ब्लॉग से बौखलाती बांग्लादेश राजनीति
२२ फ़रवरी २०१३5 फरवरी को बांग्लादेश की राजधानी ढाका में जमात ए इस्लामी के नेता अब्दुल कादेर मुल्ला को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई. आरोपः 1971 में आजादी की लड़ाई के दौरान 340 से ज्यादा लोगों की हत्या और कई महिलाओं से बलात्कार. मुल्ला ने उस वक्त पाकिस्तान का साथ दिया और आजादी का समर्थन कर रहे लोगों को बेरहमी से मार डाला.
1971 में बांग्ला मुक्ति संग्राम के दौरान पाकिस्तानी सेना की हिंसा के शिकार पीड़ितों के घाव अभी भरे नहीं हैं. कुछ साल पहले 1971 में हुए युद्ध अपराधों पर कार्रवाई के लिए खास अदालतों ने सुनवाई शुरू की. चार दशक पहले बुद्धिजीवियों को मारने और महिलाओं के बलात्कार के लिए जिम्मेदार लोगों पर कार्रवाई की गई.
नेताओं को लगा शायद नई पीढ़ी 1971 की लड़ाई को लेकर बहुत संवेदनशील नहीं है. लेकिन पीड़ितों के दर्द ने नई पीढ़ी और नई तकनीक के जरिए लोगों तक अपनी आवाज पहुंचा ही दी. बांग्लादेश में ब्लॉगर जमकर अपने देश की राजनीति, भ्रष्टाचार और अव्यवस्था पर लिखने लगे.
5 फरवरी के फैसले का ऑनलाइन कार्यकर्ताओं ने फेसबुक और ट्विटर के जरिए खंडन किया और ढाका के शाहबाग में छात्रों से जमा होने की अपील की. प्रदर्शनकारी मुल्ला को उम्रकैद के बजाए मौत की सजा देने की मांग कर रहे हैं. बीते दो हफ्तों से शाहबाग बांग्लादेश का तहरीर चौक बना हुआ है. वहां जमा युवा बार बार यही सवाल कर रहे हैं कि देश की स्थापना किन उसूलों पर हुई. नई पीढ़ी बांग्ला अस्मिता के उन्हीं मूल्यों की वापसी चाहती है. साफ संदेश दिया जा रहा है कि 90 प्रतिशत मुस्लिम आबादी के बावजूद वे बांग्ला संस्कृति की वजह से पाकिस्तान से अलग हुए. युवाओं का यह आंदोलन धर्म की नहीं बांग्ला संस्कृति की बात कर रहा है.
जाहिर है कि इस तरह की सोच का साथ दे रहे ऑनलाइन कार्यकर्ता और ब्लॉगर जमात ए इस्लामी जैसे कट्टरपंथी संगठनों का निशाना बनते हैं. जमात के बारे में कहा जाता है कि वह पाकिस्तान के करीब है, उसके नेता आजादी की लड़ाई के दौरान पाकिस्तानी सेना का साथ दे रहे थे. आज जमात बांग्लादेश की मुख्य विपक्ष पार्टी बीएनपी की सहयोगी है. बांग्लादेश में अक्सर आम चुनावों के साथ सरकार बदलती ही जाती है.
हाल ही में नेता मुल्ला के खिलाफ लिखने वाले ब्लॉगरों की एक हिटलिस्ट तैयार की गई और सोनार बांग्लादेश नाम के एक ब्लॉग में इसे छापा गया है. माना जाता है कि सोनार बांग्लादेश के पीछे जमात है. हिटलिस्ट में पहले ब्लॉगर थे राजिब हैदर जो पिछले शुक्रवार को अपने घर में मृत पाए गए. लिस्ट में ऐसे तीन ब्लॉगर हैं जिन्हें शानदार रिपोर्टिंग और सामाजिक मुहिम के लिए डॉयचे वेले की तरफ से बेस्ट ऑफ ब्लॉग्स पुरस्कार दिए जा चुके हैं. कट्टरपंथियों ने उन्हें भी जान से मारने की धमकी दी है.
हैदर के घर पहुंची प्रधानमंत्री शेख हसीना ने तो फौरन ही साफ कह दिया कि इसके लिए जिम्मेदार जमात के सदस्यों को दबोच लिया जाएगा. लेकिन मामला यहीं पेचीदा हो जाता है. कई सवाल उठते हैं, जैसे जांच से पहले ही इन्हें कैसे पता चला कि इसके पीछे जमात का हाथ है. राजनीति कहती है कि जमात की बदनामी से बीएनपी बेचैन होगी और उसकी हार लगभग तय हो जाएगी. रही सही कसर युवाओं का आंदोलन भी पूरी करेगा. 71 के युद्ध और उसकी बर्बर यादें अब भी लोगों के जेहन में हैं, इनके जरिए बीएनपी को हराना शेख हसीना के लिए आसान हो जाएगा.
जहां तक युद्ध अपराधों की बात है तो पत्रिका ईकॉनोमिस्ट ने हाल ही में एक रिपोर्ट में बताया कि युद्ध अपराध अदालत का एक जज बेल्जियम में एक वकील से स्काइप पर इन्हीं मुकदमों पर बात कर रहा था. वकील का केस से कोई नाता नहीं था. जज ने इस्तीफा तो दे दिया, लेकिन फिर एक मामला सामने आया जिसमें एक सुनवाई के दौरान बचाव पक्ष यानी आरोपी के पक्ष में बोलने वाले एक गवाह को गायब कर दिया गया.
शायद सत्ताधारी आवामी लीग और प्रधानमंत्री हसीना के लिए ब्लॉगरों की हिटलिस्ट और राजीब हैदर की मौत विपक्ष को खत्म करने का अच्छा राजनीतिक मौका है. और क्या युद्ध अपराधियों के खिलाफ लिख रहे ब्लॉगर अनजाने में सरकार की कठपुतलियां बन गए हैं. क्या उनकी मौत का जिम्मेदार विपक्ष को बनाकर सरकार अपने राजनीतिक मकसद पूरा कर रही है.
इन सवालों के जवाब मुश्किल है. लेकिन एक बात तय है कि ब्लॉगिंग से निकला युवाओं का आंदोलन को देश को धर्म के नाम पर अंधा बनने के बजाए बांग्ला संस्कृति की राह पर आगे बढ़ने को प्रेरित कर रहा है. बांग्लादेश चाहे तो खुद को बदल सकता है या फिर 1971 की यादों पर अनंत काल के लिए आंसू बहा सकता है.
ब्लॉगः मानसी गोपालकृष्णन
(यह लेखक के निजी विचार हैं. डॉयचे वेले इनकी जिम्मेदारी नहीं लेता.)