घर लौटने को बेचैन हो रहे हैं यूक्रेन के लोग
२२ अगस्त २०२२8 मार्च को यानी यूक्रेन पर रूस के हमले के महज दो हफ्ते बाद ही ताइसिया मोकरोजुब अपने नवजात बच्चे को लेकर पति से अलग हो कर पलायन कर रहे लोगों में शामिल हो गईं. सुरक्षा के लिये उन्होंने पोलैंड की राह पकड़ी. करीब आधार साल बीत गया है और उनका बच्चा 11 महीने का हो गया है तो घर लौटने की उनकी बेचैनी बढ़ गई है. उनका घर जापोरिझिया के इलाके में है. यह वही शहर है जहां न्यूक्लियर पावर प्लांट है और आये दिन गोलीबारी हो रही है.
ठहर गया है वक्त
36 साल की मोकरोजुब के पति उन्हें वहीं रुकने के लिये कह रहे हैं. उनका बस यही सपना है कि सर्दियों तक यूक्रेन रूस के खिलाफ अपनी रक्षा पंक्ति मजबूत कर ले और वो अपने घर पहुंच जायें.
इस हफ्ते इस लड़ाई के छह महीने पूरे हो रहे हैं. बहुत से शरणार्थी इस दुखद सच्चाई से वाकिफ हैं कि वो जल्दी अपने घर नही पहुंच सकेंगे या फिर शायद कभी नहीं. मोर्चे से बहुत दूर के इलाकों में भी मिसाइलें गिर रही हैं और यूक्रेन के नियंत्रण में रहने वाले लोग भी सुरक्षित महसूस नहीं कर रहे हैं. ऐसे में लोग बस किसी तरह वक्त गुजार कर युद्ध खत्म होने का इंतजार कर रहे हैं. उन्हें घर की याद तो आती है लेकिन वो भविष्य में ज्यादा दूर तक नहीं सोचना चाहते.
पढ़ाई का नया सत्र शुरू होने के साथ ही कुछ लोगों ने ना चाहते हुये भी अपने बच्चों को देश के बाहर स्कूलों में भर्ती कराया है. उन्हें डर है कि यूक्रेनी स्कूलों की आस में बच्चे पीछे रह जायेंगे. बहुत से लोगों ने अपनी योग्यता से बहुत नीचे की नौकरियां शुरू कर दी हैं. मोकरोजुब जैसी शरणार्थियों की संख्या भी काफी ज्यादा है जिनके साथ छोटे बच्चे हैं और वो काम नहीं कर सकतीं. मोकरोजुब कहती हैं, "ऐसा लगता है कि ना सिर्फ मेरे लिये बल्कि सभी यूक्रेनियों के लिये वक्त ठहर गया है. हम सब एक ही तरह की अनिश्चितता में घिरे हुए हैं."
शरणार्थी संकट
रूसी हमले ने यूरोप में दूसरे विश्वयुद्ध के बाद सबसे बड़े शरणार्थी संकट को जन्म दिया है. संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी एजेंसी का कहना है कि लगभग हर तीसरे यूक्रेनी को अपना घर छोड़ कर भागना पड़ा है. करीब 66 लाख लोग देश के भीतर ही विस्थापित हुए हैं जबकि 66 लाख से ज्यादा लोगों ने देश के बाहर का रुख किया है. सबसे ज्यादा शरणार्थी पोलैंड में हैं. इनमें से करीब 15 लाख लोगों ने नेशनल आईडी नंबर के लिये रजिस्टर किया है जिससे कि उन्हें सामाजिक मदद मिल सके.
जर्मनी में यूक्रेनी लोगों को वीजा की जरूरत नहीं होती. यहां भी करीब 9 लाख से ज्यादा लोगों ने अपना नाम दर्ज कराया है. हालांकि यह साफ नहीं है कि वो लोग यहीं हैं या फिर कहीं और गये हैं. वारसॉ में फिलहाल 180,000 यूक्रेनी शरणार्थी हैं. पोलैंड की राजधानी की आबादी कुल 18 लाख है यानी इसका दसवां हिस्सा यूक्रेनी शरणार्थी हैं. इस तरह से एक शहर में यूक्रेनी लोगों का यह सबसे बड़ा ठिकाना बन गया है.
पोलैंड की गलियों में अब जहां चहां यूक्रेनी और रूसी भाषा सुनाई दे रही है. यूक्रेन और रूस में लगभग एक जैसी भाषायें भी बोली जाती हैं. यहां की दुकानों में यूक्रेनी खाने पीने की भी दिखने लगी हैं. नये लोग कुछ मुश्किलों के साथ यहां के रिवायतों में ढल रहे हैं. बहुत से शरणार्थियों के लिए पोलैंड की स्लाविक भाषा और संस्कृति थोड़ी बहुत जानी पहचानी और भरोसा जगाने वाली है.
पोलैंड का पास होना इन लोगों को बीच बीच में थोड़े समय के लिये यूक्रेन जा कर अपने पिता या पति से मिलने का मौका भी दे देता है. यूक्रेन ने 18 से 60 साल केपुरुषों के देश छोड़ने पर रोक लगा ररखी है. 42 साल की गलीना इन्यूटिना 11 साल के बेटे के साथ पैदल चल कर मार्च में पोलैंड पहुंचीं. इन्यूटिना कहती हैं, "हम और आगे नहीं जाना चाहते." उनके बेटा ने उनसे कहा, "मां, अगर हम और दूर गये तो घर लौटने में ज्यादा समय लगेगा."
घर और भाषा की दिक्कतें
बड़ी संख्या में लोगों के यहां आने से वारसॉ में पहले से चली आ रही घरों की समस्या और बड़ी हो गई है. पिछले साल यहां किराया करीब 30 फीसदी बढ़ गया. दूसरे शहरों में भी लोग बड़ी संख्या में पहुंच रहे हैं. जंग के शुरुआती दिनों में तो लाखों पोलिश परिवारों ने अनजान यूक्रेनियों को अपने घर में जगह दी थी. लोगों के इस दरियादिली के कारण पोलैंड में शरणार्थी शिविरों की जरूरत नहीं पड़ी.
हालांकि इसके इतना लंबा खिंचने की आशंका नहीं थी, युद्ध लंबा चलने के कारण अब समस्याएं बढ़ रही हैं. कुछ पोलैंडवासियों ने शरणार्थी एजेंसियों से कहा है कि वो उन्हें इन लोगों को जाने के लिये कहने में मदद करें. कुछ सामुदायिक संगठन मदद के लिये सामने आये हैं. ग्लोबल कंपनी सीमेंस ने अपने पोलैंड मुख्यालय में एक होटल जैसी आवासीय व्यवस्था की है जहां 160 लोग रह रहे हैं. इसका इंतजाम वारसॉ नगर प्रशासन देख रहा है. 52 साल की लुडमिला फेडोतोवा जापोरिझिया की हैं और इसी जगह रहती हैं. वो यूक्रेन में जो हो रहा है उसे लेकर सहमी हुई हैं लेकिन उन्हें कम से कम आवास और भोजन की दिक्कत नहीं है. वो काम ढूंढ रही हैं.
बहुत से लोगों को छोटे मोटे काम मिले हैं और इससे उन्हें सहारा मिला है लेकिन भाषा की दिक्कत से परेशानियां भी हैं. ज्यादातर लोग लौटने की योजना बनाने में लगे हैं और वो भाषा सीखने में दिलचस्पी नहीं ले रहे हैं. ऐसे में वो छोटे मोटे काम में ही खुद को व्यस्त रख रहे हैं.
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मारिना गल्ला 13 साल के बेटे के साथ मार्च में यूक्रेन से आईं. पोलैंड और बर्लिन होते हुए पिछले महीने ये लोग पश्चिम की ओर जर्मनी के श्वेरिन में एक ऊपरी मंजिल के छोटे से अपार्टमेंट में शिफ्ट हुए. अब वो कम से कम आराम से हैं.
मारियोपोल से निकलने के बाद एक बैकपैक में जरूरी सामान भर कर ये लोग निकल पड़े. गाला ने हाथ से लिख एक नोट बना रखा है जिसमें उनकी मां, पिता और दादा का नंबर है. उन्होंने यह इसलिये लिखा है ताकि अगर युद्ध में या फिर श्वेरिन में उनकी मौत हो जाये तो उन्हें जानकारी दी जा सके. वो इस नोट के बगैर घर से बाहर नहीं जातीं. उनका बेटा शुरू शुरू में अपने दोस्तों को खूब मैसेज करता था लेकिन अब वो उनसे ज्यादा बात नहीं करता. उसने अब यह पूछना भी बंद कर दिया कि वो लोग वापस घर कब जायेंगे.
एनआर/ओएसजे (एपी)