जलवायु परिवर्तन पर भारत की पहली रिपोर्ट बड़े खतरे की घंटी
१५ जून २०२०पहले ही सूखे, बाढ़ और चक्रवाती तूफानों की मार झेल रहे भारत के लिए इस सदी के अंत तक ग्लोबल वॉर्मिंग बड़ा संकट खड़ा कर सकती है. जलवायु परिवर्तन पर भारत सरकार की अब तक की पहली रिपोर्ट कहती है कि सदी के अंत तक (2100 तक) भारत के औसत तापमान में 4.4 डिग्री की बढ़ोतरी हो जाएगी. इसका सीधा असर लू के थपेड़ों (हीट वेव्स) और चक्रवाती तूफानों की संख्या बढ़ने के साथ समुद्र के जल स्तर के उफान के रूप में दिखाई देगा.
पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय की यह रिपोर्ट सरकार इसी हफ्ते जारी करेगी. इसकी एक कॉपी डीडब्ल्यू के पास है. "असेसमेंट ऑफ क्लाइमेट चेंज ओवर द इंडियन रीजन” नाम की इस रिपोर्ट के मुताबिक अगर जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए बड़े कदम नहीं उठाए गए तो हीट वेव्स में 3 से 4 गुना की बढ़ोतरी दिखाई देगी और समुद्र का जलस्तर 30 सेंटीमीटर तक उठ सकता है.
"पिछले 30 सालों (1986-2015) में सबसे गर्म दिन और सबसे ठंडी रात के तापमान में वृद्धि क्रमश: 0.63 डिग्री और 0.4 डिग्री की हुई है. पिछले कुछ समय (1976-2005) की तुलना में इक्कीसवीं सदी के अंत तक यह तापमान वृद्धि 4.7 डिग्री और 5.5 डिग्री तक होगी.” इस रिपोर्ट में कहा गया है. रिपोर्ट यह भी कहती है कि गर्म दिनों और गर्म रातों की फ्रीक्वेंसी 55 से 70 प्रतिशत तक बढ़ जाएगी. भारत के लिए यह अनुमान कतई अच्छी खबर नहीं है क्योंकि वह उन देशों में है जहां जलवायु परिवर्तन की मार सबसे अधिक पड़ेगी.
वर्षा के पैटर्न में बदलाव
रिपोर्ट कहती है कि 1951 से 2015 के बीच जून से सितंबर के बीच होने वाले मॉनसून में 6 प्रतिशत की कमी हुई है जिसका असर गंगा के मैदानी इलाकों और पश्चिमी घाट पर दिखा है. रिपोर्ट कहती है कि 1951-1980 के मुकाबले 1981-2011 के बीच सूखे की घटनाओं में 27 प्रतिशत की वृद्धि दिखी है. मध्य भारत के अतिवृष्टि की घटनाओं में 1950 के बाद से अब तक 75 फीसदी बढ़ोतरी हुई है. अनुमान है कि सदी के अंत तक प्रतिदिन होने वाली अतिवृष्टि में ‘अच्छी-खासी' बढ़ोतरी होगी.
इस सदी के पहले दो दशकों (2000-2018) में बहुत शक्तिशाली चक्रवाती तूफानों की संख्या बढ़ी है. यह रिपोर्ट कहती है कि मौसमी कारकों की वजह से उत्तरी हिन्द महासागर में अब और अधिक शक्तिशाली चक्रवात तटों से टकराएंगे. ग्लोबल वॉर्मिंग से समुद्र का सतह लगातार उठ रहा है. रिपोर्ट में कहा गया है कि उत्तरी हिन्द महासागर में जहां 1874 से 2004 के बीच 1.06 से 1.75 मिलीमीटर की बढ़ोतरी हो रही थी वहीं पिछले 25 सालों (1993-2017) में समुद्री जलस्तर में 3.3 मिलीमीटर प्रति वर्ष वृद्धि देखी जा रही है.
सूखे की घटनाएं बढ़ेंगी
रिपोर्ट में कहा गया है कि घटते मॉनसून के कारण सूखे की घटनाएं अधिक हो रही हैं और इससे प्रभावित क्षेत्रफल लगातार बढ़ रहा है. 1951 से 2016 के बीच हर दशक में देश के अलग अलग हिस्सों में सूखे की औसतन 2 घटनाएं हो रही हैं और इसकी जद में आने वाला रकबा 1.3% की दर से बढ़ रहा है. मॉनसून के बदलते मिजाज को देखते हुए 21वीं सदी के अंत तक हालात और खराब होंगे.
रिपोर्ट कहती है कि सदी के अंत तक जहां पूरी दुनिया में समुद्री जलस्तर में औसत वृद्धि 150 मिलीमीटर होगी वहीं भारत में यह 300 मिलीमीटर (करीब एक फुट) हो जाएगी. हालांकि रिपोर्ट में सरकार ने शहरों के हिसाब से कोई आकलन नहीं दिया है लेकिन इस दर से समंदर उठता गया तो मुंबई, कोलकाता और त्रिवेंद्रम जैसे शहरों के वजूद के लिए खतरा है जिनकी तट रेखा पर घनी आबादी रहती है. महत्वपूर्ण है कि भारत तीन ओर से समुद्र से घिरा है और इसकी 7,500 किलोमीटर लम्बी तटरेखा पर कम से कम 25 करोड़ लोगों की रोजी रोटी भी जुड़ी है.
जानकारों की चेतावनी
जलवायु परिवर्तन के हिसाब से भारत बहुत संवेदनशील देश है. दुनिया भर के जानकार इसे लेकर चेतावनी देते रहे हैं. साल 2017 में हुए एक अध्ययन में भारत जलवायु परिवर्तन के हिसाब से दुनिया का छठा सबसे अधिक संकटग्रस्त देश था. साल 2018 में एचएसबीसी ने दुनिया की 67 अर्थव्यवस्थाओं पर जलवायु परिवर्तन के खतरे का आकलन किया जिसमें कहा गया कि क्लाइमेट चेंज की वजह से भारत को सबसे अधिक खतरा है.
भारत की 50% से अधिक कृषि वर्षा पर निर्भर है और यहां हिमालयी क्षेत्र में हजारों छोटे-बड़े ग्लेशियर हैं और पूरे देश में कई एग्रो-क्लाइमेटिक जोन हैं. मौसम की अनिश्चितता और प्राकृतिक आपदाओं से भारत को जान माल का बड़ा नुकसान होगा. विश्व बैंक भी कह चुका है कि ग्लोबल वॉर्मिंग के कारण भारत को कई लाख करोड़ डॉलर की क्षति हो सकती है.
हालात सुधारने के लिए उन मानवजनित गतिविधियों पर नियंत्रण करना होगा जिनके कारण ग्लोबल वॉर्मिंग बढ़ रही है. रिपोर्ट में भी इसे लेकर चेतावनी दी गई है और कहा गया है कि क्लाइमेट के बेहतर पूर्वानुमान की जरूरत होगी. रिपोर्ट में कहा गया है, "इक्कीसवीं सदी में मानव-जनित क्लाइमेट चेंज के बढ़ते रहने के आसार हैं. भविष्य में सही-सही क्लाइमेट प्रोजेक्शन के लिए – खासतौर से क्षेत्रीय पूर्वानुमान के लिए –एक रणनीतिक कार्यशैली विकसित करने की जरूरत है ताकि अर्थ सिस्टम की गतिविधियों को बेहतर समझा जा सके और निरीक्षण और क्लाइमेट मॉडल को बेहतर करें.”
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