बड़ा जटिल है संरक्षण गृहों का ‘गोरखधंधा’
१० अगस्त २०१८पुलिस के मुताबिक देवरिया की घटना का पता तब चला जब बालिका संरक्षण गृह से ही एक दस साल की एक लड़की किसी तरह वहां से भागकर महिला पुलिस थाना पहुंची और पुलिस वालों से अपनी पीड़ा बताई. खबर मिलते ही राज्य सरकार तत्काल हरकत में आई.
लखनऊ से दो बड़े अफसर जांच के लिए तत्काल हेलीकॉप्टर से देवरिया भेजे गए, महिला संरक्षण गृह से लड़कियों को बाहर कर दिया गया, संरक्षण गृह को सील कर दिया गया और संरक्षण गृह का संचालन करने वाली गिरिजा त्रिपाठी और उनके पति को गिरफ़्तार कर लिया गया.
हालांकि ये मामला इतना भी सीधा नहीं है. संरक्षण गृह में लड़कियों के साथ यौन शोषण या फिर उनका शारीरिक शोषण होता था या नहीं, ये जांच के बाद पता चलेगा लेकिन सबसे बड़ी बात इस दौरान जो सामने आई है, वो ऐसे किसी भी अवैध काम के पीछे सरकारी तंत्र और माफिया गठजोड़ का सीधा उदाहरण है.
देवरिया के जिस मां विंध्यवासिनी बालिका संरक्षण गृह में लड़कियों के साथ होने वाले कथित यौन शोषण की बात सामने आई, उस संस्था को एक साल पहले ही अवैध घोषित कर दिया गया था और उसका सरकारी अनुदान रोक दिया गया था. बावजूद इसके, पुलिस वाले लड़कियों को वहां छोड़ जाते थे. यह सवाल एक जनहित याचिका की सुनवाई के दौरान हाईकोर्ट ने भी राज्य सरकार से किया है कि ऐसा क्यों होता रहा?
दूसरे, महिला संरक्षण गृह की जिस मालकिन या संचालिका को गिरफ्तार किया गया है उनकी गिनती देवरिया की जानी-मानी समाज सेविका के रूप में होती है और वो सरकारी स्तर पर चलने वाली तमाम सामाजिक गतिविधियों और संस्थाओं की मानद सदस्य हैं जिनकी नियुक्ति राज्य सरकार की ओर से होती है.
यही नहीं, इस संरक्षण गृह के कई कार्यक्रमों में न सिर्फ बड़े प्रशासनिक अधिकारियों बल्कि लगभग सभी राजनीतिक दलों के नेताओं का भी आना-जाना होता था. गिरिजा त्रिपाठी नाम की ये महिला दो दशक से इस तरह की कई संस्थाओं का संचालन कर रही हैं. यदि ऐसा कुछ हो रहा था तो अब तक इसकी भनक किसी को क्यों नहीं लगी?
सवाल ये भी उठता है कि इतने दिनों से ये लड़कियां जब इतनी मुसीबत सह रही थीं तो इन्होंने कभी प्रतिवाद क्यों नहीं किया, कुछ बोलीं क्यों नहीं? एक साथ रहती थीं तो कम से कम एक-दूसरे से बात करके हिम्मत तो जुटा ही सकती थीं.
इन संरक्षण गृहों में वो लड़कियां आती हैं जो घर से भागकर आई हैं, प्रेम विवाह करना चाहती हैं लेकिन अभी उनकी उम्र विवाह की नहीं हुई है और परिवार से उन्हें जान का खतरा है, या फिर तस्करों के चंगुल से बचकर आई हैं जहां किसी भी वजह से वो फंस गई थीं. इसके अलावा कुछ अपराधों में शामिल लड़कियों को भी पुलिस वाले इन संरक्षण गृहों में छोड़ जाते हैं जो बालिग नहीं होतीं.
साल 1969 में भारत सरकार के समाज कल्याण विभाग ने ''शॉर्ट स्टे होम'' बनाए ताकि ऐसी औरतों और बच्चों को उचित आश्रय मिल जाए और वो किसी गलत काम में न फंस जाएं. इसके बाद भी इस दिशा में कई योजनाएं बनीं, पर ज्यादातर योजना की तरह इनमें भी अच्छाइयों की बजाय खामियां हावी होने लगीं.
दरअसल, सरकार ने ऐसे आश्रय स्थलों को खुद चलाने की बजाय कुछ गैर सरकारी संस्थाओं के हवाले कर दिया और इन संस्थाओं को सरकार से पैसा मिलने लगा. पैसे का ये खेल इतना बड़ा है कि इस क्षेत्र में रसूखदार लोगों ने भी हाथ डाल दिया या यों कहें कि यहां से पैसा कमाकर लोग रसूखदार बनते गए. यही वजह रही कि यहां होने वाली अनियमितता अक्सर बाहर नहीं आने पाती, किसी न किसी स्तर पर उन्हें ‘संभाल' लिया जाता है.
मुजफ्फरपुर और देवरिया में भी ऐसा ही हुआ. देवरिया की घटना के बाद राज्य सरकार ने जब सभी संरक्षण गृहों की जांच करने का आदेश दिया है तो लगभग हर दिन, हर जिले से संरक्षण गृहों में होने वाली ऐसी ही अनियमितताओं और लड़कियों के गायब होने, उनके साथ यौन शोषण होने की कहानियां सामने आ रही हैं. अब तक हरदोई, गाजीपुर, प्रतापगढ़ और कानपुर से अब तक ऐसी खबरें आ चुकी हैं. ये सभी संरक्षण गृह गैर-सरकारी थे और पिछले कई सालों से सरकारी अनुदान पा रहे थे.
सरकारी नियम ये हैं कि जिस एनजीओ को इसका टेंडर दिया जाए, तीन साल बाद उसकी फिर से पड़ताल की जाए. जब सब कुछ ठीक मिले तभी आगे का टेंडर क्लियर किया जाए, लेकिन ऐसा नहीं होता. जाहिर है, यदि ऐसा नहीं होता तो इसमें एनजीओ चलाने वाले संगठन, प्रशासन में बैठे लोग और संचालकों की ऊंची पहुंच सब जिम्मेदार होती है.
संरक्षण गृहों की निगरानी और मॉनिटरिंग को लेकर कोई पुख्ता सिस्टम नहीं है. केंद्र और राज्य सरकार के कई विभागों का इससे वास्ता होता है तो निगरानी का काम आमतौर पर जिला मजिस्ट्रेट, जिला जज, जिला प्रोबेशन और बाल कल्याण अधिकारी करते हैं. लेकिन वास्तव में इन सभी स्तरों पर निगरानी का काम ठीक ढंग से नहीं हो रहा है.
केंद्र सरकार ने भी इस बात को माना है कि अभी तक इन संरक्षण गृहों की ऑडिट के नाम पर इनके इंफ्रास्ट्रक्चर का ही ऑडिट होता रहा है, इनका सोशल आडिट, इनके संचालकों की जानकारी इत्यादि की उतनी गंभीरता से जांच नहीं की गई जितनी की जानी चाहिए थी.
जानकारों का कहना है कि संरक्षण गृहों की नियमित निगरानी, सोशल ऑडिटिंग, और पुनरीक्षण से ऐसी घटनाओं को रोका जा सकता है. जानकार मानते हैं कि यदि हर साल इन सब तरीकों को अपनाया जाता, रिपोर्ट मंगाई जाती और उन पर कार्रवाई होती, नियमों का सही तरीके से पालन किया जाता, तो ऐसी स्थितियां शायद ही आतीं.