भारत को शिक्षा और स्वास्थ्य की अनदेखी भारी पड़ेगी
२५ सितम्बर २०१८विख्यात अंतरराष्ट्रीय जर्नल 'द लांसेट' में प्रकाशित एक अध्ययन में बताया गया है कि 1990-2016 के दौरान स्कूली शिक्षा, प्रशिक्षण, कौशल और स्वास्थ्य जैसे विषयों पर दुनिया के देशों में भारी उतार-चढ़ाव देखा गया है. भारत जैसे देश की स्थिति सोचनीय है जो अपनी श्रम पूंजी या ह्यूमन कैपिटल के मामले में फिसड्डी है. 195 देशों की सूची में उसका नंबर 158वां है. और यह तब है जबकि शिक्षा और स्वास्थ्य को लेकर 1990 के बाद न जाने कितने अभियान, कार्यक्रम, नीतियां और निवेश किए जा चुके हैं.
ताजा मामला पिछले दिनों लागू हुई स्वास्थ्य बीमा की आयुष्मान भारत योजना का है. हालांकि इस अध्ययन में 2016 तक की ही तस्वीर पेश की गई है लेकिन अलग अलग वैश्विक सूचकांकों में 2017 और 2018 का अब तक का हाल भी भारत के लिए संतोषजनक तो नहीं कहा जा सकता.
भारत में ह्यूमन कैपिटल की बदहाली कोई छिपी हुई बात नहीं है. और यह भी छिपा नहीं है कि अमीर और गरीब के बीच खाई निरंतर चौड़ी हुई है और संसाधनों पर कब्जे भीषण हुए हैं. लांसेंट पत्रिका में प्रकाशित यह रिपोर्ट भले ही यूनिवर्सिटी ऑफ वाशिंगटन के हेल्थ मीट्रिक्स और इवैल्युएशन संस्थान के एक विशद् अध्ययन से सामने आई हैं, लेकिन इसे यह कहकर खारिज नहीं किया जा सकता कि एक यूनिवर्सिटी का डाटा भला इतनी बड़ी दुनिया के इतने सारे देशों के इतने सारे लोगों से जुड़ी जमीनी हकीकत को कैसे दर्ज कर सकता है.
रिपोर्ट में डाटा संग्रहण की प्रविधि और प्रक्रिया ध्यान खींचती है. इसे वास्तविक हालात के बरक्स रख कर देखें तो इसकी विश्वसनीयता और प्रामाणिकता पर संदेह नहीं रहता. बेशक कुछ कमियां भी हैं. कुल आकलन बताता है कि दुनिया के कई देश अपने मानव संसाधनों का बेहतर इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं. ना वे शिक्षा और स्वास्थ्य को समग्र विकास की अवधारणा से जोड़ना चाह रहे हैं और ना सार्वजनिक पूंजी को बढ़ा पा रहे हैं.
विशेषज्ञ इस बात को बार बार रेखांकित करते रहे हैं कि किसी देश का ह्यूमन कैपिटल तभी निर्मित होता है, जब उस देश की आर्थिक उत्पादकता में योगदान करने वाली वर्क फोर्स बेहतर तौर पर शिक्षित, स्वस्थ, जानकार और कौशल संपन्न हो.
शिक्षा और स्वास्थ्य पर केंद्रित इस अध्ययन में पता लगाने की कोशिश की गई थी कि व्यक्ति कितनी शिक्षा हासिल कर पाता है और कितने लंबे समय तक उसमें प्रभावी कार्यक्षमता बनी रहती है. किस देश ने ह्यूमन कैपिटल पर कितना निवेश किया और उसका क्या हासिल रहा- यह भी इस रिपोर्ट में बताया गया है. क्योंकि इससे ही पता चलता है कि कोई देश अपनी अर्थव्यवस्था को बढ़ाने की कितनी क्षमता रखता है. जैसे अमेरिका की ही बात करें तो वह छठें स्थान से खिसककर 27वें पर आ गया है.
इस सूची में यूरोप के देश टॉप स्थानों पर हैं. सबसे ऊपर फिनलैंड, आइसलैंड, डेनमार्क और नीदरलैंड्स और पांचवे नंबर पर ताइवान है. एशिया से दूसरा देश दक्षिण कोरिया है जो टॉप 10 में आता है. बाकी यूरोपीय देश ही हैं- नॉर्वे, लक्जमबर्ग, फ्रांस और बेल्जियम. लेकिन यूरोप का एक प्रमुख देश और दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाला जर्मनी इस लिस्ट में 21वें नंबर पर है.
विश्व आर्थिक मंच ने भी इस तरह का ह्यूमन कैपिटल सूचकांक 2017 में जारी किया था, जिसमें भारत का नंबर 130 देशों की सूची में 103 पर था. दक्षिण एशिया में श्रीलंका और नेपाल की रैंकिंग उससे ज्यादा थी. भारत के समक्ष बेरोजगारी और असमानताएं बड़ी चुनौतियां मानी जाती हैं. रोजगार सिकुड़ रहे हैं, नए अवसर नहीं बन रहे हैं. कुल मिलाकर समावेशी विकास का सूचकांक नीचे गिर रहा है. और यह तब हो रहा है जबकि भारत तेजी से विकसित होती अर्थव्यवस्था वाला देश है जिसके पास प्रचुर सामर्थ्य, संसाधन, कौशल और तकनीक उपलब्ध है.
वैश्विक सूचकांकों में ऐसी खराब स्थिति का अर्थ यह है कि पूरी विकास प्रक्रिया और उसे लागू करने की नीतियों और इच्छाशक्ति में ही कहीं झोल है. सार्वजनिक पूंजी पर निजी सेक्टर का निवेश हावी है. आर्थिक सुधारों से विषमता कम होने का दावा किया गया था लेकिन ऐसा नहीं हुआ है. संसाधन मुट्ठी भर लोगों के हाथों में आ गए हैं. वैसे भारत की संपत्ति का आकार भी बढ़ा है लेकिन इसका लाभ गरीबों और वंचितों को नहीं मिला है. बात वहीं पर आकर ठहरती है कि शिक्षा और स्वास्थ्य की बेहतरी से बेहतर ह्यूमन कैपिटल बनाने की. उस काम ने गति ही नहीं पकड़ी. यानी सबकी गतिशीलता मे कई किस्म के अवरोध हैं. उन्हे चिंहित करने और हटाने की जरूरत है.
2030 तक समावेशी और सतत आर्थिक विकास, मुकम्मल रोजगार और कार्यक्षमता विकास के संयुक्त राष्ट्र लक्ष्यों से भारत भी जुड़ा है. लेकिन योजनाओं के अमल के तरीकों और प्रकियाओं पर भी पारदर्शिता बनाए रखने की जरूरत है. रिपोर्टों और अध्ययनों पर मुंह बिसोरने या उनमें कोई साजिश देखने से ज्यादा हालात को बेहतर बनाने की दिशा में कार्य जारी रहना चाहिए. क्योंकि मानव संसाधन की बेहतरी के पैमाने को अलग कर सिर्फ आर्थिक सुधार और निवेश के बल पर समृद्धि को नहीं आंका जा सकता है.