भारत के 'नाचते भालुओं' को राहत
४ दिसम्बर २०१२भालुओं के नाच को मनोरंजन के तौर पर देखने की परंपरा भारत में 13वीं सदी की है जब मुस्लिम कलंदर जाति को राजा महाराजाओं की मदद मिलती और वह अमीरों और ताकतवरों के सामने भालुओं को नचाते थे.
भारत में इस जाति के लोगों ने काफी लंबे समय तक इस परंपरा को जिलाए रखा. अक्सर छोटे भालुओं को अवैध शिकारियों से 1,200 रुपये में खरीदा जाता और फिर उनकी संवेदनशील नथूने में गर्म लोहे का छल्ला डाला जाता.
भालुओं के जबड़े और दांत निकाल कर, नथूने के छल्ले में रस्सी डाल कर प्रशिक्षित किया जाता और फिर गांव गांव घुमाया जाता. सड़कों पर इकट्ठा तमाशबीन इस भालू के कूदने फांदने के लिए कुछ सिक्के डालते.
वाइल्डलाइफ ट्रस्ट ऑफ इंडिया के विवेक मेनन कहते हैं, "इसमें कई साल लगे लेकिन अब इस जाति के सभी लोग दूसरे कामों में लग गए हैं. यह परंपरा अभी भी कई लोगों के दिमाग में होगी. लेकिन हम अभी कोई ऐसा मामला नहीं जानते कि कलंदर अभी भी भालुओं को नचाते हों."
जानवरों की रक्षा के लिए बनाई गई वर्ल्ड सोसायटी (डबल्यूएसपीए) और भारत की वाइल्डलाइफ एसओएस ने भी घोषणा की है कि पिछले कुछ महीनों में भालुओं को नचाने की परंपरा समाप्त हो गई है. जबकि भारत सरकार ने 1972 में ही इस पर प्रतिबंध लगा दिया था.
इसका मुख्य कारण यह है कि कलंदरों से बातचीत की गई, उन्हें भी इस अभियान में साथ में लिया गया. उन्हें पैसे दिए गए और नया काम सिखाया गया.
इस अभियान की सफलता को दूसरे अभियानों में भी इस्तेमाल किया जा सकता है. जैसे की सांप पकड़ने वाले. कई लोग अभी भी अवैध तरीके से यह काम कर रहे हैं. कई बार तो सांप का मुंह सिल दिया जाता है. डबल्यूएसपीए अभियान के कोऑर्डिनेटर अनिरुद्ध मुकर्जी कहते हैं, "भालुओं को ट्रेनिंग देने वालों का मन बदलना बहुत मुश्किल था. अधिकतर लोग बहुत डरे हुए थे क्योंकि उन्हें जीवन जीने का कोई और तरीका ही नहीं पता था.
30 साल के मोहम्मद अफसर खान भी इस पेशे को छोड़ने वालों में एक थे. तीन लड़कियों के पिता खान अपने पिता और भाई के साथ तीन भालू ले घूमते थे. वह कहते हैं कि छह साल पहले जब उन्होंने काम छोड़ा तो वह हर दिन 300 रुपये कमाते थे. "यह मुश्किल जिंदगी है. आप एक जगह नहीं रह सकते. आपके बच्चे स्कूल नहीं जा सकते. आप बंध कर रह जाते हैं. फिर आपको हमेशा पुलिस रिश्वत के लिए परेशान करती रहती है."
उन्होंने अपने भालू वाइल्डलाइफ ट्रस्ट को दे दिए. उन्होंने खान के परिवार और उनके छोटे भाई को आर्थिक मदद के अलावा नया काम दिलवाया. आज उनके पास अपना ट्रैक्टर है और वह एक दिन के पांच सौ रुपये कमाते हैं.
भालुओं की संख्या कम
जिन भालुओं को लोगों से लिया गया वह बहुत ही बुरी स्थिति में थे. उनके नथूने में इन्फेक्शन था. दांत खराब हो चुके थे या फिर टीबी जैसी बीमारी से ग्रस्त थे क्योंकि वह मनुष्यों के साथ रहते थे. इन भालूओं को खाना भी समय पर नहीं दिया जाता. उन्हें अक्सर दाल रोटी या दूध खाना पड़ता. जिस कारण उनकी उम्र भी कम हो जाती.
दक्षिण एशिया में मिलने वाले स्लॉथ भालुओं की संख्या 30 फीसदी कम हो गई थी. अब वह 20,000 से भी कम हैं. इसका कारण भालुओं की तस्करी है और मादा भालुओं का मारा जाना है.
एएम/एमजी (एएफपी)