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पौधों की तरह मांस उगाने की तैयारी

३१ जनवरी २०११

दक्षिणी कैरोलाइना की मेडिकल यूनिवर्सिटी की इमारत के उपरी माले पर एक छोटे से लैब में डॉक्टर ब्लादीमिर मिरोनोव कई दशकों से मांस उगाने की कोशिश कर रहे हैं. ठीक वैसे ही जैसे पौधे उगाए जाते है. मांस मिलेगा बगैर जीवहत्या के.

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तस्वीर: picture-alliance/ dpa

बायोइंजीनियरिंग की दुनिया में इस मांस को कल्चर्ड मीट कहा जाता है. 56 साल के मिरोनोव का मानना है कि उनकी ये खोज दुनिया भर से खाने का संकट दूर कर देगी. डॉक्टर मिरोनोव मेडिकल यूनिवर्सिटी के रिजेनेरेटिव मेडिसिन और शेल बॉयोलॉजी विभाग में एडवांस टिश्यू बायोफैब्रिकेशन सेंटर के निदेशक हैं. मुख्य रूप से उनकी जिम्मेदारी मानव अंगों के विकास से जुड़े रिसर्च की है.

डॉक्टर मिरोनोव प्रयोगशाला में मांस बनाने के लिए मायोब्लास्ट का इस्तेमाल करते हैं. मायोब्लास्ट भ्रूण कोशिकाएं हैं जिनका विकास मांसपेशीय उत्तकों में किया जाता है. इसके लिए इन्हें पोषक तत्वों से मिलकर बने तरल में डुबोया जाता है. इस तरह शिटोसेन से एक ढांचा बना दिया जाता है जिनसे बाद में हड्डियों की कोशिकाएं बनती हैं. अब बड़ा सवाल ये है कि इस तरह से तैयार हुआ मांस भी क्या प्राकृतिक मांस जैसा ही रसदार और मांसल होगा. कैंसर शेल बायोलॉजी के वैज्ञानिक निकोलस गेनोवज इस बारे मे कहते हैं कि वैज्ञानिक इस मांस में वसा मिलाना चाहते हैं. इसके अलावा एक नाड़ीतंत्र का विकास कर मांस को ऑक्सीजन के सहारे बढ़ाने की भी तैयारी है. इस तरह तैयार मांस में केवल उत्तकों की पतली पट्टियां ही नहीं होंगी बल्कि वो फलफूल भी सकेगा.

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तस्वीर: AP

सस्ता होगा कल्चर्ड मीट

कल्चर्ड मीट एक बार औद्योगिक स्तर पर तैयार होने लगे तो वो बेहद सस्ता भी होगा. अगर लोग इस मांस को खाने लगें तो भविष्य में बहुत फायदा हो सकता है. पृथ्वी का तीस फीसदी हिस्सा एनीमल प्रोटीन तैयार करने में इस्तेमाल हो रहा है. जानवरों का एक पाउंड मांस तैयार करने के लिए 3 से 8 पाउंड पोषक तत्व की जरूरत होती है. जानवर भोजन खाते हैं और कचरा पैदा करते हैं. कल्चर्ड मीट का पाचन तंत्र अलग है इसमें कचरा तैयार नहीं होता. इसके अलावा इस मांस से जुड़ी एक फायदेमंद बात ये है कि अगर पृथ्वीवासियों ने दूसरे ग्रहों पर भी अपने ठिकाने बनाए तो उन्हें मांस खाने के लिए अपने साथ जानवर ले जाने की जरूरत नहीं होगी.

प्रयोग के लिए पैसे की कमी

कल्चर्ड मीट को बनाने की कोशिश नीदरलैंड में भी हो रही है लेकिन अमेरिकी वैज्ञानिक मानते हैं कि उनका तरीका विज्ञान के लिहाज से ज्यादा उपयुक्त है. हालांकि डॉक्टर मिरोनोव को अपनी इस खोज को जारी रखने के लिए धन की जरूरत है. समाचार एजेंसी रायटर्स से बातचीत में मिरोनोव ने बताया कि नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ फूड एंड एग्रीकल्चर जो यूएस फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन का हिस्सा है उसने इसके लिए पैसा देने से मना कर दिया है. नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ ने भी अपने हाथ खड़े कर दिए हैं. बस थोड़ा बहुत जो पैसा मिला है वह नेशनल एयरोनॉटिक्स एंड स्पेस एडमिनिट्रेशन की तरफ से आया है. मिरोनोव कहते हैं, "किसी भी खोज को बाजार में उतारने के लिए 1 अरब डॉलर की जरूरत होती है हमारे पास 10 लाख डॉलर भी नहीं हैं."

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तस्वीर: Koelnmesse

लोगों की पसंद

डॉक्टर निकोलस कहते हैं, "लोगों के मन में कल्चर्ड मीट के लिए धारणा अच्छी नहीं है. जब उन्हें पता लगता है कि ये मांस प्रयोगशाला में तैयार हुआ है तो उन्हें घिन आती है. लोग तकनीक को खाने की चीज से जोड़ा जाना पसंद नहीं करते. पर एक सच्चाई ये भी है कि आमतौर पर खाने पीने में ढेरों ऐसी चीजों का इस्तेमाल होता है जो प्रयोगशाला जैसी परिस्थितियों में ही तैयार की जाती है हैं. अब दही को ही देखिए वो भी यो यीस्ट है. इसके अलावा वाइन, बीयर ये सब प्रयोगशाला में नहीं पर उसी जैसी परिस्थितियों में तैयार किए जाते हैं और लोगों ने उन्हें खुशी खुशी अपना लिया है.

वाइन वाइनरी में तैयार होती है, बीयर ब्रेवरी में और ब्रेड बेकरी में, तो फिर कल्चर्ड मीट जहां तैयार होगा उसे क्या कहेंगे. मिरोनोव बड़ी सरलता से बताते हैं कारनरी. डॉक्टर मिरोनोव ने यही नाम दिया है उस जगह को जहां कल्चर्ड मीट तैयार होगी. फुटबॉल के मैदान जितनी बड़ी इमारत में बड़े बड़े बायोरिएक्टर लगे होंगे और कल्चर्ड मीट तैयार होता रहेगा. इसके अलावा राशन की दुकानों में कॉफी मशीन के आकार के भी बायोरिएक्टर्स होंगे जिनमें चार्लेम यानी चार्ल्सटन इंजीनियर्ड मीट तैयार होगा.

इस मांस की ये भी खासियत होगी कि लोग जैसा कहेंगे इसका स्वाद वैसा ही होगा. पोर्क, बीफ, लैम्ब या चिकन जैसी आपकी फरमाइश, मशीन से निकले मांस का स्वाद वही होगा. मिरोनोव का कहना है कि जीन्स मिलाए बगैर भी वो ये काम कर सकते हैं. पर वह ये भी कहते है कि इस बात के कोई प्रमाण नहीं कि जीन्स मिलाने से भोजन की गुणों में खराबी आती है. वह याद दिलाते हैं, "आखिरकार दुनिया भर में जेनेटिकली मोडिफाइड यानी जीएम फूड तो खाया जा ही रहा है और इसे खाने की वजह से कोई मर भी नहीं रहा."

तो बस तैयार हो जाइए जल्दी ही वो मांस खाने के लिए जिसे हासिल करने के लिए चलते फिरते जानवरों की बलि देने की जरूरत नहीं पड़ेगी. आज ये हैरतअंगेज लगे कल जब इसी मांस से थाली सजी होगी तो पता भी नहीं चलेगा. 15 साल पहले किसने सोचा था हमारे हाथों में आइफोन जैसी भी कोई चीज हो सकती है.

रिपोर्टः एजेंसियां/एन रंजन

संपादनः महेश झा