महंगा बिकता पानी
१३ मई २००९नदियों के देश भारत की राजधानी दिल्ली के किनारे यमुना बहती है लेकिन उसका हाल सबको पता है. राजधानी में पीने के पानी की कमी है तो उड़ीसा, बिहार में बाढ़, वहीं कई इलाके सूखे से जूझ रहे हैं.
भारत सरकार चाहती है कि पानी का निजीकरण कर दिया जाए लेकिन ग़ैर सरकारी संगठन इसके भारी विरोध में हैं. भारत के कुछ ग़ैर सरकारी संगठन जर्मनी के साथ मिल कर काम कर रहे हैं कि जल बिन सब सून न हो जाए.
2009 में तुर्की के शहर इस्तांबूल में विश्व जल मंच की बैठक हुई थी जिसमें पानी को मौलिक अधिकार बनाने पर ज़ोर दिया गया. संयुक्त राष्ट्र की वरिष्ठ अधिकारी मॉड बार्लो ने चेतावनी दी कि दुनिया भर में पेयजल की लगातार कमी हो रही है. और उनका आरोप है कि विश्व जल मंच पानी को एक उपभोक्ता वस्तु की तरह देख रहा है. बार्लो के मुताबिक 2008 के दौरान दुनिया भर में कंपनियों ने बीस करोड़ लीटर पानी ऐसी बोतलों में बेचा जिन्हें रिसाईकल नही किया गया यानी फिर से उपयोग में नहीं लाया गया.
भारत की स्थिति भी पेयजल के मामले में कोई ख़ास अच्छी नहीं है. सरकार पानी का निजीकरण करना चाहती है, ताकि समस्या हल हो सके. लेकिन क्या ये वाकई समस्या का हल है. ग़ैर सरकारी संगठन पानी के निजीकरण के साफ़ ख़िलाफ़ हैं.. वे पानी के प्रति लोगों में जागृति पैदा करना चाहते हैं. ऐसे ही एक प्रयास के तहत "वॉटर एंड डेमोक्रेसी" प्रोजेक्ट शुरू किया गया है. जर्मनी में विकास कार्यों के लिये काम करने वाली एक संस्था 'इवांगेलिशर एंटविकलुंगडीन्स्ट' में भारत के गैर सरकारी संगठन के कुछ कार्यकर्ता आए हुए थे.
विकास के दौर से ग़ुज़रते भारत में अब भी क़रीब 90 फ़ीसदी पानी खेती और सिंचाई के लिये इस्तेमाल किया जाता है. तीन प्रतिशत पानी का इस्तेमाल कारख़ाने करते हैं और पांच फ़ीसदी पानी घरों में इस्तेमाल होता है. लेकिन कारख़ानों के कारण ज़मीनी पानी सबसे ज़्यादा प्रदूषित होता है.
केरला के प्लाचीमाड़ा का उदाहरण देते हुए अवंती राव कहती हैं कि "जब कोल्डड्रिंक के कारख़ानों की वजह से गांव के कुओं में पानी काला होने लगा तब लोगों में जागृति आई और उन्होंने विरोध किया".
भारत की सरकार और उसके महा प्रोजेक्ट अब तक गंगा और यमुना जैसी नदियों को साफ़ नहीं कर सके हैं. पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था कि भारत की सभी नदियों को जोड़ देंगे ताकि पानी की समस्या हल हो सके, सरकार बदली और योजनाएं पानी में डूब गई. नदियां तो नहीं जुड़ी लेकिन बांध ज़रूर खड़े हुए.
दूसरी एक समस्या है कि किसान अपने फ़ायदे के लिये ऐसे इलाक़ों में ज्यादा पानी ख़र्च होने वाली फसल बो रहे हैं जहां पानी की भारी कमी है. अवंती राव एक उदाहरण देती हैं "आध्रप्रदेश का अनंतपुर जो कि मूंगफली के लिये प्रसिद्ध है वहां किसान चावल बो रहे हैं क्योंकि उसमें फ़ायदा ज़्यादा है. लेकिन हम लोग फ़िलहाल किसानों के साथ प्रोजेक्ट कर रहे हैं कि आधे पानी में कैसे चावल की खेती हो सकती है क्योंकि अनंतपुर आंध्रप्रदेश का ऐसा इलाका है जहां बहुत कम बारिश होती है. तो गांव के किसानों ने ही मिल कर तय किया है कि वे और बोरवेल नहीं खोदेंगे, और किसान आपस में पानी को बांट लेंगे और ऐसी फ़सलें नहीं उगाएंगे जिसमें पानी ज़्यादा लगता हो."
ग़ैर सरकारी संगठनों का मानना है कि सरकार पानी का निजीकरण करके लोगों को दूर कर रही है. अगर लोगों को इस समस्या के हल के लिये साथ जोड़ा जाए तो मुश्किल आधी हो जाएगी. दूसरी एक समस्या भारत में है वो भूगर्भीय जल की है जिसका स्तर लगातार कम होता जा रहा है. सेंटर फॉर वर्ल्ड सोलिडैरिटी के राम मोहन कहते हैं कि कुओं की संख्या पिछले 15 साल में दोगुनी से ज़्यादा हो गई जिसके कारण ज़मीन में पानी के स्तर में भारी कमी आई. लेकिन जो बावड़ियां, कुएं, झीलें हमारे पुरखों ने पानी इकट्ठा करने के लिये बनाई थी वो अब कचरा भरने की जगहें बन गई हैं, यहीं नहीं तो इन ज़मीनों को प्लॉट्स बना कर बेचा जा रहा है.
वहीं ग़ैर सरकारी संगठन के एक और कार्यकर्ता विलफ्रीड डी कोस्टा कहते हैं कि "पानी की क़ीमत बढ़ाने से कोई हल नहीं निकलेगा. पानी की क़ीमत बढ़ाने का एक ही मतलब है कि ग़रीब पानी से वंचित हो जाएंगे. जो अमीर हैं उन्हें इससे कोई फर्क़ नहीं पड़ेगा क्योंकि वे जितनी चाहे उतनी क़ीमत पर पानी ख़रीद सकते हैं. "
विलफ्रीड डिकोस्टा कहते हैं कि "पानी के प्रति लोगों में जागरूकता बढ़ाई जानी चाहिये. पानी जीवन का स्रोत है तो लोगों को पानी का महत्व उसका मूल्य समझ में आना चाहिये और इसका सबसे अच्छा तरीका है लोगों को समस्या से जोड़ना."
"सरकार ने अब तक बांध बनाए पानी को एक वस्तु के तौर पर पेश किया, नलों में पानी आने लगा. इस कारण लोगों का पानी और प्रकृति से जो जुड़ाव था वो ख़त्म हो गया."
लोगों को पानी को बचाने की कोशिशि के बारे में जागृत करने के लिये कई गांवों में "पानी पंचायत चलाई जा रही है. इसमें कोई बड़े नाम नहीं हैं सब काम सामान्य लोग ही करते हैं. ये लोग ख़ुद ही अपने इलाके में पानी से जुड़ी समस्याओं उसके स्रोतों का विश्लेषण करते हैं और ख़ुद ही निर्णय लेते हैं कि किस तरह पानी को इस्तमाल किया जाए".
अवंती राव से ये पूछे जाने पर कि वे जर्मनी में पेयजल या जल प्रबंधन को किस दृष्टि से देखती हैं उन्होंने उम्मीद ज़ाहिर की कि "हम उम्मीद करते हैं कि भारत में भी एक दिन ऐसा आएगा कि हम कहीं भी कोई भी नल खोल कर पानी पी सकेंगे और आश्वस्त भी रहेंगें कि हमें कोई बीमारी नहीं होगी".
रिपोर्ट- आभा मोंढे