टीवी मीडिया में 'हाथापाई' की नौबत क्यों आ रही है
२ अक्टूबर २०२०बॉलीवुड अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की संदिग्ध मौत ने कई लोगों को अपनी छवि चमकाने का मौका दिया है. चाहे वह पुलिस के आला अफसर हों, नेता हों, पत्रकार हों या फिर संपादक. सब अपने अपने हिसाब से शतरंज की बिसात पर चालें चल रहे हैं. हर चाल में फायदा खोजा जा रहा है. पिछले दिनों मुंबई से वीडियो बहुत ही तेजी से वायरल हुआ जिसमें पत्रकारों के बीच थप्पड़ चलते देखा गया.
दरअसल सुशांत सिंह की मौत के मामले की जांच जब ड्रग्स एंगल से की जाने लगी तो बॉलीवुड के बड़े-बड़े नाम सामने आने लगे और उन पर ड्रग्स लेने के आरोप लगे. सितारों की पेशी नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो के दफ्तरों में होने लगी और फिर उनकी कवरेज को लेकर चैनलों में "कोहराम" मच गया. टीवी संवाददाता लाइव के दौरान अपना स्थान अच्छा रखना चाहते हैं ताकि वह बेहतर तस्वीर अपने दर्शकों तक पहुंचा पाए और इसी क्रम में मुंबई में संवाददाताओं के बीच "थप्पड़ कांड" हो गया. हालांकि यह पत्रकारिता के नियमों के बिल्कुल खिलाफ है.
सच्चाई यह है कि "बाजार" का दबाव चैनलों पर बहुत ज्यादा है. दरअसल झगड़े की असली वजह तेजी से खबर पहुंचाने की तो थी ही साथ ही टेलीविजन रेटिंग प्वाइंट्स पाने की भी है. सबसे अधिक टीआरपी पाने वाले चैनल को ही कंपनियां विज्ञापन देना चाहती हैं. और इसी टीआरपी की रेस टीवी संवाददातओं के बीच लड़ाई की वजह बन गई है.
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कई साल पहले तक समाचार के लिए चुनिंदा चैनल हुआ करते थे और फिर एक कर सैकड़ों चैनल खुल गए. ऑपरेशनल कॉस्ट की मार नहीं झेल पाने वाले छोटे चैनलों को तो अपना कारोबार तक समेटना पड़ा. हालांकि बड़े समूहों के चैनलों के पास धन की कमी नहीं है और ऐसे में वे ऑपरेशनल कॉस्ट का बोझ किसी तरह से उठा लेते हैं. लेकिन समय गुजरने के साथ टीवी मीडिया भी सीमित होने लगा. मोबाइल पर जब सब कुछ उपलब्ध होने लगा तो उनके सामने बाजार में बने रहने की चुनौती आ गई. बाजार में बने रहने का मतलब है विज्ञापन मिलना या कहे जितने लोग आपको देखेंगे तो विज्ञापन मिलने का अवसर उतना रहेगा. इसी होड़ में टीवी चैनल लगे हुए हैं.
सामाजिक सरोकार की खबरें टीवी चैनलों से "गायब" हो गई हैं. 130 करोड़ की आबादी वाले देश में कोरोना वायरस तेजी से बड़ा संकट बनकर उभरा है, हजारों मौतें हुईं, लॉकडाउन के कारण कल-कारखाने बंद होने से लाखों लोगों को घरों पर बैठना पड़ा और अर्थव्यवस्था के सिकुड़ने से बाजार की हालत नाजुक बनी हुई है, बेरोजगारी और महंगाई अलग से लोगों के माथे पर बल ला रही है, हाल ही में किसानों से जुड़े तीन कानून को लेकर देश में बहुत बवाल मचा लेकिन तमाम गंभीर विषयों पर चर्चा ना के बराबर होती है. कुछ चैनलों को छोड़ दिया जाए तो अधिकतर चैनल बस एक ही विषय पर पूरा दिन "खेलते" हैं. तर्क यह दिया जाता है कि लोग यही देखना चाह रहे हैं हालांकि अब तो सोशल मीडिया के इस जमाने में लोग अपनी बात खुल रख रहे हैं और इस तरह टीवी पत्रकारिता की आलोचना से भी पीछे नहीं हट रहे हैं.
टीवी चैनल भी एक दूसरे को नीचा दिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं. एक चैनल अपने प्रतिद्वंद्वी को "अफवाह" फैलाने वाला बता रहा है तो वहीं प्रतिद्वंद्वी चैनल दूसरे चैनल पर "एकतरफा" खबर चलाने का आरोप लगा रहा है. आप कह सकते हैं कि भारतीय टीवी मीडिया इस वक्त सबसे बुरे दौर से गुजर रहा है. पत्रकार सड़क पर लड़ रहे हैं, कोई किराए का बाउंसर लेकर चल रहा है. कॉपी, किताब और कलम की जगह पत्रकारिता में "हाथापाई" ने ली है. पत्रकारिता को कमजोर करने वाले इन कामों से खुद पत्रकारों और मीडिया हाउस को बचना होगा और असल मुद्दे पर देश और जनता का ध्यान आकर्षित करना वक्त का तकाजा है.
एक जमाना था जब समाचार पाने के लिए हमें और आपको रेडियो, टीवी और अखबार के सहारे बैठना पड़ता था लेकिन अब एक क्लिक पर दुनिया भर की खबरें और वीडियो हमारी पहुंच में हैं. दर्शकों और पाठकों को कैसी सामग्री पेश की जा रही है एक बार संपादकों को जरूर गंभीरता से विचार करना चाहिए. चैनल की भलाई के साथ साथ समाज की भलाई के बारे में भी चैनलों को जरूर सोचना चाहिए. पत्रकार और मीडिया की एकता से सामाजिक विषयों की ओर सबका ध्यान आकर्षित किया जा सकता है.
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