तो आपने पीएम का बर्थडे मनाया या राष्ट्रीय बेरोजगारी दिवस?
१८ सितम्बर २०२०अब से पहले मैंने राष्ट्रीय बेरोजगारी दिवस के बारे में तो नहीं सुना था. हां, 'इंटरनेशनल अनएम्प्लॉयमेंट डे' के बारे में जरूर सुना है. बात उस वक्त की है जब दुनिया महामंदी की चपेट में थी. पिछली सदी में ऐसी तंगी लोगों ने कभी नहीं देखी थी, जिसकी शुरुआत अमेरिका से हुई. हर तरफ हाहाकार था और बेरोजगारों की फौज लगातार बढ़ रही थी. इसी के खिलाफ 6 मार्च 1930 को अमेरिका के कई शहरों में लाखों लोग सड़कों पर उतरे और बेरोजगारी के खिलाफ बड़ा प्रदर्शन हुआ. न्यूयॉर्क सिटी और और डेट्रॉयट में जब पुलिस ने हजारों प्रदर्शनकारियों पर लाठी चार्ज किया तो दंगे भड़क उठे. इसके अलावा बॉस्टन, वॉशिंगटन, सैन फ्रांसिस्को और सिएटल समेत अमेरिका के कुल 30 शहरों में 'इंटरनेशनल अनएम्प्लॉयमेंट डे' के झंडे तले प्रदर्शन हुए. बर्लिन, वियना, लंदन और सिडनी में भी इस मौके पर बेरोजगार लोग सड़कों पर उतरे.
आज 90 साल बाद दुनिया इंसानी इतिहास की एक बड़ी महामारी के बीच आर्थिक मंदी के मुहाने पर भी खड़ी है. नौ लाख से ज्यादा मौतों के बाद भी हर कोई दहशत में जी रहा है. महीनों के लॉकडाउन के बाद विश्व अर्थव्यवस्था की कमर टूटी हुई है. कोरोना महामारी के कारण सबसे बड़ा धक्का भारत की अर्थव्यवस्था को लगा है. आंकड़े बताते हैं कि अप्रैल से अगस्त के बीच 2.1 करोड़ लोगों की नौकरियां गई हैं. होटल उद्योग और विमानन उद्योग हो या फिर मीडिया और मनोरंजन जगत या फिर कार उद्योग, सब जगह नौकरियां जा रही हैं. असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले लोगों का आंकड़ा तो हम शायद जान भी ना पाएं.
सोशल मीडिया पर हैशटेग राष्ट्रीय बेरोजगारी दिवस के साथ हुए लाखों ट्वीट्स को सत्ता पक्ष के लोग विपक्ष का हथकंडा कहकर खारिज कर सकते हैं. महामारी का हवाला देकर भी इस मोर्चे पर सरकार का बचाव आसानी से किया जा सकता है. लेकिन क्या इस मुद्दे पर इतनी आसानी से पीछा छुड़ाया जा सकता है?
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भारत में बेरोजगारी कई साल से बड़ी समस्या बन कर उभर रही है. 2017-18 में तो कोरोना महामारी का दूर दूर तक नामोनिशान नहीं था, लेकिन उस वक्त भी देश में बेरोजगारी की दर 6.1 प्रतिशत थी, जो बीते 45 साल सबसे ज्यादा थी. अलबत्ता उस वक्त शहरों में सामान्य रूप से आर्थिक गतिविधियां चल रही थीं, तो गांवों के मुकाबले वहां रोजगार के बेहतर अवसर थे. लेकिन कोरोना महामारी और लॉकडाउन के बाद तो सब कुछ ही बदल गया. भारत समेत दुनिया भर में शहर ठप्प हो गए. जिनके पास नौकरियां थीं, उनकी भी छिन गईं.
इसलिए बेरोजगारी के खिलाफ आवाज उठना स्वाभाविक है. हां, इस पर बहस हो सकती है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जन्मदिन पर इसे उठाने का क्या मकसद है. इस समस्या को उठाने के लिए प्रधानमंत्री के जन्मदिन के इस्तेमाल को निश्चित तौर पर राजनीतिक कहा जा सकता है. सरकार के समर्थकों की नजर में यह प्रधानमंत्री मोदी की छवि को धूमिल करने की कोशिश है, तो दूसरी तरफ शायद देश के बेरोजगारों को अपनी आवाज उठाने का इससे अच्छा दिन कोई और समझ में नहीं आया.
मोदी के जन्मदिन पर सरकार के कई मंत्रियों ने अखबारों में बड़े बड़े लेख लिखकर उनकी उपलब्धियों का जिक्र किया. बिल्कुल उन्हें अपनी उपलब्धियां गिनाने का हक है, लेकिन उन्हें इस आलोचना को स्वीकार करना होगा कि रोजगार के अवसर मुहैया कराने के मोर्चे पर सरकार से जितनी उम्मीद थी, उसका प्रदर्शन उससे बहुत पीछे है. हर साल दो करोड़ लोगों को रोजगार देने का प्रधानमंत्री का वादा तो अब बहुत पीछे छूट गया है. लेकिन वे जिस युवा शक्ति की बार बार बात करते हैं, उसका इस्तेमाल तभी हो सकेगा जब उनके हाथ में रोजगार हो.
बेरोजगारी के मुद्दे को उठाने के लिए जिस मौके को चुना गया, उससे राजनीति की बू आ सकती है. लेकिन यह मुद्दा पूरी तरह सामाजिक है, जिससे करोड़ों लोगों की जिंदगियां जुड़ी हैं. इसीलिए इतनी हताशा दिख रही है. इतना तय है कि कोरोना के बाद की अर्थव्यवस्था उससे पहले जैसी नहीं हो सकती. नई परिस्थिति में नया सोचने की जरूरत है और इसकी पहल सरकार को ही करनी होगी.
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