गांधी से गांधीगिरी तक हर दौर में हैं महात्मा
२९ जनवरी २०१८1933 में मुंबई से निकलने वाली फिल्म पत्रिका ‘चित्रपट' के 36वें अंक में वैद्यनाथ मिश्र ‘विह्वल' की छपी एक गजल के दो शेर हैं
अब हर सिम्त से चर्खे की सदा आती है इसके हर सूत से खुश्बू-ए-वफा आती है
और
हक़ दिलाने के लिए जन्म हुआ गांधी का, शक्ल इंसान में यूं रुह-ए-खुदा आती है
किसी फिल्म पत्रिका का 1933 में गांधी का यों उल्लेख करना सामान्य बात नहीं है. मोहनदास करमचंद गांधी का व्यक्तित्व साहित्यकारों और फिल्मकारों को प्रभावित कर रहा था. 1921 में आई कांजीभाई राठौड़ के निर्देशन में कोहिनूर फिल्म कंपनी की ‘संत विदुर' में विदुर के मिथकीय चरित्र को गांधी से प्ररित होकर गढ़ा गया था. इस फिल्म पर तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने प्रतिबंध लगा दिया था. यह भारत की प्रहली प्रतिबंधित फिल्म है. दरअसल, दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटने के बाद से ही महात्मा गांधी अपनी राजनीतिक सक्रियता और स्वतंत्रता की आकांक्षा के कारण जनमानस को प्रभावित कर रहे थे.
फिल्में जनमानस की भवनाओं की अभिव्यक्ति होती हैं. फिल्मकार अपने समय की विसंगतियों और चिंताओं को फिल्मों के माध्यम से कभी प्रत्यक्ष तो कभी प्रच्छन्न रूप में व्यक्त करते हैं. वे नायकों के रूप में वर्तमान और इतिहास से ऐसे व्यक्तियों को चुनते हैं, जिनके माध्यम से वे अपनी सोच-समझ को वर्तमान के परिप्रेक्ष्य में रख सकें. इस लिहाज से राजकुमार हिरानी निर्देशित ‘लगे रहो मुन्नभाई' सबसे अधिक प्रभावशाली फिल्म है. इस फिल्म से प्रचलित हुए गांधीगिरी शब्द को देश के युवा दर्शकों ने अपना लिया था. ‘लगे रहो मुन्नाभाई' की खासियत है कि वह गांधी और गांधीवाद को आज के एक नए माहौल में बिल्कुल भिन्न तबके के बीच ले जाती है.
फिल्मों में गांधी तीन रूपों में व्यक्त होते रहे हैं. एक स्वयं गांधी...यानी ऐसी फिल्में जिनमें गांधी एक व्यक्ति के रूप में मौजूद हैं. ऐसी फिल्में मुख्य रूप से गांधी के राजनीतिक व्यक्तित्व पर केंद्रित हैं. इस श्रेणी में रिचड एटनबरों की 1982 में आई ‘गांधी' और श्याम बेनेगल निर्देशित 1996 में आई ‘द मेकिंग ऑफ महात्मा' है. 14 सालों के अंतर पर आई दोनों फिल्मों को पलट कर देख लें तो महात्मा गांधी का संपूर्ण व्यक्त्त्वि समझ में आ जाता है. ‘द मेकिंग ऑफ महात्मा' गांधी के महात्मा बनने की प्रक्रिया से परिचित कराती है तो ‘गांधी' महात्मा बन चुके मोहनदास करमचंद गांधी के कार्य को विस्तार से दर्शाती है.
गांधी के व्यक्तित्व के निजी पहलू को फिरोज खान की 2007 में आई ‘गांधी माय फादर' में देखा जा सकता है. इस फिल्म में महात्मा गांधी और उनके बेटे हरिलाल के विषम संबंधों की पड़ताल की गई है. फिल्मों में गांधी के चित्रण का दूसरा रूप किसी और व्यक्तित्व की बॉयोपिक में उन्की मौजूदगी है. ऐसी फिल्मों में ‘जिन्ना','अंबेडकर','वीर सावरकर','सुभाष्चंद्र बोस','भगत सिंह' और ‘सरदार पटेल' के जीवन पर बनी फिल्में गांधी का जिक्र किए बगैर पूरी ही नहीं हो सकतीं.
इन फिल्मों में संबंधित व्यक्ति की सोच व राजनीति के परिप्रेक्ष्य में गांधी की व्याख्या की गई है. महात्मा गांधी के कद्दावर व्यक्तित्व को कई बार इन फिल्मों में छोटा कर के दिखाया गया है. शायद उन व्यक्तियों पर फोकस करने के लिए उन्हें उचित ठहराने के लिए यह जरूरी रहा हो. मृत्यु के 70 सालों के बाद भी गांधी भारतीय जनमानस के बीच जीवित हैं. तीसरा और महत्वपूर्ण रूप गांधीवाद का है. ऐसी फिल्मों में गांधी प्रत्यक्ष तौर पर नहीं होते,लेकिन उनके विचार फिल्म के कथ्य को आलोड़ित करते रहते हैं. इसका प्रमाण है कि अनेक फिल्मों में गांधीवादी सोच और विचार को अपनाया जाता है. अनुराग कश्यप की ‘ब्लैक फ्रायडे' जैसी फिल्म के पहले फ्रेम में गांधी की उक्ति उभरती है... आंख के बदले आंख लेने की नीति पर चलें तो पूरी दुनिया अंधी हो जाएगी. ऐसी प्रासंगिक उक्तियां फिल्मों में पढ़ने और देखने का मिलती रहती हैं.
फिल्मों में गांधी का सबसे पहला चित्रण ब्रिटिश फिल्म ‘नाइन आवर्स टू रामा' थी. इस फिल्म में गाधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे के नौ घंटों का चित्रण है. उसके बाद रिचर्ड एटनबरो ने गांधी के व्यक्त्ित्व को लेकर भारत सरकार के सहयोग से ‘गांधी' फिल्म बनाई थे. बेंन किंग्सले अभिनीत इस फिल्म ने गांधी को सिनेमाई पहचान दी. गांधी पर बनी अभी तक की सारी फिल्मों में इसे ही पूर्ण माना जाता है. हालांकि इस फिल्म से भी कई आलोचकों को शिकायत है कि रिचर्ड एटनबरों ने गांधी का आदर्श रूप में चित्रित किया है. उनकी कमियों को नजरअंदाज किया है. सच्चाई यह है कि समय के साथ गांधी की प्रसंगिकता बदलती रहेगी और उसी के अनुरूप फिल्मों में उनका चित्रण भी बदलेगा. इस बदलाव के बावजूद गांधी किसी न किसी रूप में फिल्मों के जरिए हमारे बीच आते रहेंगे.
अजय ब्रह्मात्मज, फिल्म समीक्षक