जैव विविधता के अक्षय स्रोत हिमालय पर संकट
४ जून २०२०हिमालय जैव विविधता का खजाना है. यहां कोई 5.5 लाख वर्ग किलोमीटर से अधिक क्षेत्रफल में फैले इस इकोसिस्टम में जीव-जंतुओं और वनस्पतियों की हज़ारों प्रजातियां हैं. जूलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया द्वारा 2018 में प्रकाशित शोध कहता है कि हिमालय में जंतुओं की 30,377 प्रजातियां और उप-प्रजातियां हैं. दूसरी ओर हिमालय में वनस्पतियों की कुल कितनी प्रजातियां हैं इसका बिल्कुल सटीक आंकड़ा उपलब्ध नहीं है. हालांकि बॉटिनिकल सर्वे ऑफ इंडिया के मुताबिक पूरे देश में 49,000 से अधिक वनस्पति प्रजातियां और उप प्रजातियां हैं.
वाइल्ड लाइफ इंस्टीच्यूट ऑफ इंडिया (डब्लूआईआई) के लिए की गई रिसर्च में सुरेश कुमार राणा और गोपाल सिंह रावत ने हिमालय में पायी जाने वाली कुल 10,503 प्रजातियों की सूची तैयार की है. "हिमालय धरती पर सबसे ऊंचा और विशाल माउंटेन सिस्टम है जो कि 2,400 किलोमीटर लम्बा और 300 किलोमीटर से अधिक चौड़ा है. हमारी सूची में शामिल 10,503 वनस्पति प्रजातियां असल में सीड प्लांट की श्रेणी में आती हैं. अन्य प्रजातियों की गणना अभी की ही जा रही है.” उत्तराखंड के जी बी पंत संस्थान के वनस्पति विज्ञानी सुरेश कुमार राणा ने डीडब्ल्यू को बताया.
मध्य हिमालय में विशेष प्रचुरता
जंतुओं और वनस्पतियों की अनगिनत प्रजातियां ही हिमालय को जैव विविधता का अनमोल भंडार बनाती हैं और यहां मौजूद हजारों छोटे बड़े ग्लेशियर, बहुमूल्य जंगल, नदियां और झरने इसके लिए उपयुक्त जमीन तैयार करते हैं. हिमालय को कई जोन में बांटा गया है जिनमें मध्य हिमालयी क्षेत्र विशेष रूप से इस बायोडायवर्सिटी का घर है. मंजु सुंदरियाल और भावतोष शर्मा की रिसर्च कहती है कि मध्य हिमालय में बसे उत्तराखंड राज्य में ही वनस्पतियों की 7000 और जंतुओं की 500 महत्वपूर्ण प्रजातियां मौजूद हैं.
उत्तराखंड बायोडायवर्सिटी बोर्ड की विशेषज्ञ कमेटी के सदस्य गजेन्द्र सिंह रावत बताते हैं, "उत्तराखंड की बायोडायवर्सिटी को लेकर सबसे अच्छी बात यह है कि हमारे पास एक विशाल और समृद्ध इकोसिस्टम मौजूद है. इस राज्य में तराई से भाभर और फिर मध्य हिमालय से लेकर हिमाद्रि और ट्रांस हिमालय तक 5 इको क्लाइमेटिक जोन हैं. हमने निचले इलाकों में राजा जी नेशनल पार्क और कॉर्बेट टाइगर रिजर्व जैसे संरक्षित क्षेत्र विकसित किए हैं जो एक मिसाल है. मध्य हिमालय में जरूर घनी बसावट के कारण कुछ नुकसान हुआ है लेकिन ऊपरी हिस्सों में प्राकृतिक संपदा फिलहाल सुरक्षित लगती है.”
लेकिन आज हिमालयी क्षेत्र में जैव विविधता को कई खतरे भी हैं और इसकी कई वजहें हैं जिनमें जलवायु परिवर्तन से लेकर जंगलों का कटना, वहां बार-बार लगने वाली अनियंत्रित आग, जलधाराओं का सूखना, खराब वन प्रबंधन और लोगों में जागरूकता की कमी शामिल है. इस वजह से कई प्रजातियों के सामने अस्तित्व का संकट है. ऐसी ही एक वनस्पति प्रजाति है आर्किड जिसे बचाने के लिए उत्तराखंड में पिछले कुछ सालों से कोशिश हो रही है.
जैव विविधता का संकेतक है आर्किड
आर्किड पादप संसार की सबसे प्राचीन वनस्पतियों में है जो अपने खूबसरत फूलों और पर्यावरण में अनमोल योगदान के लिए जानी जाती है. पूरी दुनिया में इसकी पच्चीस हजार से अधिक प्रजातियां हैं और हिमालय में यह 700 मीटर से करीब 3000 मीटर तक की ऊंचाई पर पाए जाते हैं. उत्तराखंड राज्य में आर्किड की लगभग 250 प्रजातियां पहचानी गई हैं लेकिन ज्यादातर अपना वजूद खोने की कगार पर हैं. जीव विज्ञानियों का कहना है कि कम से कम 5 या 6 प्रजातियां तो विलुप्त होने की कगार पर हैं.
खुद जमीन या फिर बांज या तून जैसे पेड़ों पर उगने वाला आर्किड कई वनस्पतियों में परागण को संभव या सुगम बनाता है. च्यवनप्राश जैसे पौष्टिक और लोकप्रिय आयुर्वेदिक उत्पाद में आर्किड की कम से कम 4 प्रजातियों का इस्तेमाल होता है जो उच्च हिमालयी क्षेत्रों में पाई जाती है. पिछले दो साल से उत्तराखंड वन विभाग के शोधकर्ताओं ने कुमाऊं की गोरी घाटी और गढ़वाल मंडल के इलाकों में आर्किड की करीब 100 से अधिक प्रजातियों को संरक्षित किया है.
"आर्किड के बारे में स्थानीय लोगों को जानकारी कम है. इसलिए वह आर्किड के होस्ट प्लांट जैसे बांज या तून की पत्तियां काटते वक्त अनजाने में इन्हें भी नष्ट कर देते थे. इसलिए गोरी गंगा घाटी में हमने करीब 10 एकड़ जमीन पर इन्हें संरक्षित किया. आज दो साल के भीतर इस छोटे से इलाके में ही हमने आर्किड की 60 से अधिक प्रजातियों के संरक्षित किया है.” वन विभाग के रिसर्च फेलो योगेश त्रिपाठी कहते हैं जो गोरी घाटी में लाइकेन और आर्किड के संरक्षण में लगे हैं.
पारिस्थितिकी तंत्र के जानकारों का मानना है कि अगर कहीं बहुत संख्या में आर्किड हैं तो उसका मतलब है कि वहां पर इकोसिस्टम अपने स्वस्थ और संतुलित रूप में बचा हुआ है. "एनिमल किंगडम में जो स्थान टाइगर या लेपर्ड का है, वही जगह पादप संसार में आर्किड की है. आर्किड न केवल अंकुरण के लिए फंजाइ के साथ संयोजन करते हैं बल्कि परागण के लिए हजारों प्रजातियों के साथ सहयोग करते हैं. क्योंकि उनका निषेचन ही कीट पतंगों द्वारा होता है तो अगर कहीं पर आर्किड है तो उस क्षेत्र में बहुत दुर्लभ कीट-पतंगे होंगे. पेड़ पौधों के साथ इसका बड़ा ही सूक्ष्म रिश्ता है और अगर पर्यावरण में जरा भी बदलाव आता है तो वहां से सबसे पहले आर्किड ही खत्म होते हैं. इस लिहाज से यह पर्यावरण की सेहत का सबसे संवेदनशील इंडिकेटर भी है.” डॉ. रावत कहते हैं.
आर्थिक महत्व और स्थानीय जुड़ाव
जानकार मानते हैं कि आर्किड और दूसरी दुर्लभ प्रजातियों को बचाने के लिए इन वनस्पतियों के आर्थिक महत्व को समझना और स्थानीय लोगों के लिए उन्हें उपयोगी बनाना जरूरी है. उत्तराखंड सरकार अभी दावा कर रही है कि वह आर्किड को इको टूरिज्म का एक जरिया बनाना चाहती है ताकि राज्य के लोगों को इससे आमदनी हो और संवेदनशील इलाकों में पाए जाने वाली ऐसी वनस्पतियों के प्रति जागरूकता बढ़े.
गढ़वाल विश्वविद्यालय के कुलपति और वनस्पति विज्ञानी एसपी सिंह के मुताबिक जैव विविधता ही हमें बताती है कि जीवन कैसे बढ़ा और जैविक विकास कैसे हुआ. इसलिए किसी जगह पर जंतुओं और प्रजातियों की प्रचुर उपलब्धता पर्यावरण के लिए स्वस्थ संकेत हैं. सिंह कहते हैं कि दुर्लभ वनस्पतियों के औषधीय महत्व की वजह से भी जैव विविधता को संरक्षित रखना जरूरी है. उनके मुताबिक कोरोना जैसी महामारी के वक्त कई प्रजातियों के औषधीय महत्व को समझने की कोशिश हो रही है जिससे इस बीमारी की दवा तैयार की जा सके. इससे पहले कई दूसरी बीमारियों के इलाज में हिमालयी बूटियों का इस्तेमाल किया जाता रहा है.
"बहुत सी प्रजातियां हैं जिनका महत्व अभी हमें नहीं मालूम या हम नहीं समझ पा रहे हैं लेकिन कल हो सकता है कि वह प्रजाति अपने गुणों के कारण बहुत अहम हो जाए. इस लिहाज से भी जैव विविधता को बचाने की बहुत जरूरत है. इसके अलावा वनस्पतियों का व्यावसायिक महत्व दुनिया भर में महसूस हो रहा है. किसी पेय द्रव्य में एक बूटी की सुगंध आ जाने से उसकी कीमत 10 गुना बढ़ जाती है. हमें इस महत्व को जनहित में समझना होगा,” एसपी सिंह कहते हैं.
असल में यही सोच खनन और निर्माण जैसे कार्यों के सामने पर्यावरण को बचाने के लिए एक मजबूत विकल्प भी खड़ा कर सकती है. इसके लिए संसाधनों के सही वितरण के साथ रोजगार और व्यवसाय को पर्यावरण से जोड़ने की जरूरत है ताकि लोग खुद ही इसे बचाने आगे आएं. गजेंद्र सिंह रावत कहते हैं, "उत्तराखंड में जैव विविधता को लेकर देश के भीतर और बाहर यह सबका मानना है कि इसके लिए लोगों की भागीदारी बहुत जरूरी है. इसमें संसाधनों का सस्टेनेबल इस्तेमाल, जन भागीदारी, प्रबंधन और जागरूकता सभी कुछ चाहिए. हमारे नए कानून के हिसाब से सभी ग्राम पंचायत या वन पंचायतों में बायो डायवर्सिटी मैनेजमेंट कमेटियां बननी हैं और इसे बचाना उन्हीं के हाथ में होगा.”
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