं है. जो मजदूर यहां कार्यरत हैं उन्हें ही काम देना मुश्किल हो रहा तो नए लोगों को कहां से काम दिया जा सकेगा. एसोसिएशन ने यह भी कहा है कि जो उत्पाद बाहर से आ रहे हैं उन्हें चिन्हित कर उनके उत्पादन से जुड़ी इकाइयों को बिहार में लगाया जाए, तभी उनमें प्रवासी मजदूरों को काम मिल सकता है. साथ ही सरकार को उत्पादों की बिक्री की गारंटी देनी होगी तभी उद्यमी इस ओर आकृष्ट होंगे.
राजस्व में कमी, कर्ज पर बढ़ी निर्भरता
24 मार्च से लॉकडाउन लागू होने के बाद बिहार समेत सभी राज्यों में आर्थिक-व्यापारिक गतिविधियां थम गईं. बीते अप्रैल माह में बिहार सरकार के राजस्व में 2019-20 के इस महीने की तुलना में 82 प्रतिशत से अधिक कमी आई जबकि प्रवासियों को राहत प्रदान करने समेत अन्य मदों में सरकार के खर्चे काफी बढ़ गए. वर्तमान वित्तीय वर्ष में हालात में सुधार की संभावना भी काफी कम है. राज्य सरकार का भी मानना है कि कर्ज लेकर ही खर्चे पूरे किए जा सकते हैं. आंकड़ों के मुताबिक अपने स्रोत से बिहार सरकार की अनुमानित सालाना आय करीब 34,570 करोड़ रुपये है, जिनमें स्टेट जीएसटी से 20800 करोड़, स्टेट टैक्स व वैट से 5830 करोड़, स्टांप रजिस्ट्रेशन से 4700 करोड़, ट्रांसपोर्ट टैक्स से 2500 करोड़, भू-राजस्व से 500 करोड़, इलेक्ट्रिक ड्यूटी व गैर राजस्व कर से 250-250 करोड़ आता है. 2019 में इन मदों से 2542 करोड़ का राजस्व प्राप्त हुआ था किंतु इस साल अप्रैल में महज साढ़े चार सौ करोड़ की राशि सरकारी खजाने में आई. अप्रैल माह में अपने स्रोतों व केंद्रीय करों में हिस्सेदारी तथा केंद्रीय ग्रांट से राज्य की कुल आय 9861 करोड़ रुपये रही जबकि कुल खर्च बढ़कर 12,202 करोड़ रुपये हो गया. साफ है खर्च आमदनी से 2341 करोड़ बढ़ गया. सरकार ने इस गैप को कम करने के लिए पेट्रोल-डीजल पर वैट को बढ़ाने व अतिरिक्त संसाधनों (एडिशनल रिसोर्स मोबिलाइजेशन) के जरिए आमदनी बढ़ाने की कोशिश की. जाहिर है इस हिसाब से राज्य को केंद्र सरकार पर निर्भर होना ही पड़ेगा. इसलिए सरकार कहती है कि कर्ज लेकर ही जरूरी खर्चे पूरे किए जा सकते हैं.
वित्तीय भार कम किए जाने के उपायों के संबंध में उपमुख्यमंत्री व वित्तमंत्री सुशील कुमार मोदी कहते हैं, "राज्य सरकार इस बीच किसी तरह के टैक्स को बढ़ाने नहीं जा रही है. सरकार आर्थिक-व्यापारिक गतिविधियों के सामान्य होने का इंतजार करेगी. ऐसे भी राज्य वित्तीय मामलों में काफी हद तक केंद्र पर निर्भर है. अपने करीब 75 प्रतिशत राजस्व के लिए हम केंद्र पर निर्भर हैं. केंद्र ने अप्रैल-मई माह के लिए केंद्रीय करों में राज्य की हिस्सेदारी बढ़ाई है जो जून में कम हो सकती है." बिहार को वित्तीय वर्ष 2019-20 में केंद्रीय करों की हिस्सेदारी में 25000 करोड़ रुपये कम मिले थे. इसलिए बिहार सरकार ने केंद्र पोषित योजनाओं में सौ फीसद आवंटन एवं ऋण लेने की सीमा को ग्रॉस स्टेट डोमेस्टिक प्रोडक्ट (जीएसडीपी) के तीन फीसद से बढ़ाकर चार फीसद करने का अनुरोध किया है. हालांकि केंद्र ने बढ़ाकर इसे 3.5 प्रतिशत कर दिया है लेकिन अगर यह 0.5 प्रतिशत और बढ़ गया तो इससे बिहार को 6000 करोड़ का अतिरिक्त ऋण मिल जाएगा. वित्त मंत्री का कहना है, "दो माह से अधिक के लॉकडाउन के पश्चात अर्थव्यवस्था की गाड़ी धीरे-धीरे पटरी पर आ रही है. अप्रैल में औसतन जहां रोजाना 135.80 करोड़ का, मई में दोगुने से ज्यादा 310.63 करोड़ का माल बिहार में बाहर से बिकने आया. कर संग्रह के मामले में भी अप्रैल की तुलना में मई में तीन गुना से अधिक की वृद्धि हुई है. फिलहाल वित्तीय व्यवस्था को संभालना चुनौती तो है ही."
बेरोजगारी को अवसर बनाने की कोशिश
अर्थशास्त्री मनोज प्रभाकर कहते हैं, "सरकार द्वारा तात्कालिक तौर पर रोजगार प्रवासियों को मुहैया कराए जा रहे वे उन्हें नहीं भा रहे. सरकार कह रही है कि औद्योगिकीकरण करेंगे यानी उद्योग-धंधे लगाए जाएंगे और उसमें स्किल मैपिंग किए लोगों को रोजगार देंगे तो जाहिर है इसमें समय लगेगा." औद्योगिकीकरण के लिए नए सिरे से इंफ्रास्ट्रक्चर खड़ा करना और प्रवासियों को तब तक के लिए रोक कर रखना मुश्किल है. ये स्किल्ड कामगार अगर रुक जाते तो इंडस्ट्रियलाइजेशन के सपने को साकार होने में मदद तो जरूर मिलती. हालांकि कुछ लोगों ने बेरोजगारी की स्थिति को अवसर के रूप में लिया है. बक्सर के रामनरेश ने एक ठेले पर चना पीस कर सत्तू बनाने का काम शुरू कर दिया है. वे कहते हैं, "कितना और किसका इंतजार करता. सरकारी व्यवस्था में क्या होना जाना है. इसलिए खुद ही कर्ज लेकर ठेले पर मशीन लगाई. सामने पीसकर देने के कारण सत्तू की शुद्धता की गारंटी रहती है, इसलिए लोग खरीद रहे. जीवन की गाड़ी चल पड़ी है."
वहीं मुंबई से लौटे अविनाश कहते हैं, "वहां पेंटिंग का काम करता था. यहां काम की तलाश की लेकिन असफल रहा तो ठेले पर फल बेचने लगा. हां, उतना नहीं कमा पाता हूं जितना मुंबई में कमा लेता था." सहरसा जिले के सौरबाजार में पंजाब से लौटे गांव के पांच-छह लोगों ने लीज पर जमीन ली और मिलजुल कर खेती करने का निर्णय लिया. इन्हीं में से एक रामनगीना कहते हैं, "इधर-उधर भटकने से बेहतर है कि अपनी कुछ जमीन के साथ ही और जमीन लेकर उस पर खेती और मत्स्यपालन किया जाए. अब तो सरकार भी इसे बढ़ावा दे रही है. उम्मीद है पहले से ज्यादा कमाएंगे." प्रदेश में रोजगार के स्रोतों का अभाव कामगारों के पलायन का मुख्य कारण है. लालफीताशाही के कारण सरकार के किसी भी प्रयास से राज्य औद्योगिक माहौल नहीं बन पाया है. ऐसी नीति बनाने की आवश्यकता है जो छोटे-छोटे उद्योग-धंधों को प्रोत्साहित करे और उनके उत्पादों को बाजार दे सके. जब तक ऐसा नहीं होता तब तक पलायन होता रहेगा और सस्ते दर पर मानव संसाधन का दोहन होता रहेगा.
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