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मातृभाषा में बीटेक से किसका फायदा किसका नुकसान

शिवप्रसाद जोशी
१ जनवरी २०२१

आईआईएम की स्वायत्तता में सरकारी दखल का विवाद थमा भी नहीं कि देश के सभी आईआईटी के लिए शिक्षा मंत्रालय का एक आदेश सरदर्द बन गया है. यह आदेश है- बीटेक  कोर्सों  की पढ़ाई नये सत्र से  मातृभाषा में भी करानी होगी.

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Indien Westbengalen | Statistisches Institut in Kalkutta
तस्वीर: Payel Samanta/DW

आईआईटी को डर है कि मातृभाषा में पढ़ाई का विकल्प रखने से संस्थानों के राष्ट्रीय स्वरूप को चोट पहुंचेगी और उनकी अकादमिक प्रतिष्ठा भी गिरेगी. बीटेक की पढ़ाई अंग्रेजी में ही कराई जाती रही है और भारतीय भाषाओं में इंजीनियरिंग विषयों की किताबें नगण्य हैं. सरकार के इस आदेश के समर्थकों और जानकारों का दावा है कि इससे भारतीय भाषाओं के विकास में सहायता मिलेगी और उन्हें अंग्रेजी और हिंदी के बरअक्स प्रतिस्पर्धा में आगे आने और लोकप्रिय होने का मौका मिलेगा. दूसरी ओर आईआईटी प्रबंधनों के अलावा शैक्षिक जगत के कई विशेषज्ञ मानते हैं कि सरकार का फैसला ना सिर्फ भारतीय भाषाओं के लिए बल्कि छात्रों के लिए भी आगे चलकर नुकसानदेह होगा.

केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय ने देश के सभी 23 आईआईटी को नये सत्र से बीटेक पाठ्यक्रम, मातृभाषा में शुरू करने को कहा है. इस आदेश का मतलब यह है कि जो आईआईटी जिस राज्य में है वह कंप्यूटर साइंस, इलेक्ट्रॉनिक्स, और सिविल इंजीनियरिंग जैसे विषयों की पढ़ाई, अंग्रेजी के अलावा उस राज्य की प्रमुख भाषा या मातृभाषा में भी कराएगा. हर आईआईटी को क्षेत्रीय भाषा में पढ़ने वाले छात्रों के लिए 50 अतिरिक्त सीटें रखनी होगीं. जानकारों के मुताबिक हर संस्थान में सीटें जोड़ने का मतलब छात्रों की संख्या में आठ प्रतिशत की बढ़ोतरी है.

आईआईटी आर्थिक रूप से कमजोर तबकों (ईडब्लूएस) के छात्रों के लिए पिछले दो साल से 25 प्रतिशत सीटें पहले ही बढ़ा चुके हैं. अधिक सुविधाओं के लिए उन्हें अधिक फंड की जरूरत पड़नी है. टेलीग्राफ अखबार की एक रिपोर्ट में प्रकाशित एक अधिकारी के बयान के मुताबिक इन संस्थानों को सरकार ने आरक्षण लागू करने से जुड़े खर्चों के लिए 2020 में 429 करोड़ रुपये आवंटित किए हैं, जबकि उन्हें 20 हजार करोड़ रुपये से अधिक की जरूरत है. सीटें बढ़ाने का मतलब लैब, मेस, हॉस्टल और क्लासरूम की सुविधाएं बढ़ाने से भी है. बड़े पैमाने पर किताबें और भाषा के जानकार शिक्षक तैयार करने होंगे. एक पूरी वैकल्पिक अकादमिक व्यवस्था खड़ी करनी होगी. अगर उद्देश्य यह है कि अंग्रेजी में ना पढ़ पाने वाले प्रतिभाशाली छात्रों को आईआईटी में अपनी भाषा के जरिए आने का मौका मिलना चाहिए तो ये एक अच्छी बात है. हालांकि इससे जुड़ी चुनौतियों से निपटना भी जरूरी है.

Indien Raumfahrtprogramm ISRO
क्षेत्रीय भाषाओं में पढ़ाई से आईआईटी की गुणवत्ता पर भी असर पड़ने की आशंका जताई जा रही है.तस्वीर: Getty Images/AFP/S. D´Souza

वैसे एक पक्ष यह है कि अंग्रेजी के वर्चस्व की शिकायतें अक्सर की जाती हैं और भारतीय भाषाओं में हिंदी का ही बोलबाला राजनीतिक सामाजिक सांस्कृतिक हल्कों में रहता आया है- तो इस प्रवृत्ति को तोड़ने के लिए भी भारतीय भाषाओं को आगे लाना जरूरी है. राजनीतिक तौर पर देखें तो सभी राज्यों में सरकारी कामकाज की भाषा या तो अंग्रेजी है या वहां की प्रमुख मातृभाषा. चाहे वो केरल तमिलनाड हों या गुजरात पंजाब या पश्चिम बंगाल ओडीशा. इसीलिए त्रिभाषी फॉर्मूले को लेकर गतिरोध और विवाद भी बने हुए हैं और दक्षिण भारत के राज्य इसे लागू करने से साफ इंकार करते रहे हैं.

हालांकि यहां बात राज्यों की नहीं है, संस्थान हिचक रहे हैं. उनका दावा है कि भारतीय भाषाओं का विकास इस रास्ते से होना संभव भी नहीं है. बल्कि इससे आईआईटी की गुणवत्ता और छात्रों के दाखिलों में अपनाए जाने वाले निश्चित मानदंडों की गरिमा प्रभावित हो सकती है. हालांकि एक पहलू ये भी है कि शुरुआती झंझटों के बाद हो सकता है मुश्किलें कम होती जाएं. लेकिन फिर घूम फिर कर बात वहीं आती है कि भारतीय भाषा में पढ़कर छात्रों का करियर कैसा होगा. शोधकार्य को ही लें. कौनसे अंतरराष्ट्रीय जर्नलों में उनके शोधपत्र प्रकाशित होंगे, भारतीय भाषाओं में जर्नल निकलने भी लगें तो अंतरराष्ट्रीय अकादमिक या औद्योगिक जगत में उनकी क्या मान्यता होगी. बीटेक हासिल कर छात्र रोजगार की तलाश करेंगे तो वहां उनकी अपनी भाषा ही उनके लिए दीवार ना बन जाए, ये आशंका भी है. सभी राज्यों की प्रमुख भाषाओं को एक व्यापक उद्योग या रोजगार बाजार की भाषाएं बनाना भी व्यवहारिक रूप से संभव नहीं दिखता. यह एक भीमकाय, व्यापक और गहन एक्सरसाइज होगी- किताबों को भारतीय भाषाओं में लाना, कॉपीराइट के मसले, मौलिक लेखन से लेकर अनुवाद कार्य तक.

एक तथ्य यह भी है कि यूरोपीय उच्च शिक्षा क्षेत्र प्रस्तावित करने वाले 1999 के बोलोनिया घोषणापत्र के बाद से पूरी दुनिया में इंग्लिश मीडियम इन्स्ट्रक्शन (इएमआई) कार्यक्रमों में तेजी आई है. टेलीग्राफ अखबार की एक रिपोर्ट से पता चलता है कि ना सिर्फ चीन और जापान में इएमआई पाठ्यक्रमों को प्रोत्साहित किया जा रहा है बल्कि जर्मनी के बर्लिन, ब्रेमन, लाइपजिष जैसे टॉप 30 विश्वविद्यालयों में अंग्रेजी को भी पढ़ाई का वैकल्पिक माध्यम बनाया गया है.

ज्यादा बेहतर तो यही माना जा सकता है और भारत के अधिकांश राज्यों में ऐसा हो भी रहा है कि कि प्राइमेरी, सेकेंडरी और हायर सेकेंडरी की शिक्षा मातृभाषाओं में दी जाए. यह भी ध्यान रखना जरूरी है कि ये काम भी एक सुचिंतित तालमेल के साथ किया जाए जिससे अन्य भाषाओं के साथ उनका टकराव ना हो. मातृभाषा में पढ़ाई हो और करियर बनाने का रास्ता भी बन जाए तो इससे बेहतर क्या हो सकता है लेकिन वैश्विक दौर में एक समान भाषा की जरूरत पर अधिक जोर है. इतनी ऊर्जा और इतने अपार संसाधन उच्चशिक्षा के पहले से कमजोर चले आ रहे ढांचे को सुधारने में खर्च किये जाते और भारतीय भाषाओं में बीटेक आननफानन में शुरू करने से पहले एक दूरगामी परियोजना बनाई जाती. सबसे पहले किताबों की उपलब्धता, टीचरों की ट्रेनिंग और सकारात्मक मनोवैज्ञानिक माहौल बनाने जाने की जरूरत है.

अगर भारतीय भाषाओं की एंट्री सिर्फ राजनीतिक हितों या निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए की जाएगी या जैसी कि आशंका कुछ जानकारों ने जताई है कि इसके जरिए एक आला स्तर वाली परीक्षा से चयनित होने वाले छात्रों के बरअक्स दाखिले का पिछला दरवाज ना खुल जाए, तो ऐसी तमाम स्थितियों में ये समूचे शैक्षिक पर्यावरण के लिए घातक और भारतीय संस्थानों की साख के लिए बड़ा नुकसानदेह होगा. भारतीय भाषाओं का विकास निश्चित रूप से जरूरी है लेकिन इसके लिए टॉप-डाउन अप्रोच के बजाय बॉटम-अप रणनीति ही अधिक कारगर हो सकती है. 

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