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मजहबी जुनून में हवा हो गई एकता

१२ सितम्बर २०१३

मुजफ्फरनगर के कवाल गांव में छेड़खानी की एक घटना के बाद सदियों से मजबूत रहे रिश्ते तार तार हो गए. मजहबी जुनून ने जॉली, बसी और पुरबालियान गांवों में खूब खून खराबा किया.

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तस्वीर: picture alliance/AP Photo

दंगे में एक पत्रकार, एक फोटोग्राफर सहित करीब 40 की लोगों की मौत हो गई. 50 घायल हुए और हजारों का पलायन. मुहब्बत के दुश्मन के रूप में कुख्यात मुजफ्फरनगर ने सांप्रदायिक नफरत में भी खूब नाम कमाया. सामाजिक ताना बाना बिखर गया. नाम के आगे हिंदुओं की तर्ज पर गौड़, त्यागी, मलिक, बालियान, राणा, चौधरी सरनेम वाले मुसलमानों को उन्हीं के गोत्र और खाप वालों ने मारा तो मुसलमानों ने भी जहां पाया अपनी ही खाप को खोद डाला.

लोग हैरान हैं कि जाट समुदाय के मन में मुसलमानों के प्रति इतनी नफरत कैसे पैदा हो गई और मुसलमानों ने उन पर हाथ कैसे उठा दिया. अंसारी रोड पर करीब 45 वर्षों से मनसब गेस्ट हाउस चला रहे सफदर गौड़ को आज भी इस बात पर गर्व है कि वे गौड़ ब्राह्मण हैं. उनके बेटों के नाम शहंशाह गौड़ और शादाब गौड़ हैं. कहते हैं, "हमारी पंचायतें एक हैं सामाजिक रिश्तों तक तो ठीक है, पर हिंदू मुस्लिम शादियां मंजूर नहीं." इस बात को भी मानते हैं कि अगर मजहब आड़े नहीं आता तो सब एक होते. मजहब कहां से आया, इस पर कहते हैं, "हमारे पूर्वजों ने इस्लाम कबूल कर लिया, पर खाप और गोत्र थोड़े बदल गया. हमारा आपस में कोई झगड़ा ही नहीं है."

मेरठ यूनिवर्सिटी में समाजशास्त्र के प्रोफेसर रहे डॉक्टर अशोक शास्त्री के मुताबिक 20-25 पीढ़ी पहले सब एक ही परिवार थे. जो सामाजिक रस्में हैं वे भी एक ही हैं. उन्होंने कहा, "अकबर के जमाने में बिना किसी दबाव के इन्होंने इस्लाम कबूल किया. तो माना ये जाता है कि ये हमारा घर छोड़ गए. आपसी सौहार्द के हर मौके तक तो पता नहीं चलता कि हम अलग हैं पर जब कोई चिंगारी भड़कती है तो तलवारें खिंच जाती हैं क्योंकि वही पुराना घाव हरा हो जाता है कि ये वही हैं जो घर छोड़ कर चले गए थे."

Indien Armee Gewalt in Uttar Pradesh 08.09.2013
तस्वीर: Reuters

डॉक्टर शास्त्री इस बात को भी स्वीकार करते हैं कि गोत्र और खाप पर मजहब हावी हो चुका है. सफदर भी मानते हैं कि तबलीगी जमात का असर बढ़ा है. भारत में मुजफ्फरनगर के कांधला से ही तबलीगी जमात ने पैर पसारे. पड़ोस में देवबंद की सियासी धमक भी बढ़ी और प्रतिक्रिया में बहुसंख्यक समाज की नफरत सामने आती गई.

हालांकि प्रेम विवाह पर अभी भी डाक्टर शास्त्री को एतराज है. उनके मुताबिक एक ही गोत्र का लड़का और लड़की भाई बहन होते हैं तो उनमें शादी कतई मान्य नहीं, चाहें कोई हिंदू हो या मुसलमान. जब जींस, स्कर्ट, मोबाइल फोन पर पाबंदी लगाने में हिंदू मुस्लिम एक हैं तो फिर इतना बड़ा दंगा कैसे हो गया. डॉक्टर शास्त्री का कहना है, "इसके लिए सियासत जिम्मेदार है, अब सिर्फ एक ही बात होती है कि किसको कितनी सीटें चाहिए. तो उसी हिसाब से गिनती होती है, उसी गिनती में समाज बंट गया." सफदर गौड़ भी इससे सहमत हैं. पश्चिमी यूपी के ज्यादातर जिलों में मुस्लिम आबादी 35-40 फीसदी है. सभी पार्टियों को इनका एकमुश्त वोट चाहिए. जबकि गन्ने की काश्त और सियासत पर करीब 17 फीसदी जाट समुदाय वर्चस्व बनाए है.

राशिद खान सामाजिक कार्यकर्ता हैं. अपनी सक्रियता से उन्होंने इस दंगे में सौ से अधिक मुस्लिम परिवारों को सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाया. कहते हैं कि "समझ में नहीं आता कि अब जाट और मुस्लिम साथ साथ कैसे रहेंगे. गन्ने की खेती कैसे होगी, धान कटने को खड़ा है. कहां से आएंगे ट्रैक्टर जुगाड़. सब कुछ तो साझा है." बताते हैं कि जाट और मुसलमानों के बीच तो बाबरी मस्जिद विध्वंस में भी सौहार्द बना रहा लेकिन इस बार नफरत की खाई इतनी बढ़ी कि सेना भी संभाल नहीं सकी और हिंसा गांवों तक फैल गई.

राकेश चैहान और सुनील चौधरी जाट हैं, जो कुछ हुआ उस पर दोनों को गुस्सा है. बताते हैं कि बीजेपी नेता हुकुम सिंह और समाजवादी पार्टी के स्वर्गीय नेता मुनव्वर चौधरी के परिजन एक खाप, एक ही परिवार के गूजर हैं. अभी भी परिवार की तरह मिलते हैं लेकिन धर्म और राजनीतिक विचारधारा एकदम अलग.

भाकियू की कमजोरी

मेरठ के अवधेश कुमार यूपी सरकार में अफसर हैं, बताते हैं कि महेंद्र सिंह टिकैत की मौत ने पश्चिमी यूपी की सामाजिक तस्वीर बदल दी. उन पर कभी राजनीतिक रंग नहीं चढ़ा, कभी किसी का पक्ष नहीं लिया. लेकिन उनके वारिसों ने उनकी मूर्ति का अनावरण बीजेपी अध्यक्ष से कराया. दंगे में सबसे अधिक नुकसान किसान यूनियन का ही हुआ क्योंकि इसके 40 फीसदी कार्यकर्ता तो मुस्लिम हैं. अब उनको यूनियन से जोड़ने वाला कोई नहीं. सफदर गौड़ और डॉक्टर शास्त्री भी इस बात से सहमत हैं कि किसान यूनियन कमजोर हुई तो सियासत हावी हो गई.

रिपोर्टः एस वहीद, लखनऊ

संपादनः एन रंजन