दुनिया के लिए चिंता का विषय हैं चीन के अंतरिक्ष कार्यक्रम
१९ मई २०२१पिछले 100 सालों में अंतरिक्ष अनुसंधान की दिशा में अमेरिका, रूस, फ्रांस, और भारत जैसे देशों ने अच्छी खासी प्रगति की है. अंतरिक्ष अनुसंधान के अगुआ दुनिया के इन देशों की तरह चीन भी इसी कोशिश में पिछले कई वर्षों से जुटा हुआ है. 2019 में चीन को एक बड़ी कामयाबी तब मिली जब वह चांद पर पहला मानव रहित रोवर भेजने में कामयाब हुआ और ऐसा करने वाला वह दुनिया का पहला देश बना.
अंतरिक्ष की कौतूहल से भरी खोज इस बीच दुनिया के कई देशों के बीच वर्चस्व की लड़ाई में बदलती जा रही है. धरती पर मानव विकास के लिए अंतरिक्ष का इस्तेमाल करने की कोशिशें धरती के बाहर बड़े देशों के बीच प्रतिस्पर्धा में बदल गई है. अंतरिक्ष भविष्य के युद्ध क्षेत्र में तब्दील होता जा रहा है. और इसमें अंतरराष्ट्रीय मानकों की लगातार अनदेखी भी हो रही है. हालांकि अमेरिका ने भी इन नियमों का चुनिंदा तरीके से ही पालन किया है लेकिन चीन अंतरराष्ट्रीय कानूनों और मानकों के मामले में अपनी बीन बजाने में सबसे आगे दिखता है. आर्कटिक क्षेत्र हो या दक्षिण चीन सागर या फिर रेयर अर्थ मेटल का ही मसला हो, चीन अंतरराष्ट्रीय समुदाय के कानूनों और स्थापित मूल्यों में मीन-मेख निकाल कर अपना फायदा देखने में लगा है.
चीन का रॉकेट
इसी श्रृंखला में एक नई कड़ी पिछले हफ्ते तब जुड़ी जब चीन के हैनान प्रांत से लांच किया गया एक रॉकेट नियंत्रण से बाहर हो गया, और उसके प्रक्षेपण का एक हिस्सा मलबे के रूप में पृथ्वी पर आ गिरा. मालदीव के बहुत करीब पश्चिम में हिंद महासागर में गिरे इस रॉकेट का पे-लोड 22 टन वजन का था. हिंद महासागर में गिरा मलबा इसी राकेट के ऊपरी स्टेज का हिस्सा था. 29 अप्रैल को हुए चीन के इस लॉन्ग मार्च-5बी रॉकेट के प्रक्षेपण का मकसद चीन के नए अंतरिक्ष स्टेशन का पहला माड्यूल स्थापित करना था. माना जा रहा है कि चीन का यह त्यान्हे अंतरिक्ष स्टेशन 2022 तक काम करना शुरू कर देगा.
आलोचकों का मानना है कि चीन का यह लॉन्च अन्य देशों के लॉन्च से अलग था. जहां अमेरिका जैसे देश अपने रॉकेटों के लॉन्च होने के बाद अंतरिक्ष में उनके जाकर पृथ्वी की कक्षा में वापस आने तक नियंत्रण रखते हैं या मलबे को अंतरिक्ष में ही छोड़ देते हैं, माना जा रहा है कि चीन ने ऐसा नहीं किया. दुनिया के यह तमाम देश इस बारे में पूरी पारदर्शिता भी रखते हैं जिससे जान माल का खतरा न हो, लेकिन चीन ने रॉकेट की वापसी पर कोई पारदर्शिता नहीं रखी.
चीन का गुणा गणित सिर्फ इस पर आधारित था कि यदि धरती का 71 प्रतिशत हिस्सा समुद्र ही है तो रॉकेट के मलबे के समुद्र में गिरने की संभावना भी 71 प्रतिशत हुई. दूसरे शब्दों में कहा जाए तो चीन जानता था कि जमीन पर, और खास तौर पर रिहाइशी इलाकों में उसके गिरने की संभावना नगण्य है. अपने आधिकारिक वक्तव्य में भी चीन ने इस बात का कोई जिक्र नहीं किया कि मलबा आखिर कहां आकर गिरेगा. लेकिन जब लगभग 22 टन वजन का यह रॉकेट लगभग 27,000 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से पृथ्वी की सीमा में अरब सागर के ऊपर घुसा तो तमाम अंतरिक्ष एजेंसियों की घिग्घी बंध चुकी थी. डर था कि यह अमेरिका, न्यूजीलैंड या एशिया के किसी देश पर न गिर जाए.
नासा की आलोचना
अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा ने चीन के इस रवैये पर उसकी जमकर आलोचना की है. नासा ने यह भी कहा कि चीन ने अंतरराष्ट्रीय मानदंडों का पालन न करने के साथ ही पारदर्शिता दिखाने में भी कोताही की है. नासा के प्रशासक बिल नेल्सन ने चीन की आलोचना करते हुए कहा कि अंतरिक्ष अनुसंधान में जुटे देशों को यह ध्यान रखना चाहिए कि उनकी गतिविधियों से धरती पर जान और माल का नुकसान न हो.
ऐसा नहीं है कि चीन ने पहली बार दुनिया की एक महत्वपूर्ण शक्ति होने की जिम्मेदारी को नहीं निभाया हो. मई 2020 में भी कुछ ऐसा ही हुआ था जब चीन के 5बी टाइप का ही एक रॉकेट आइवरी कोस्ट में आ गिरा था. उस क्रैश में कोई हताहत तो नहीं हुआ था लेकिन कई मकानों को क्षति पहुंची थी. वैज्ञानिकों की मानें तो आइवरी कोस्ट की घटना में गिरा मलबा भूतपूर्व सोवियत संघ के सल्यूत 7 अंतरिक्ष स्टेशन के मलबे के 1991 में गिरने के बाद अंतरिक्ष से गिरने वाला सबसे बड़ा मलबा था.
मार्च 2018 में भी चीन की एक अंतरिक्ष प्रयोगशाला तियानगोंग-1 प्रशांत महासागर में आ गिरी थी. अंतरिक्ष अनुसंधान क्षेत्र में एक महाशक्ति बनने की अपनी मंशा को चीन ने किसी से छुपाया भी नहीं है. चीन के राष्ट्रपति शी जीनपिंग तो इसे चीन के राष्ट्रीय पुनर्निर्माण का एक महत्वपूर्ण स्तंभ मानते हैं. इसके लिए 2049 तक का लक्ष्य भी तय किया गया है जब चीन अपनी 100 वीं सालगिरह मनाएगा. चीन अंतरिक्ष अनुसंधान के क्षेत्र में अपनी पकड़ बनाने के लिए लगातार कोशिश तो कर रहा है लेकिन साथ ही उसकी कोशिश लागत कम से कम रखने की भी रहती है.
अंतरिक्ष अनुसंधान सबका हक
अंतरिक्ष अनुसंधान से किसी देश को न रोका गया है और न ही ऐसा होना चाहिए, लेकिन दुनिया के बड़े देशों को भी इस मुद्दे पर जडिम्मेदारी दिखानी चाहिए. चीन के इस व्यवहार पर भी फिलहाल शायद कुछ तीखी टिप्पणियों के अलावा कुछ भी नहीं किया जा सकता और इन टिप्पणियों को भी चीन गम्भीरता से लेगा यह कहना मुश्किल है. लेकिन मामला गंभीर है. इसलिए कि 2022 के अंत तक चीन ऐसे ही लगभग एक दर्जन लॉन्च और करने की तैयारी में है. आशंका यही रहती है कि चीन की गलतियों का अंजाम कभी किसी और देश को भुगतना न पड़ जाय.
ऐसा नहीं है कि अंतरिक्ष के मलबों के निस्तारण के संबंध में या अंतरिक्ष संबंधी प्रयोगों को लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कायदे-कानून अभी तक नहीं बने हैं. 1967 की आउटर स्पेस ट्रीटी इसका सबसे बड़ा उदाहरण है. चीन भी आउटर स्पेस ट्रीटी का हिस्सा है. मिसाल के तौर पर कन्वेंशन ऑन इंटरनेशनल लायबिलिटी फॉर डैमेज कॉज्ड बाय स्पेस ऑब्जेक्ट्स को ही ले लीजिए. 1963 से 1972 तक इस लायबिलिटी कन्वेंशन पर संयुक्त राष्ट्र संघ की लीगल सब कमेटी में चिंतन मंथन हुआ. यह कन्वेंशन सितम्बर 1972 में प्रभावी भी हो गया. आउटर स्पेस ट्रीटी के सातवें आर्टिकल में कहा गया है कि जो देश अंतरिक्ष में किसी रॉकेट या ऐसे किसी प्रक्षेपण को लांच करेगा वह उसके जमीन पर गिरने से हुए नुकसान का जिम्मेदार होगा. मिसाल के तौर पर 1978 में जब एक सोवियत सैटेलाइट अंतरिक्ष से गिरते हुए कनाडा पर जा गिरा था तब सोवियत संघ ने उससे हुए नुकसान की भरपाई कनाडा को की थी.
वर्तमान विश्व व्यवस्था में अंतरराष्ट्रीय कानून तो बहुत हैं और लगभग हर परिस्थिति में देशों के बीच नियम परक व्यवहार की परिधि भी तय करते हैं, लेकिन ताकत के जोर पर इन नियमों के पालन में आए दिन फेर बदल भी देखने को मिलते हैं. कानून तो बना दिए गए हैं, लेकिन उन कानूनों की बाध्यकारिता में कई पेंच हैं. राकेटों और अंतरिक्ष से जुड़े मलबों के धरती पर आ गिरने की स्थिति में स्पष्ट और बाध्यकारी नियमों पर तत्काल चर्चा की आवश्यकता है. जरूरी है कि नियमों को बाध्यकारी और पारदर्शी बनाया जाय. सबसे जरूरी है कि अंतरिक्ष में दिलचस्पी लेने वाले देश खुद अपनी जिम्मेदारी समझे ताकि आने वाले वक्त में इस तरह की दुर्घटनाओं को टाला जा सके.
(राहुल मिश्र मलाया विश्वविद्यालय के एशिया-यूरोप संस्थान में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के वरिष्ठ प्राध्यापक हैं.)