जर्मनी में भी चिराग तले अंधेरा
१६ दिसम्बर २०१६जर्मन सरकार की गरीबी और संपत्ति से जुड़ी छठी रिपोर्ट के मुताबिक जर्मनी में करोड़पतियों की संख्या बढ़ी है. 2009 में 12,424 लोग करोड़पति थे, अब इनकी संख्या 16,495 है. स्थायी नौकरी वालों की तनख्वाह भी बीते चार साल में 10 फीसदी बढ़ी है. खुद का कारोबार करने वाले लोगों के मुनाफे में भी हल्की वृद्धि हुई है.
लेकिन अच्छी खबर पर बुरी खबर भारी पड़ रही है. और वह ये है कि देश की 6.1 फीसदी आबादी यानि 41.7 लाख लोग बुरी तरह कर्ज के नीचे दबे हुए हैं, वे बहुत ही कम मेहनताना पा रहे हैं. आमदनी का राष्ट्रीय अनुपात भी उन्हें चिढ़ा रहा है. 2008 में जर्मनी में 2,23,000 लोग बेघर थे. 2014 में बेघरों की संख्या बढ़कर 3,35,000 हो गई. सरकार खुद मान रही है कि देश की 5.6 फीसदी आबादी गरीबी की चपेट में है.
जर्मन अखबार बिल्ड से बात करते हुए श्रम मामलों की मंत्री आंद्रेया नालेस ने कहा, "केंद्र स्थिर है, लेकिन बारीकी से देखा जाए तो समाज थोड़ा टूट सा रहा है." तो क्या गरीबों की संख्या बढ़ने से अमीरों को फायदा हो रहा है? डॉयचे वेले ने इस बारे में दो विशेषज्ञों से बातचीत की.
क्रिस्टॉफ बुटरवेगे कोलोन यूनिवर्सिटी में पॉलिटिकल साइंस के प्रोफेसर हैं. वह वामपंथी पार्टी डी लिंके की ओर से जर्मन राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार भी हैं. चुनाव फरवरी 2017 में होना है. बुटरवेगे सरकार पर गरीबों की अनदेखी का आरोप लगाते हैं. उनके मुताबिक न्यूनतम मजदूरी को तुरंत बढ़ाकर 10 यूरो प्रति घंटा किया जाना चाहिए, "रिपोर्ट लगातार मोटी होती जा रही है लेकिन समस्या हल करने के लिए कुछ नहीं किया जा रहा है. आंकड़ों के साथ अगर एक्शन भी हो तो अच्छा रहेगा."
सरकार की आलोचना करते हुए वह कहते हैं, "अगर आप रिपोर्ट को देखें, उदाहरण के लिए उसमें बेघर लोगों का 2014 का आंकड़ा, यह सामाजिक अधिकारों की वकालत करने वालों ने जुटाया है. ऐसा डाटा जुटाने के लिए सरकार के पास अपना स्टैटटिक्स विभाग तक नहीं है. उनके पास यह जानकारी जरूर है कि जर्मनी में पहाड़ी बकरियां कितनी हैं, लेकिन सिर्फ नार्थ राइन-वेस्टफेलिया राज्य ही बेघर लोगों के बारे में आंकड़े जुटाता है."
मार्कुस ग्राब्का बर्लिन में जर्मन इंस्टीट्यूट फॉर इकोनोमिक रिसर्च में गरीबी विशेषज्ञ हैं. वह गरीबी वाली सरकारी रिपोर्ट के पांच संस्करणों के लिए काम कर चुके हैं. ग्राब्का भी जर्मनी में बढ़ती गरीबी से हैरान हैं. उन्हें लगता है कि बुजुर्गों की बढ़ती संख्या की वजह से भी ऐसा हो रहा है, खास तौर पर पूर्वी जर्मनी में.
बर्लिन में काम करने वाले गरीबी विशेषज्ञ ग्राब्का को लगता है कि सरकार सही दिशा में जा रही है, "क्या समृद्धि को काटना ठीक होगा या फिर हमें समृद्धि का आकार बढ़ाना चाहिए?" लेकिन वह यह भी मान रहे हैं कि मध्य वर्ग का आकार और उसकी आय बढ़ाने के तरीके खोजने का समय आ चुका है.
टैक्स सिस्टम में सुधार
जर्मनी में अर्थव्यस्था मजबूत है लेकिन हर किसी को इसका लाभ नहीं मिल रहा है. इस मुद्दे पर दोनों विशेषज्ञ बुटरवागे और ग्राब्का सहमत हैं. दोनों मानते हैं कि सरकारी नीतियों की वजह से असमानता बढ़ रही है. व्यावसायिक विरासत पर लगने वाला टैक्स न होने के कारण भी अमीरों को फायदा हो रहा है. बुटरवेगे कहते हैं, "आपको पूरी कंपनी, एक पाई चुकाये बिना भी वसीयत में मिल सकती है. लेकिन अगर आपको विरासत में तीन घर मिलें तो बहुत ज्यादा टैक्स देना होगा." ग्राब्का एक दूसरी चूक की ओर ध्यान दिलाते हैं, "पैसे को सही जगह तक पहुंचाना समस्या है."
इन समस्याओं से जर्मनी ही नहीं बल्कि दुनिया भर के ज्यादातर देश गुजर रहे हैं. दावोस में हर साल होने वाले कारोबारियों के शिखर सम्मेलन में भी बार बार यह बात साफ हो रही है कि दुनिया भर में अमीरों और गरीबों के बीच की खाई चौड़ी होती जा रही है. जनवरी 2016 में आई ऑक्सफैम की रिपोर्ट के मुताबिक एक फीसदी अमीरों के पास पूरी दुनिया की 99 फीसदी आबादी के बराबर संपत्ति है. लेकिन इस मुश्किल को हल करने के लिए न तो सरकारें मिलकर कोई पहल कर रही हैं, न ही कारोबारी जगत.
जेफरसन चेज/ओंकार सिंह जनौटी