वापस जाना चाहती हैं पूर्व कश्मीरी चरमपंथियों की पत्नियां
६ अप्रैल २०२१बुशरा शेख अपने दो बच्चों और खुद की जरूरतों को पूरा करने के लिए कड़ी मेहनत करती हैं. तीस वर्षीय बुशरा पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर के मुजफ्फराबाद की रहने वाली हैं. भारत और पाकिस्तान की 127 किमी लंबी विवादित सीमा रेखा ने उन्हें उनके परिवार से अलग कर रखा है. साल 2012 में वे सरकार की पुनर्वास नीति के तहत भारतीय कश्मीर के बारामुला जिले में स्थित पट्टन गांव आई जो कि उनके पति का गृह जनपद है. जम्मू और कश्मीर में नेशनल कॉन्फ्रेंस पार्टी के नेतृत्व वाली सरकार ने साल 2010 में उन पूर्व विद्रोहियों के लिए एक पुनर्वास नीति बनाई थी जो 1990 से पहले शस्त्र प्रशिक्षण के लिए सीमा पार करके पाकिस्तानी कश्मीर पहुंच गए थे लेकिन बाद में वे अपने घर वापस लौटना चाहते थे.
इस पुनर्वास नीति के तहत जनवरी 1989 से दिसंबर 2009 के बीच पाकिस्तान जाने वाले लोग और उनके परिजन भारत आ सकते थे. ऐसे तमाम विद्रोहियों ने पाकिस्तान में शादियां कर ली थीं और पुनर्वास के बाद अपनी पत्नियों और बच्चों को भी वे अपने साथ भारत-प्रशासित कश्मीर में ले आए. फारूक के पति भी उन सैकड़ों लोगों में से थे जो पाकिस्तान की सीमा पार करके भारत आए और फिर अपने परिजनों के पुनर्वास के लिए आवेदन किया. मुस्लिम बहुल कश्मीर 1947 के बाद से ही भारत और पाकिस्तान के बीच बंटा हुआ है. दोनों ही देश इस इलाके पर अपना दावा करते हैं. कश्मीर में विद्रोही भारतीय शासन के खिलाफ साल 1989 से ही संघर्ष कर रहे हैं. एक आकलन के मुताबिक, यहां सशस्त्र संघर्ष में अब तक 70 हजार से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं.
‘स्टेटलेस' महिलाएं
बेहतर भविष्य के फारूक के सपने तब चकनाचूर हो गए जब उन्हें इस अशांत क्षेत्र की जमीनी और कड़वी सच्चाई का सामना करना पड़ा. यहां से बाहर जाना लगभग असंभव हो गया और फारूक अब अपने परिजनों को देख भी नहीं सकतीं. फारूक ने डीडब्ल्यू को बताया, "नौ साल हो गए. मेरे परिवार वाले वहां परेशान हो रहे हैं और मैं यहां. मैं उन्हें कब से देखना चाहती हूं लेकिन इस पुनर्वास नीति ने मेरी जिंदगी को बर्बाद कर दिया.” वो कहती हैं कि वो एक ऐसी जगह पर सिमट कर रह गई हैं जहां न तो समाज ने और न ही सरकार ने उन्हें या उनके बच्चों को स्वीकार किया है क्योंकि तमाम लोग हमें किसी भी देश का नागरिक नहीं मानते.
फारूक के तमाम कागजात तभी जब्त कर लिए गए थे जब उन्होंने नेपाल बॉर्डर के जरिए भारत में प्रवेश किया. उनका कहना था कि इन्हीं परिस्थितियों में तमाम लोगों को पासपोर्ट नहीं दिए गए. उनका कहना था कि भारत-प्रशासित कश्मीर में अपने पति के साथ पहुंचने के बाद से ही जीवन बहुत कठिन हो गया है. फारूक कहती हैं, "मेरे पति ने मुझे धमकी दी कि वो बच्चों को लेकर अपने साथ चले जाएंगे और मुझे अकेला छोड़ जाएंगे.” दो साल पहले उनका अपने पति से तलाक हो गया और अब वो अपने दो बच्चों के साथ अकेले रहती हैं. वो कहती हैं कि पाकिस्तान में रह रहे अपने परिजनों से वो अपना दर्द छिपा रही हैं.
अनिश्चितता के जाल में
अधिकारियों के मुताबिक, साल 2010 की पुनर्वास योजना के तहत कम से कम 350 पूर्व विद्रोही अपनी पाकिस्तानी पत्नियों और बच्चों के साथ नेपाल अथवा बांग्लादेश की सीमा से भारत-प्रशासित कश्मीर लौटकर आए. हालांकि यह संख्या करीब आठ सौ तक बताई जाती है. इस नीति के तहत वापस आने की इच्छा रखने वालों को वाघा, अटारी, सलमाबाद, चकन द बाग अथवा नई दिल्ली स्थित इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे से प्रवेश करना था. इन परिजनों का कहना था कि वे बहुत परेशान थे और निर्धारित रास्तों से प्रवेश करने के बावजूद उन्हें अनगिनत बाधाएं पार करनी पड़ीं. कई लोगों पर अवैध तरीके से प्रवेश करने जैसे आरोप भी लगे.
अब करीब एक दशक के बाद, इन पूर्व विद्रोहियों की पाकिस्तानी बीवियां इस मांग को लेकर प्रदर्शन कर रही हैं कि उन्हें पाकिस्तान में मौजूद उनके परिवारों से मिलने दिया जाए. कश्मीर में मौजूद ऐसी तमाम महिलाएं न सिर्फ आर्थिक आजादी और सामाजिक स्वीकार्यता के लिए संघर्ष कर रही हैं बल्कि ससुराल वालों की प्रताड़ना से भी उन्हें दो-चार होना पड़ रहा है. नुसरत बीबी की जिंदगी भी इन सबसे अलग नहीं थी.
जीने के लिए संघर्ष
अगस्त 2019 में भारत सरकार ने राज्य की अर्ध-स्वायत्तता को खत्म कर पूरे इलाके में कई महीनों तक संचार व्यवस्था ठप करते हुए सैन्य लॉकडाउन लागू कर दिया था. इस वजह से अन्य लोगों की तरह कुपवाड़ा जिले के तंगधार गांव में रह रही नुसरत बीबी भी अपने परिवार से पूरी तरह कट गईं. मूल रूप से पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर की नीलम घाटी की रहने वाली नुसरत बीबी 2010 में अपनी शादी के करीब एक महीने बाद भारत-प्रशासित कश्मीर में पहुंची थीं. डीडब्ल्यू से बातचीत में नुसरत बीबी कहती हैं, "हमें लगा कि यहां हम लोग सामान्य जीवन जी सकेंगे लेकिन यहां तो ऐसा लग रहा है कि जैसे हम लोग कैद कर दिए गए हों.”
दो साल पहले नुसरत बीबी का अपने पति से तलाक हो गया. अपने पूर्व पति के साथ भारतीय कश्मीर में पहुंचते ही फारूक की तरह उनकी जिंदगी भी उतार-चढ़ाव के थपेड़े झेलने लगी. अपने परिवार से मीलों दूर रह रही नुसरत बीबी एक अनजान जगह पर पति से अलगाव और अकेलेपन की दुश्वारियों से जूझ रही हैं. नुसरत बीबी 11 साल और नौ साल की अपनी दो बेटियों के साथ रह रही हैं. वो बताती हैं कि परिवार में विवाद तभी शुरू हो गया था जब वो यहां पति के साथ रहने के लिए आई थीं. फिलहाल वो जीवनयापन के लिए कुपवाड़ा जिले के ही एक स्टोर में सिलाई का काम कर रही हैं.
पिछले दो साल से नुसरत बीबी भी पाकिस्तान में अपने परिवार से तलाक की बात छिपा रही हैं. वो कहती हैं, "मेरे परिवार वालों ने ये जानने की कोशिश की कि क्या मेरा तलाक हो चुका है लेकिन मैंने उन्हें कुछ बताया नहीं. क्योंकि मैं नहीं चाहती थी कि वो और परेशान हों. तीन साल पहले मेरे पिताजी मुझसे मिलने आए थे, मेरी परेशानियों को वो बर्दाश्त नहीं कर सके और हार्ट अटैक से उनकी मौत हो गई. मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि हमें इस दयनीय स्थिति में रहना पड़ेगा. मेरी तो बस अब एक ही इच्छा है कि अपने परिवार वालों को देख लूं.”
कराची जाने की लालसा
सायरा जावेद की इच्छा है कि वो कराची जाकर अपने परिवार वालों से मिलें. कराची दक्षिणी पाकिस्तान का एक शहर है जिसे सायरा जावेद "प्रकाश के शहर” के तौर पर याद करती हैं. लेकिन वो सीमावर्ती शहर कुपवाड़ा के खुमरियाल गांव को छोड़ पाने में असमर्थ हैं. जावेद ने कैंसर की वजह से मरने वाले अपने एक भाई की अंतिम समय की तस्वीरों का एक स्क्रीनशॉट संभाल कर रखा है. पिछले हफ्ते मीलों दूर अपने भाई के अंतिम संस्कार को वो सिर्फ वीडियो कॉल के जरिए ही देख सकी थी.
डीडब्ल्यू से बातचीत में सायरा कहती हैं कि भारत और पाकिस्तान के बीच तल्ख रिश्तों की वजह से वो कई साल से पाकिस्तान में रह रहे अपने परिवार वालों को देख नहीं पाई हैं. वो कहती हैं, "पिछले हफ्ते मैंने अपने छोटे भाई को खो दिया. छह महीने पहले मैंने अपने पिता को खोया. उन लोगों की एकमात्र इच्छा यही थी कि वो मुझे देख लेते. कैसी जिंदगी है यह?”
जावेद उन पाकिस्तानी महिलाओं में से हैं जो पुनर्वास नीति के लागू होने के बाद भारत प्रशासित कश्मीर में आ गई थीं. साल 2007 में जब उनके पति की मां बीमार हुईं, तो उन लोगों ने कश्मीर आने का फैसला किया. अपने पति के गांव पहुंचने पर ससुराल वालों ने वहीं रुकने की जिद की. वो कहती हैं, "तब से लेकर अब तक मैं वापस जाने के लिए संघर्ष कर रही हूं लेकिन भारतीय अधिकारी हमें वापस जाने की अनुमति नहीं दे रहे हैं. मेरे चार बच्चे हैं और उनका यहां कोई भविष्य नहीं है.” हर तरफ घोर निराशा के बावजूद, जावेद को उम्मीद है कि भारत और पाकिस्तान के रिश्ते बेहतर होंगे और "वे हमारी दुर्दशा को एक मानवीय मुद्दे के रूप में देख सकेंगे.”