जंगल बचाने वालों को कौन बचाए?
१० सितम्बर २०२०"मुझे मेरे पिता के जाने के बाद वन विभाग ने नौकरी दी. अभी मुझे करीब 21,000 रुपये तनख्वाह मिलती है. इस पैसे पर मेरे साथ मेरी मां और दो भाई निर्भर हैं. मुझे लगता है कि वन विभाग के फॉरेस्ट गार्ड्स को और अधिक सुविधाएं मिलनी चाहिए.” यह कहना है उत्तराखंड के फॉरेस्ट गार्ड दीपक का, जिसके पिता बहादुर सिंह चौहान की पिछले साल 22 जून को लकड़ी तस्करों ने हत्या कर दी थी.
बहादुर सिंह फॉरेस्ट वॉचर थे जो वन विभाग की रक्षा पंक्ति का सबसे पहला सिपाही होता है. अमूमन फॉरेस्ट वॉचर ठेके पर रखे जाते हैं और उन्हें मामूली मासिक पगार के अलावा न तो कुछ और सुविधा दी जाती है और न किसी सामाजिक सुरक्षा योजना का फायदा. पिता की मौत के बाद दीपक को फॉरेस्ट गार्ड के रूप में नौकरी तो जरूर मिली लेकिन भारत में उनके और उनके जैसे लाखों वन रक्षकों के लिये परिस्थितियां आसान नहीं हैं.
भारत में वन-रक्षकों पर खतरा सबसे अधिक
जंगलों की सुरक्षा कर रहे कर्मचारियों को वैसे तो पूरी दुनिया में जान का जोखिम उठाना पड़ता है लेकिन भारत उन देशों में है जहां वन रक्षकों की दिक्कतें और उन पर खतरा सबसे अधिक है. यहां फील्ड स्टाफ अपने परिवार से दूर दुर्गम स्थानों पर बिना किसी आधुनिक सुविधा के काम करता है. अक्सर टिम्बर और माइनिंग माफिया के अलावा घुसपैठियों और शिकारियों के संगठित समूहों से उनका सामना होता है. इसके अलावा जंगली जानवरों से जंगल और आसपास के इलाकों में रहे लोगों की हिफाजत करने में भी इन वन रक्षकों का रोल है.
महत्वपूर्ण है कि इस काम में फील्ड स्टाफ के पास कोई आधुनिक हथियार या फायर आर्म्स (बंदूक वगैरह) नहीं होते. अंतर्राष्ट्रीय रेंजर्स फेडरेशन के मुताबिक भारत दुनिया में "रेंजरों के लिए सबसे खतरनाक देश” है. साल 2012 से 2017 के बीच पूरी दुनिया में कुल 526 वन रक्षकों की जान गई. इनमें से 162 भारत के थे. ये आंकड़ा कुल मरने वालों का 31 प्रतिशत है. इससे पता चलता है कि भारत में हर महीने कम से कम दो या तीन वन रक्षकों की जान जा रही है. भारत में वन रक्षकों की मौत का यह आंकड़ा कितना भयावह है वह इस बात से भी पता चलता है कि इन पांच सालों में दूसरी सबसे अधिक 51 मौतें कांगो में हुई जो भारत में हुई मौतों के एक तिहाई से भी कम है.
वन रक्षकों की दुर्दशा का हल
"हर साल कई बीट वॉचर, फॉरेस्ट गार्ड और रेंजर या तो मारे जाते हैं या अपनी ड्यूटी करते हुए वह अपाहिज हो जाते हैं. फील्ड में इन्हें दुर्गम इलाकों में कई मील पैदल चलना पड़ता है. इनके पास न तो खाने-पीने, ठहरने और बिजली की कोई सुविधा होती है और न ही प्राथमिक उपचार का इंतजाम. इसके अलावा तस्करों, खनन माफियाओं और जंगली जानवरों से बचाव के लिए इनके पास हथियार भी नहीं होते. काम के कोई घंटे निर्धारित नहीं हैं और इनसे हर वक्त उपलब्ध रहने की उम्मीद की जाती है.” भारतीय वन सेवा के एक वरिष्ठ अधिकारी ने डीडब्ल्यू को बताया.
वन क्षेत्र के मामलों में रिसर्च करने वाली आई फॉरेस्ट के निदेशक चंद्र भूषण कहते हैं कि वन विभाग देश का अकेला महकमा है कि जिसके पास देश के करीब एक चौथाई क्षेत्रफल पर असीमित अधिकार हैं, फिर भी फॉरेस्ट गार्ड्स की दुर्दशा एक कड़वी सच्चाई है और इससे इनकार नहीं किया जा सकता. चंद्र भूषण के मुताबिक, "ऐसी कानूनी ताकत शायद ही देश में किसी और विभाग के पास हो जैसी वन विभाग के पास हैं लेकिन इसके बावजूद यह एक दुखद विरोधाभास है कि जंगल में काम कर रहे वन रक्षकों को कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है. ये समस्याएं संसाधनों और सामाजिक सुरक्षा दोनों का न होना है. अधिकतर स्टाफ ठेके पर है. फॉरेस्ट के अधिकारियों और गार्ड्स के काम करने की परिस्थितियों में ही बड़ा अंतर है. इस हिसाब से वन शहीद दिवस मनाते समय इस खाई और विरोधाभास को पाटने की कोशिश होनी चाहिए.”
वन अधिकारियों ने पर्यावरण मंत्री को लिखा पत्र
हर साल 11 सितंबर को पूरे देश का फॉरेस्ट डिपार्टमेंट राष्ट्रीय वन शहीद दिवस मनाता है. इस दिन उन लोगों को याद किया जाता है जिनकी ड्यूटी करते हुए जान चली गई. भारतीय वन सेवा अधिकारी संगठन (आईएफएस ऑफिसर्स एसोसिएशन) ने वन शहीद दिवस से पहले पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर से मिलकर उन्हें एक पत्र सौंपा और याद दिलाया कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 15 अगस्त के भाषण में जंगलों और जैव विविधता को बचाने की जो बात कही है वह फॉरेस्ट फील्ड स्टाफ को सुविधाएं और सामाजिक सुरक्षा मुहैया कराए बिना संभव नहीं है.
आज पूरे देश में करीब 50,000 स्थाई वन रक्षक (फॉरेस्ट गार्ड और रेंजरों समेत वन रक्षा में लगे कर्मचारी) हैं जिनके लिए अधिकारियों ने सरकार से कुछ मांगें रखी हैं उनमें कार्यस्थल पर आकस्मिक मृत्यु हो जाने पर परिवार को 25 लाख रुपये मुआवजा देने की पहली मांग है. मारे गए स्टाफ का पूरा वेतन तब तक हर महीने उसके परिवार को दिया जाता रहे जब तक वह कर्मचारी जीवित रहने पर नौकरी करता. मारे गए कर्मचारी के बच्चों को उसी तरह प्रधानमंत्री छात्रवृत्ति योजना का फायदा मिले जैसे सेना के जवानों के बच्चों को मिलता है. इसके अलावा ड्यूटी पर मारे गए या अनुकरणीय साहस दिखाने वाले वन रक्षकों को उसी तर्ज पर वीरता पदक मिले जैसे पुलिस कर्मियों को दिया जाता है.
सरकार ले सकती है इतिहास से सबक
वैसे इतिहास में यह मिसाल मिलती है वन कर्मियों के लिये आजादी से पहले एक वेलफेयर फंड स्थापित किया गया. यह कोष केनिंग बैनिवोलेंट फंड के नाम से जाना जाता है और इसे स्थापित करने का श्रेय एक अंग्रेज फॉरेस्ट अफसर एफ केनिंग को जाता है जो उस वक्त यूनाइटेड प्रोविंस में चीफ फॉरेस्ट कंजरवेटर थे. यह फंड नौ दशक पहले 1932 में बना जब भारत में अंग्रेजी शासन था. रिकॉर्ड बताते हैं कि इसका मकसद नौकरी करते हुए मारे जाने वाले वन कर्मियों की विधवाओं और अनाथ बच्चों को राहत देना था. ठेके पर काम करने वाले वन कर्मी जिन्हें मजदूरी के अलावा कुछ नहीं मिलता था.
केनिंग कोष एक बीमा योजना की तरह था और इसमें लाभार्थी को साल में एक दिन की तनख्वाह प्रीमियम के तौर पर देनी होती. इसके अलावा फॉरेस्ट के विश्राम गृहों का इस्तेमाल करने वाले शिकारी और दूसरे लोग स्वेच्छा से इस फंड में डोनेट कर सकते थे लेकिन आज कोई ऐसा फंड या सुविधा इन वन कर्मियों के लिए नहीं है. अच्छी तरह काम करने वाला केनिंग फंड कब बंद हो गया, इसके बारे में भी कोई ठोस जानकारी नहीं है. लेकिन इस तरह के फंड की जरूरत आज भी महसूस की जा रही है क्योंकि काम का ढांचा लगभग वैसा ही है जबकि वनकर्मियों के लिए खतरे बढ़ गए हैं.
आदिवासियों और समुदायों के साथ रिश्ते महत्वपूर्ण
वन अधिकारियों ने मंत्री प्रकाश जावड़ेकर से यह मांग भी की है कि फॉरेस्ट गार्ड्स और रेंजरों को फायर आर्म्स यानी बंदूक और दूसरे सुरक्षा उपकरण दिए जाएं और उन्हें भारतीय दंड संहिता (सीआरपीसी) के तहत संरक्षण भी दिया जाए. वन अधिकारी कहते हैं कि इससे वन रक्षकों में सुरक्षा का भाव बढ़ेगा और वह अधिक आत्मविश्वास से ड्यूटी कर पाएंगे. वन सुरक्षा और सामुदायिक अधिकारों के लिये काम कर रहे जानकार कहते हैं कि फॉरेस्ट गार्ड्स और रेंजरों के लिए जो मांगें की गईं हैं वह सभी उचित हैं लेकिन वन रक्षकों के हालात तभी सुधर सकते हैं जब जंगल में रह रहे आदिवासियों और वनवासियों (फॉरेस्ट ड्वेलर्स) के साथ उनके रिश्ते मजबूत हों. इन लोगों का वन रक्षकों के साथ अक्सर टकराव होता रहता है. जानकार इस ऐतिहासिक तथ्य की याद दिलाते हैं कि आदिवासियों और वनवासी गरीबों के शोषण और दमन में वन विभाग का भी हाथ रहा है, इसलिए दशकों से चले आ रहे अविश्वास को खत्म करना भी जरूरी है.
चंद्र भूषण कहते हैं, "जहां फॉरेस्ट गार्ड को हथियार और कानूनी ताकत चाहिए वहीं यह समझना होगा कि वन अधिकारों को अब तक ठीक से लागू नहीं किया गया है और यह बड़ी समस्या है. आपको समझना होगा कि जंगलों में सिर्फ जंगली जानवर नहीं बल्कि कम से कम 10 करोड़ लोग भी यहीं रहते हैं और इस जमीन पर वन विभाग का ही आदेश चलता है. इसलिए यह समझना जरूरी है कि जहां जंगल में तस्करी जैसी गैरकानूनी गतिविधियां है वहीं वनवासियों के अधिकार भी हैं तो अगर उन्हें फायर आर्म्स वगैरह दिए जा रहे हैं, जिसकी उन्हें निहायत जरूरत है वहीं उन्हें जंगल में रहने वालों के अधिकारों के प्रति भी संवेदनशीन करना होगा. इन दोनों बातों का संतुलन ही वन सुरक्षा और वन रक्षकों के काम को सुनिश्चित करेगा.”
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