1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें

दुर्गा पूजा में महिलाओं की कूची

६ अक्टूबर २०१२

पश्चिम बंगाल के सबसे बड़े त्यौहार दुर्गापूजा में मूर्तियां बनाने का काम सदियों से पुरुषों के ही हाथों में था. लेकिन अब महिलाएं पुरुषों के इस गढ़ में सेंध लगाने लगी हैं.

https://p.dw.com/p/16LbT
Chyna Pal malt die Idole der Durga, was eigentlich ein Männerberuf ist. Copyright: DW/P.M. Tewari
तस्वीर: DW/P.M. Tewari

पहले चायना पाल नामक एक महिला ने यह काम शुरू किया था. अब कई और महिलाएं मूर्तियां बनाने के काम में उतर गई हैं. इनमें ज्यादातर वही हैं जो अपने पति या पिता की मौत के बाद उनकी विरासत संभालने और रोजी-रोटी चलाने के मकसद से इस पेशे में उतरी हैं. कोलकाता में मूर्तिकारों के मोहल्ले कुमारटोली में मिट्टी को जीवंत प्रतिमाओं की शक्ल देती इन महिलाओं को देख कर कहीं से यह नहीं लगता कि वे पहली बार यह काम कर रही हैं.

घर खर्च इसी से

काकोली पाल ने अपने पिता की मौत के बाद दो बेटियों की पढ़ाई-लिखाई और घर का खर्च चलाने के लिए अपने हाथों में दुर्गा प्रतिमा बनाने के लिए मिट्टी और रंग की कूची उठाई थी. सुबह अपनी बेटियों को तैयार कर स्कूल भेजने के बाद खाना बना कर वह प्रतिमा बनाने में जुट जाती है. मिट्टी का काम तो पूरा हो चुका है. अब प्रतिमाओं को रंगने और सजाने काम चल रहा है. शादी के आठ साल बाद ही ब्रेन हैमरेज से पति की मौत के बाद काकोली पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा था. लेकिन उसने हिम्मत नहीं हारी. वह कहती है, ‘पति की मौत के बाद मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करूं. मेरी बड़ी बेटी सात साल की थी और छोटी एक साल की. घर का खर्च तो किसी तरह चलाना ही था. इसलिए मैंने अपने पति के पेशे को अपना लिया.' अब काकोली एक स्टूडियो चलाती है. उन्होंने तीन कामगरों को नौकरी भी दे रखी है.

Indisches Fest Durga Puja Chayna pal Kumartuli
पारंपरिक रूप से पुरुषों का कामतस्वीर: DW/P.M. Tewari

चायना पाल

काकोली पाल से कुछ दूरी पर ही अपने स्टूडियो में चायना पाल भी प्रतिमाओं को सजाने-संवारने में व्यस्त है. सुबह घर का काम करने के बाद वह पूरे दिन प्रतिमाओं को रंगने व सजाने में जुटी रहती है. चायना बीते 19 वर्षों से प्रतिमाएं बना रही है और कोलकाता के मूर्तिकारों के इस मोहल्ले कुमारटोली में वह दसभुजा मां के नाम से मशहूर है. वर्ष 1994 में दुर्गापूजा से ठीक एक महीने पहले उसके पिता की निधन हो गया था. तब तक मूर्तियों का काम पूरा नहीं हुआ था. चायना के दोनों बड़े भाइयों को इस काम में दिलचस्पी नहीं थी. इसलिए चायना ने उन प्रतिमाओं का पूरा करने का काम अपने जिम्मे ले लिया. उस दिन के बाद चायना ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा है. आज आलम यह है कि चायना का नाम लेते ही इलाके का हर व्यक्ति उसके स्टूडियो का पता बता देता है.

कोलकाता के स्काटिश चर्च कालेज से ग्रेजुएशन की पढ़ाई पूरी करने वाली मीनाक्षी पाल ने पिछले साल अपने पिता की मौत के बाद प्रतिमाएं बनाने का काम शुरू किया था. वह कहती है, मैंने अपने पिता प्रदीप कुमार पाल का नाम जीवित रखने के लिए ही इस पेशे को अपनाया है. अब इस साल मैंने 20 से ज्यादा प्रतिमाएं बेची हैं. मीनाक्षी की मां माया रानी पाल भी अपनी बेटी की सहायता करती हैं. माया कहती हैं, "मैं पहले घर में मूर्तियां बनाती थी. अब पति की मौत के बाद मैं मीनाक्षी सहायता कर देती हूं. माया उस समय भी एक छोटी प्रतिमा बनाने में व्यस्त थी."

Indisches Fest Durga Puja Chayna pal
माया रानी भी अब प्रतिमाओं को रंगने में मदद करती हैं.तस्वीर: DW/P.M. Tewari

इनकी तरह कई अन्य महिलाएं भी अपने पिता या पिता की मौत के बाद अब धेरी-धीरे इस पेशे में उतर रही हैं. लेकिन इन महिला कलाकारों की राह आसान नहीं है. चायना बताती है, "शुरू-शुरू में काफी दिक्कत होती थी. लोगों को यह भरोसा नहीं होता था कि एक महिला भी दुर्गा की विशाल प्रतिमा बना सकती है. ग्राहकों का भरोसा जीतने में कुछ समय लगा." काकोली भी चायना की बातों का समर्थन करती है. वह कहती है कि पहले ग्राहक उन पर भरोसा नहीं करते थे. लेकिन धीरे-धीरे चीजें पटरी पर आ रही हैं. दूसरे पुरुष कलाकारों का भी पूरा सहयोग मिलता है. पिछले साल दस प्रतिमाएं ही बिकी थीं. लेकिन इस साल यह तादाद दोगुनी हो गई है. इन महिला कलाकारों की सबसे बड़ी प्रेरणा इनके हाथों बनी प्रतिमाएं ही हैं. चायना कहती है, "राक्षस का वध करती मां दुर्गा की प्रतिमा लगातार मेरा साहस और मनोबल बढ़ाती रहती है."

Indisches Fest Durga Puja Chayna pal
तस्वीर: DW/P.M. Tewari

संख्या बढ़ी

कलाकारों के संगठन कुमारटोली मृतशिल्पी समिति के पूर्व सचिव बाबू पाल कहते हैं, "बीस साल पहले इस मोहल्ले में एक ही महिला मूर्तिकार थी. लेकिन अब कम से कम 10 महिलाएं इस पेशे में जुटी हैं." एक बुजुर्ग कलाकार दिलीप पाल कहते हैं, "अब इस दौर में जब युवा पीढ़ी इस पेशे को नहीं अपनाना चाहती, महिला कलाकारों का इसमें उतरना एक बढ़िया संकेत है."

कुमारटोली में गए बिना यह समझना मुश्किल है कि कलाकारों को अपने काम में कितनी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है. मोहल्ले की तंग गलियों में जरा भी लापरवाही किसी प्रतिमा का अंग भंग कर सकती है. फिलहाल इस मोहल्ले में व्यस्तता चरम सीमा पर है. कोई राक्षस को अंतिम रूप दे रहा है तो कोई प्रतिमाओं को रंगने और सजाने में जुटा है. बीते कुछ वर्षों के दौरान काफी कुछ बदल गया है. लेकिन अपनी बनाई देवी की मूर्तियों से इन महिला कलाकारों की प्रार्थना जरा भी नहीं बदली है. इन सबकी एक ही तमन्ना है कि उनका भविष्य और काम-काज की परिस्थितियां बेहतर हो.

रिपोर्टः प्रभाकर, कोलकाता

संपादनः आभा मोंढे