भारत और ईयू के बीच मुक्त व्यापार समझौते का पहला दौर अभी-अभी समाप्त हुआ है. ब्रिटेन के साथ भी ऐसे ही एक समझौते पर काम चल रहा है. हाल ही में ऑस्ट्रेलिया के साथ भी, कमजोर ही सही एक व्यापार समझौता हुआ है.
भारत की अचानक द्विपक्षीय और बहुपक्षीय मुक्त व्यापार समझौतों में बढ़ती रूचि दिलचस्प है. इस दिलचस्पी की वजहें कई हैं दूसरी ओर यूरोपीय संघ के लिए भी यह एक बड़ी बात है. खास तौर पर यह कि एक ही झटके में पहले दौर की वार्ता के सकारात्मक नतीजे आये हैं. दोनों पक्ष यह चाह रहे हैं कि इन वार्ताओं का जल्दी से सबके लिए मनभावन रास्ता निकल जाय.
दरअसल बीते कुछ सालों में इंडो - पैसिफिक क्षेत्र में व्यापार समझौतों के मसलों पर काफी बड़े बदलाव आये हैं. विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यू० टी० ओ०) के कमजोर और विश्व व्यापार को उचित दिशा नहीं दे पाने की वजह से दुनिया के तमाम देशों ने क्षेत्रीय व्यापार संबंधों की ओर रुख कर लिया. दुनिया में मुक्त व्यापार के अगुआ अमेरिका के मेक इन अमेरिका जैसी अधोमुखी नीतियों ने रही सही कसर भी पूरी कर दी. ट्रंप सरकार के जमाने में अमेरिका ने बाजारवादी नीतियों की बाढ़ सी ला दी.
इसी दौरान चीन, जापान, दक्षिण कोरिया, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, और आसियान के दसों देशों ने मिलकर रीजनल कंप्रिहेंसिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप (आरसीईपी) मुक्त व्यापार पर समझौता कर लिया. भारत भी इस समझौते का हिस्सा था लेकिन कुछ सही और कुछ गलत कारणों के चलते उसने इस समझौते से हाथ खींच लिया.
आज यह समझौता दुनिया का सबसे बड़ा मुक्त व्यापार क्षेत्र बनाने की ओर अग्रसर है. अमेरिका से व्यापार युद्ध में फंसे चीन को इसकी वजह से राहत से ज्यादा खुशी मिली है क्योंकि अमेरिका और पश्चिम का कोई देश इस समझौते में घुस ही नहीं पाया. इसको और बड़े स्तर पर ले जाने की कोशिश भी चीन कर रहा है. हालांकि दक्षिणपूर्व और पूर्वी एशिया के देशों के लिए ऐसा करना आसान नहीं होगा.
जो भी हो, आरसीईपी दुनिया के सबसे बड़े आर्थिक ब्लॉक और राजनीतिक संगठन के लिए यह बात परेशान करने वाली होनी चाहिए. कहीं न कहीं भारत भी आरसीईपी से निकल कर ठगा सा ही महसूस कर रहा होगा.
सच्चाई यही है कि आज भारत और यूरोपीय संघ दोनों ही इंडो - पैसिफिक क्षेत्र के बहुमुखी और क्षेत्रीय व्यापार ढांचे और मुक्त व्यापार के इकोसिस्टम के हाशिये पर खड़े हैं. दोनों के लिए बड़ी चिंता की बात यह भी है कि एशिया पैसिफिक इकनोमिक कोऑपरेशन यानी एपीईसी में दोनों शामिल नहीं है जबकि रूस है. कंप्रिहेंसिव एंड प्रोग्रेसिव एग्रीमेंट फॉर ट्रांस पैसिफिक पार्टनरशिप (सीपीटीपीपी) में ये दोनों ही नदारद हैं.
यूरोपीय संघ के लिए यह अच्छी खबर नहीं है कि लाख कहने के बाद भी इन्हें इंडो पैसिफिक में कोई घास नहीं डाल रहा. अमेरिका के इंडो पैसिफिक इकनोमिक फ्रेमवर्क में भी यूरोपीय संघ या जर्मनी, फ्रांस और नीदरलैंड्स का नाम नहीं है. इन बातों ने कहीं ना कहीं यूरोपीय संघ को इस बात के लिए प्रेरित किया कि वह जैसे बन पड़े दक्षिणपूर्व, पूर्व, और दक्षिण एशिया के देशों के साथ समझौतों को अंजाम दे. यही वजह है कि पिछले कुछ सालों में ईयू ने दक्षिणपूर्व एशिया के देशों सिंगापुर (2019), वियतनाम (2019), के अलावा जापान (2019) और दक्षिण कोरिया (2015) के साथ भी मुक्त व्यापार समझौतों पर करार किये हैं. भारत के साथ भी कमोबेश ऐसी ही स्थिति है जिसके चलते ब्रिटेन, आस्ट्रेलिया, कनाडा, अमेरिका, और ईयू के साथ समझौतों पर काम चल रहा है और आस्ट्रेलिया, यू० ए० ई० के साथ समझौते किये गए हैं.
भारत ने मई 2022 में इंडो पैसिफिक इकनोमिक फ्रेमवर्क की सदस्यता को हामी भर दी, और ब्रिटेन के साथ व्यापार समझौते के तीन दौर पूरे कर लिए. भारत और ईयू के लिए व्यापार समझौते को अंजाम देने के कारण कई हैं लेकिन यह राह इतनी भी आसान नहीं है.
वजह यह कि दोनों पक्ष व्यापार मामलों में जमकर मोलतोल करते हैं और इस मामले में जिद्दी भी हैं. अगर दोनों की मोलभाव तकनीक को मद्देनजर रख कर आगे आने वाले दिनों की भविष्यवाणी की हिम्मत की जाय तो यही लगता है कि कहीं यह केर और बेर का संग ना बन जाए.
ऐसा ना हो इसके लिए भारत को अपने कृषि, लौह और इस्पात और मीडियम और स्मॉल इंटरप्राइजेज पर ध्यान देना होगा. ईयू को भी नॉन टैरिफ बैरियर, फाइटोसेनेटरी मानदंडों पर थोड़ी रियायत और काफी ज्यादा धैर्य से काम करना होगा.
(डॉ. राहुल मिश्र मलाया विश्वविद्यालय के आसियान केंद्र के निदेशक और एशिया-यूरोप संस्थान में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के वरिष्ठ प्राध्यापक हैं. आप @rahulmishr_ ट्विटर हैंडल पर उनसे जुड़ सकते हैं.)