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समाज

महिला माओवादियों को सैनिटरी पैड्स

१८ नवम्बर २०२०

भारत में सुरक्षा बलों के खिलाफ लड़ रहे माओवादी लड़ाकों में महिलाएं भी बड़ी संख्या शामिल हैं. उनकी तरफ शांति का हाथ बढ़ाने के लिए कुछ लोगों ने एक अनोखी चीज को जरिया बनाया है. सैनिटरी पैड्स को.

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तस्वीर: Archana Sharma

छत्तीसगढ़, ओडिशा और झारखंड जैसे राज्यों में दशकों से माओवादी लड़ाके सक्रिय हैं. उन्हें देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए मौजूद सबसे बड़ी चुनौतियों में गिना जाता है. जंगलों में रहने वाले ये लोग सुरक्षाकर्मियों पर कई बार बड़े हमले कर चुके हैं. उनका कहना है कि वे गरीब किसानों और भूमिहीन श्रमिकों के अधिकारों के लिए लड़ रहे हैं.

इनकी संख्या दसियों हजार बताई जाती है. लगभग ढाई हजार महिला माओवादी लड़ाकों को शांति कोशिशों में शामिल करने के लिए छत्तीसगढ़ के कुछ कार्यकर्ता उनके बीच रियूजेबल सैनिटरी नेपकिंस और मेंसुरल कप बांट रहे हैं. सामाजिक कार्यकर्ता शुभ्रांशु चौधरी ने थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन को बताया, "क्या हम हिंसा का चक्र तोड़ कर बातचीत शुरू कर सकते हैं? हम हिंसा और हिंसक राजनीति के खिलाफ माहौल तैयार करना चाहते हैं और शांति कायम करना चाहते हैं."

वह कहते हैं, "कार्यकर्ता मानते हैं कि एक बार महिलाएं अपने पुरूष साथियों को भरोसा दिला पाएं तो फिर उन्हें शांति प्रक्रिया में शामिल करना संभव हो सकता है." चौधरी कहते हैं कि उन्हें यह आइडिया दक्षिण अमेरिकी देश कोलंबिया से मिला, जहां लड़ने वाले विद्रोहियों को क्रिसमस के तोहफे के तौर पर सैनिटरी पैड्स भेजे गए. यही सोचकर उन्होंने दीवाली पर महिला माओवादी लड़ाकों को ऐसे पैड्स भेजे.

अकसर भारतीय सुरक्षा बलों को निशाना बनाने वाले इन माओवादी लड़ाकों को नक्सली भी कहा जाता है. पश्चिम बंगाल के एक गांव नक्सलबाड़ी में इस आंदोलन की शुरुआती हुई. उसी के नाम पर इस आंदोलन का यह नाम पड़ा.

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जहां माओवादी सक्रिय हैं, वे भारत के सबसे पिछड़े इलाकों में गिने जाते हैंतस्वीर: Parth Sanyal/REUTERS

शांति की मुश्किल राह

अधिकारी कहते हैं कि शांति के लिए हिंसा का रास्ता छोड़ना जरूरी है. एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी सुंदरराज पी कहते हैं, "राज्य के नजरिए से देखें, तो हम किसी के साथ तभी बात करेंगे, जब वह पूरी तरह हिंसा को छोड़ दे और राष्ट्रीय मुख्यधारा में शामिल हो. अगर वे जंगलों में रहकर राज्य के खिलाफ लड़ रहे हैं, तो फिर हम कैसे उनकी जिंदगी को आरामदायक बनाने के बारे में सोच सकते हैं."

भारत में बहुत सारी महिलाओं को पीरियड्स के दिनों में सैनिटरी उत्पाद नहीं मिल पाते. कई बार उनके पास इन्हें खरीदने के पैसे नहीं होते तो कई बार उनकी पहुंच ऐसे उत्पादों तक नहीं होती. 2015-16 में किए गए एक सरकारी सर्वे के अनुसार भारत में हर तीन में से सिर्फ एक महिला ही नैपकीन इस्तेमाल करती है. बाकी महिलाएं पुराने कपड़े इस्तेमाल करती हैं.

महिला अधिकारों के लिए काम करने वाली संस्था आइना की सचिव स्नेहा मिश्रा महिला माओवादी लड़ाकों के बीच सैनिटरी पैड्स बांटने की पहल का स्वागत करती हैं. लेकिन वह कहती हैं कि ऐसी पहलों में सरकार को शामिल किया जाना चाहिए. वह कहती हैं, "पहल अच्छी है. उन महिलाओं को ऐसी चीजें नहीं मिलती होंगी. लेकिन सिविल सोसाइटी संस्थाओं को सरकार से बात करनी चाहिए."

एके/ओएसजे (थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन)

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