चीन और जापान की दक्षिण पूर्व एशिया में बढ़ती प्रतिद्वंदिता
२३ अक्टूबर २०२०अपनी विदेश यात्रा के लिए प्रधानमंत्री सुगा ने वियतनाम और इंडोनेशिया को चुना. अपनी चार-दिवसीय यात्रा के दौरान सुगा ने वियतनाम के प्रधानमंत्री न्यूएन श्वान फुक और इंडोनेशिया में राष्ट्रपति जोको विडोडो उर्फ जोकोवी से मुलाकात की. भूतपूर्व प्रधानमंत्री आबे शिंजो के जाने के बाद से माना जा रहा था कि उनके जैसा विदेश नीति में रुचि रखने वाला प्रधानमंत्री शायद ही भविष्य में आएगा. लेकिन अपने इस दौरे से सुगा ने कई बड़े संदेश दे दिए हैं. उनमें सबसे बड़ा तो यही है कि उनकी विदेशनीति में दक्षिणपूर्व एशिया के आसियान सदस्य देश अहम स्थान रखेंगे वरना इन दो आसियान देशों को अमेरिका, पड़ोसी दक्षिण कोरिया, चीन, और यूरोप के देशों पर वरीयता देने की भला और क्या वजह हो सकती है? वैसे अमेरिका में चुनाव होने जा रहे हैं इसलिए वहां के दौरे पर विचार न करने की यह एक बड़ी वजह थी.
वियतनाम और इंडोनेशिया के साथ जापान के संबंध पिछले कुछ वर्षों में बहुत मजबूत हुए हैं. दोनों देश जल्दी ही 2+2 के पैटर्न पर विदेश मंत्रियों और रक्षा मंत्रियों की बैठकें भी शुरू करने जा रहे हैं. रक्षा सहयोग पर भी बड़े मंसूबे हैं. वियतनाम इस साल आसियान बैठकों की अध्यक्षता कर रहा है और आशा की जाती है कि अध्यक्ष के तौर पर वह कुछ बड़े कदम उठाएगा. इस लिहाज से प्रधानमंत्री सुगा सामरिक सोच रखने वाले लगते हैं. जहां वियतनाम के साथ जापान के सामरिक स्तर पर सहयोग के कई आयाम हैं तो वहीं इंडोनेशिया में जापान ने चीन की बेल्ट एंड रोड परियोजना को टक्कर दे रखी है. चीन और जापान के बीच हाल के वर्षों में इंडोनेशिया में रेल परियोजना को लेकर चली होड़ ने इस मुद्दे को काफी चर्चा में ला दिया था. इसके अलावा सामरिक स्तर पर हाल में कुछ ऐसे बदलाव आए हैं जिन्होंने इंडोनेशिया की महत्ता को बढ़ाया है. इनमें सबसे महत्वपूर्ण है इंडोनेशिया और अमेरिका के बीच बढ़ती साझेदारी. इसी का नतीजा है कि दो दो बार वीसा ना पा सकने वाले इंडोनेशियाई रक्षा मंत्री प्रबोवो सुबियांतो उसी वक्त अमेरिका का दौरा कर रहे थे जब सुगा उनके देश आए थे.
चीन सागर विवाद पर सहमत
वियतनाम और इंडोनेशिया में एक और अहम मुद्दे पर मतों में समानता है और वह है दक्षिण चीन सागर में चीन से चल रहे विवाद में दोनों का साहसिक रवैया. यह जापान और अमेरिका की नीति से भी मेल खाता है. चीन के साथ दोनों देशों के विवाद हैं. वियतनाम दक्षिण चीन सागर में चीन और ताइवान के बाद सबसे बड़ा दावेदार है, और चीन की गतिविधियों का जम कर विरोध भी करता रहा है. इंडोनेशिया दक्षिण चीन से द्वीपसमूहों पर न कोई हक जताता है और न ही सैद्धांतिक रूप से वह किसी विवाद का हिस्सा है. वह तो दक्षिण चीन सागर विवाद में इसलिए घिसट कर आ गया है क्यों कि चीन उसके एक्सक्लूसिव आर्थिक क्षेत्र (ईईजेड) में अपना हक जमाता है. चीन की तथाकथित 9 डैश लाइन वहां से होकर गुजरती है.
दोनों देशों में अपने भाषणों में सुगा ने दक्षिण चीन सागर विवाद के मुद्दे उठाए और चीन का सीधे तौर पर नाम न लेते हुए यह भी कहा कि कुछ देशों की वजह से पूरा क्षेत्र विवाद के साये में खड़ा है और इससे निपटने के लिए स्वतंत्र, मुक्त, और नियम-बद्ध इंडो-पैसिफिक व्यवस्था को मजबूत करने की जरूरत है. शी जिनपिंग के नेतृत्व में चीन के तेवर पैने और तीखे हुए हैं. और इसका नतीजा यह हुआ है कि जापान, अमेरिका, और भारत जैसे देश अब चीन की अर्थव्यवस्था को डी-कपल करने यानि उससे नाता तोड़ने की ओर विचार कर रहे हैं. अमेरिका और जापान की इसमें प्रमुख भूमिका है. माना जा रहा है कि अब जापान अपनी सप्लाई चेन व्यवस्था और निवेश का रुख मोड़ कर वियतनाम जैसे देशों की ओर करना चाह रहा है. इन उद्देश्यों की पूर्ति करने के लिए जापानी कंपनियों को उसने लगभग ढाई अरब डॉलर का आर्थिक पैकेज देने का निर्णय भी लिया है.
चीन की भी निगाहें इलाके पर
लेकिन सुगा अकेले नहीं हैं जिन्हें दक्षिणपूर्व एशिया के देशों से प्यार और व्यापार की चाहत है. चीन भी इस फन में उतना ही माहिर है. सुगा की यात्रा से ठीक पहले चीन के विदेशमंत्री वांग यी ने चार आसियान देशों - कंबोडिया, लाओस, थाईलैंड, और मलेशिया की यात्रा की. जहां सुगा वियतनाम के साथ व्यापार बढ़ाने की सोच रहे थे तो वहीं वांग यी ने कंबोडिया के साथ एक मुक्त व्यापार समझौते पर दस्तखत भी कर दिए. यह समझौता कंबोडिया के लिए बहुत महत्वपूर्ण है. यूरोपीय संघ की ईबीए (हथियारों को छोड़कर सब कुछ) नीति के तहत कंबोडिया को निर्यात की काफी सहूलियतें थीं लेकिन विपक्ष पर गैरकानूनी दमनकारी नीतियां चलाने की वजह से कंबोडिया की सरकार पर कई निर्यात और व्यापार सम्बंधी प्रतिबंध लग रहे थे. ऐसे में चीन ने कंबोडिया का साथ दिया और मौके का फायदा उठाकर मुक्त व्यापार समझौते के लिए भी कंबोडिया को मना लिया और कंबोडिया को तो मानो मुंह मांगी मुराद मिल गयी.
दिलचस्प है कि इन चार देशों में से तीन, कंबोडिया, लाओस, और थाईलैंड मीकांग डेल्टा क्षेत्र के देश हैं जिनके साथ लंचांग मीकांग सहयोग की स्थापना चीन ने की है. इन देशों के साथ हाल में एक बैठक अमेरिका ने भी की थी. इसमें जिसमें वियतनाम भी शामिल था. उस बैठक में न्यू मीकांग पार्टनरशिप के तहत अमेरिका ने 15.3 करोड़ डॉलर की परियोजनाओं की घोषणा भी की. चीन इस बात से सतर्क हुआ और वांग यी रूठों को मनाने उनके घर पहुंच गए. साफ है चीन दक्षिणपूर्व एशिया में सिर्फ अमेरिका और जापान ही नहीं यूरोपीय संघ को भी निशाने पर रखता है.
चीन को घेरने की कोशिश
जो भी हो सुगा की यात्रा से यह तो स्पष्ट है कि जापान अमेरिका की गैरमौजूदगी का फायदा चीन को नहीं होने देगा और हर मोर्चे पर अमेरिकी सामरिक तानेबाने को मजबूत करेगा. आबे शिंजो के सत्ता छोड़ने के बाद यह समझा जा रहा था कि चीन पर जैसा सख्त रवैया उनका रहा. वैसा उनके पहले तो मुश्किल से हुआ था लेकिन उनके बाद भी बहुत मुश्किल से ही आएगा. यह आबे ही थे जिनकी वजह से इंडो-पैसिफिक और क्वाड जैसे क्षेत्रीय गठबंधन मूर्त रूप ले पाए हैं. सुगा ने इस गलतफहमी को भी अपने पहले विदेशी दौरे में झटके से तोड़ दिया और यह भी साफ कर दिया कि विदेश नीति के मामले में जापान अब हाथ पर हाथ धरे बैठने वाला देश बना नहीं रहा सकता.
निर्णायक नेतृत्व के अभूतपूर्व संकट से जूझ रही पश्चिम-आधारित अंतरराष्ट्रीय उदारवादी विश्व व्यवस्था की नैया का खेवनहार जापान को बनना पड़ेगा. आबे के समय में कई अवसरों पर जापान ने यह करके दिखाया था. और अब शायद सुगा का जापान भी इसे दुहरा सके. देखना यह भी है कि क्या सुगा विदेश नीति में आबे शिंजो जैसा पैनापन भी ला पाएंगे और सामरिक शतरंज की बिसात पर चीन को दक्षिणपूर्व एशिया में मात दे सकेंगे?
(राहुल मिश्र मलाया विश्वविद्यालय के एशिया-यूरोप संस्थान में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के वरिष्ठ प्राध्यापक हैं)
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