खोता दीदी का आपा
२८ फ़रवरी २०१३इस दौरान आखिर ऐसा क्या हुआ जिसने ममता की छवि को लगभग बदल दिया है ? लेकिन इससे पहले संदर्भ समझने के लिए कुछ घटनाओं और ममता की टिप्पणियों का जिक्र जरूरी है.
सत्ता में आए अभी छह महीने भी नहीं बीते थे कि महानगर के पार्क स्ट्रीट इलाके में एक युवती के साथ सामूहिक बलात्कार के बाद ममता ने बिना जांच के ही कह दिया था कि वहां कोई बलात्कार ही नहीं हुआ. उसके तीन-चार महीनों के भीतर ही ममता और तत्कालीन रेल मंत्री मुकुल राय का एक विवादास्पद कार्टून फेसबुक पर शेयर करने के आरोप में पुलिस ने यादवपुर विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर अंबिकेश महापात्र को गिरफ्तार कर लिया था. उसके बाद मेदिनीपुर जिले में जनसभा के दौरान एक किसान ने जब उनसे खाद की कीमत के बारे में सवाल किया तो ममता ने उसे माओवादी करार दे दिया. बाद में पुलिस को माओवादियों से उसके कोई रिश्ते नहीं मिले तो उसे रिहा कर दिया गया. वह किसान अब तक अदालती पचड़े से जूझ रहा है. इससे पहले एक राष्ट्रीय टीवी पर जब कुछ छात्राओं ने मुख्यमंत्री से सवाल पूछा तो वह बीच में ही शो छोड़ कर चली गईं. उन्होंने शो में शामिल छात्रों को भी माओवादी करार दिया था. उसके बाद पुलिस ने उनकी पृष्ठभूमि की छानबीन भी की थी.
ममता ने वरिष्ठ पुलिस अधिकारी नजरुल इस्लाम की लिखी पुस्तक मुसलमानों को क्या करना चाहिए की बिक्री पर अघोषित पाबंदी लगा कर यह साबित कर दिया कि वह अपने खिलाफ उठने वाली विरोध की कोई आवाज नहीं सह सकतीं. अभी कोलकाता पुस्तक मेले के दौरान कार आने में देरी होने पर उन्होंने सरेआम अपने सुरक्षाकर्मियों को कहा था कि आपको कोड़े से पीटना चाहिए.
फिल्मों पर पाबंदी
ममता के इशारे पर पिछले साल नवंबर में एक बांग्ला फिल्म तीन कन्या को सरकारी स्टार थिएटर से उतार दिया गया था. तब कहा गया था कि वह फिल्म पार्क स्ट्रीट बलात्कार कांड पर आधारित है जिसमें मुख्यमंत्री की टिप्पणी की वजह से उनकी काफी किरकिरी हुई थी. दिलचस्प बात यह थी कि उस फिल्म में ममता सरकार के शिक्षा मंत्री ब्रात्य बसु ने भी काम किया था. अब ताजा मामला 'कांगाल कालशात' यानी गरीबों का युद्धनाद नाम की एक बांग्ला फिल्म का है. सिंगूर आंदोलन और ममता बनर्जी के शपथ ग्रहण समारोह का उपहास उड़ाने के आरोप में फिल्म सेंसर बोर्ड ने इसे प्रमाणपत्र देने से ही इंकार कर दिया. तृणमूल कांग्रेस के बागी सांसद कबीर सुमन ने भी इस फिल्म में काम किया है. कबीर सुमन कहते हैं, "यह घटनाएं ममता की बढ़ती असहिष्णुता का सबूत हैं."
मीडिया से भी दो-दो हाथ
सत्ता में आने के बाद से ही मीडिया और ममता के बीच आंकड़ा 63 से उलट कर 36 का हो गया है. वह मीडिया के एक गुट पर लगातार कुप्रचार का आरोप लगाती हैं. पिछले दिनों बर्दवान जिले में हुए माटी उत्सव के दौरान उन्होंने एक फोटग्राफर को थप्पड़ मारने की बात कही थी. इसके अलावा फरवरी में देशव्यापी हड़ताल के दौरान एक पत्रकार ने जब उनको बताया कि बंगाल में भी इसका असर रहा है तो उन्होंने तुरंत सवाल किया कि आप किस मीडिया समूह से हैं ? आप किसी खास मीडिया समूह से हैं, इसलिए इस तरह के सवाल पूछ रहे हैं. ममता बार-बार यह आरोप लगाती रही हैं कि मीडिया के लोग उनके और उसकी सरकार के बारे में एक सुनियोजित रणनीति के तहत कुप्रचार अभियान चला रहे हैं.
आखिर क्यों बदली हैं ममता
महानगर की एक स्कूल शिक्षिका सावित्री घोषाल कहती हैं, "ममता बंगाल की तस्वीर बदलने के बड़े-बड़े सपने लेकर सत्ता में आई थी. लेकिन जब हकीकत से पाला पड़ा तो उनको झटका लगा. राज्य सरकार भारी आर्थिक बोझ तले दबी है." मीडिया से जुड़े सुमन चटर्जी कहते हैं, "ममता चाहती हैं कि मीडिया विपक्ष में रहते जिस तरह उनका समर्थन कर रहा था वैसा ही अब भी करे." वहीं समाजविज्ञानी प्रोफेसर जीवानंद प्रामणिक कहते हैं, "ममता करना तो बहुत कुछ चाहती हैं. लेकिन उके पास न तो बेहतर लोग हैं और न ही संसाधन. उनकी ऊटपटांग टिप्पणियां इसी खीज का नतीजा हैं."
राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि ममता के सलाहकार अच्छे नहीं हैं. ऐसे में हर फैसला ममता को अकेले ही लेना पड़ता है. काम के बढ़ते बोझ और मनमाफिक नतीजे नहीं मिलने की वजह से ममता की हताशा लगातार बढ़ रही है. इस हताशा में वह अक्सर भाषा पर संयम खो बैठती हैं. माकपा के वरिष्ठ नेता सूर्यकांत मिश्र कहते हैं, "अपने मंत्रिमंडल में शामिल नेताओं के गलत-सही कारनामों की वजह से भी ममता को काफी कुछ झेलना पड़ रहा है. कभी किसी पर किसी माफिया डॉन को संरक्षण देने के आरोप उठते हैं तो कभी जबरन वसूली के." वह कहते हैं कि ममता को अब समझ में आ रहा है कि सत्ता की राह फूलों की डगर नहीं है, यह कांटों से भरी है.
रिपोर्टः प्रभाकर, कोलकाता
संपादनः आभा मोंढे