बंगाल में लोगों को घरों से बाहर खींच रही है अड्डा संस्कृति
२० अप्रैल २०२०बंगाल और अड्डा को एक-दूसरे का पर्याय कहा जाए को कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी. अड्डा यानी कुछ लोगों का जमावड़ा. हालांकि अब मकानों की जगह खड़ी होती गगनचुंबी इमारतों और लोगों की लगातार व्यस्त होती दिनचर्या की वजह से अड्डा में पहले के मुकाबले कुछ कमी जरूर आई है, लेकिन अब भी आम बंगाली छुट्टी के पलों में फुरसत मिलते ही अड्डा मारने निकल पड़ता है. यह संस्कृति कोरोना की वजह से देशव्यापी लॉकडाउन के बावजूद आम बंगाली को घरों से निकलने पर मजबूर कर रही है. ऐसे में इस दौरान हजारों लोगों का गिरफ्तार होना कोई आश्चर्य नहीं है. अड्डा की यह संस्कृति पड़ोसी बांग्लादेश (पहले पूर्वी बंगाल) में भी जस की तस है.
शुरुआत का पता नहीं
बांग्ला के अड्डा शब्द का शाब्दिक हिंदी अनुवाद तो मुश्किल है, लेकिन मोटे शब्दों में इसका मतलब उन अनौपचारिक व स्वतःस्फूर्त बैठकों से है जहां चाय पीते हुए देश-दुनिया के किसी भी मुद्दे पर विस्तार से बहस की जा सकती है. किसी भी आम बंगाली से पूछ लें, वह इसे अपनी संस्कृति का अटूट हिस्सा बताएगा. आम बंगाली फुर्सत के पलों में किसी भी मुद्दे पर घंटों तक अड्डा मार (बैठक कर) सकते हैं. यह कहना ज्यादा सही होगा कि अड्डा लोगों का एक ऐसा अनौपचारिक जमावड़ा है जहां हर विषय पर चर्चा होती है.
इस अड्डा संस्कृति की शुरुआत कैसे हुई, इसका सही जवाब तो मुश्किल है. लेकिन मशहूर फिल्मकार सत्यजित रे ने अपनी फिल्म आगंतुक में दर्शाया था कि इस परंपरा की जड़ें प्राचीन ग्रीस में सुकरात या प्लूटो के समय होने वाली बौद्धिक बातचीत में छिपी है. वर्ष 2011 में दो फिल्मकारों—सूर्य देब और रंजन पालित ने इस विषय पर अड्डा—कलकत्ता/कोलकाता शीर्षक एक डाक्यूमेंट्री बनाई थी. उसे दुनिया भर के कई फिल्मोत्सवों में प्रदर्शित किया गया था और वर्ष 2012 में उसे मेक्सिको अंतरराष्ट्रीय फिल्मोत्सव में गोल्डन पाम अवार्ड भी मिला था. इस अड्डा संस्कृति पर शोध कर न जाने कितने ही शोधार्थी डॉक्टरेट की उपाधि हासिल कर चुके हैं.
बुद्धिजीवियों का जमावड़ा
बंगालियों को अड्डा से उतना ही प्यार है जितना रसगुल्ले से. इन जमावड़ों में जिन मुद्दों पर बहसें होती रही हैं उनकी सूची अंतहीन है. इनमें लेखकों से लेकर उनकी रचनाएं, कविता, सिनेमा, राजनीति, नौकरशाही और खेल तमाम विषय शामिल हैं. समाज के एक बड़े तबके को आपसी भाईचारे के धागे में बांधे रखने में इस अड्डा या अनौपचारिक बैठकों की भूमिका बेहद अहम रही है. यह अकेली ऐसी चीज है जिसमें तमाम जाति, धर्म और समुदाय के लोग शामिल होते रहे हैं. बंगाल में पुनर्जागरण के दौरान भी इस अड्डा संस्कृति ने विचारों के प्रचार-प्रसार में कॉफी अहम भूमिका निभाई थी.
शुरुआत में अड्डा लेखकों और बुद्धिजीवियों का ऐसा जमावड़ा होता था जहां देश-दुनिया के समकालीन लेखन और कृतियों पर विस्तार से चर्चा की जाती थी. यह बैठकें अमूमन कॉफी हाउस या ऐसी ही जगहों पर होती थीं. कोलकाता का ऐतिहासिक कॉफी हाउस तो सत्यजित रे से लेकर नेताजी सुभाष चंद्र बोस तक न जाने कितनी ही हस्तियों के ऐसे अड्डों का गवाह रहा है. मोहल्ले की चाय दुकानों पर बिना दूध की चाय पीते हुए भी लोगों को अड्डा के दौरान तमाम मुद्दों पर बोलते देखना सामान्य है. बस इन बैठकों में शामिल किसी एक व्यक्ति के कोई मुद्दा छेड़ने भर की देरी होती है. उसके बाद तमाम लोग इसके पक्ष और विपक्ष में दलीलें देने लगते हैं. ऐसे जमावड़े में शामिल लोग शालीनता के दायरे में रहते हुए जोरदार तरीके से अपनी दलीलें पेश करते हैं.
खून में रची बसी परंपरा
बंगाल के तमाम प्रमुख लेखकों-साहित्यकारों के लिए ऐसी बैठकें काफी उर्बर साबित होती रही हैं. इन बैठकों से ही उनको अनगिनत प्लॉट तो मिले ही हैं, कई चरित्र भी इनमें शामिल लोगों के आधार पर ही गढ़े गए हैं. इनमें तीन लेखकों प्रेमानंद मित्र, आशुतोष मुखर्जी और नारायण गंगोपाध्याय की ओर से गढ़े गए क्रमशः घाना दा, पिंडी दा और टेनी दा जैसे लोकप्रिय चरित्र शामिल हैं. बांग्ला साहित्य के अजेय कृतियों के कई प्लॉट कॉफी हाउस में होने वाली बैठकों से ही निकले हैं. उपन्यासकार सुखेंदु चटर्जी बताते हैं, "अड्डा की परंपरा हमारे खून में रची-बसी है. यह हमें अपने पुरखों से विरासत में मिली है. आम बंगाली ऐसे अड्डों में देश-दुनिया को प्रभावित करने वाले तमाम मुद्दों पर खुल कर अपने विचार व्यक्त करता रहा है.”
अब समय के साथ लोगों की व्यस्तता बढ़ने और पुराने मोहल्लों के हाउसिंग कालोनियों में बदलने की वजह से भले ही अड्डों की तादाद या इनका समय कम हो गया हो, इसका मूल स्वरूप जस का तस है. यह आम बंगाली की पहचान है. बीते महीने से जारी लॉकडाउन के दौरान यही आदत लोगों को घरों से निकलने पर मजबूर कर रही है. क्या कोरोना और उसकी वजह से जारी लॉकडाउन की वजह से यह संस्कृति खतरे में है? समाजशास्त्र के प्रोफेसर निर्मल गोस्वामी इस सवाल पर कहते हैं, "यह परंपरा सदियों पुरानी है. सामयिक तौर पर भले यह सिलसिला थम गया हो, भविष्य में इस पर कोई खतरा नहीं है.” वह कहते हैं कि भारत तो क्या दुनिया के तमाम देशों में बसे बंगाली भी मौका मिलते ही अपने इस प्रिय शगल को पूरा करने में जुट जाते हैं.
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