यहां हर चुनाव में दर्जनों जानें चली जाती हैं
२२ अप्रैल २०१९पी जयराजन अपने हाथ को हल्के से ऊपर उठाते हैं और दिखाते हैं हथेली का वो खाली हिस्सा, जहां पहले कभी उनका अंगूठा हुआ करता था. उनका अंगूठा पिछले चुनाव अभियान में हुई हिंसा में काट डाला गया था. "वो मुझे मेरी पत्नी और परिवार के सामने मारना चाहते थे लेकिन मैं बच निकला..." बस इतना बोलते-बोलते वामपंथी नेता जयराजन का गला भर उठता है. केरल में चुनावी माहौल में होने वाली हिंसा यहां सक्रिय राजनेताओं के लिए आम बात है. केरल में करीब 3.5 करोड़ वोटर हैं.
67 साल के जयराजन कहते हैं, "मैंने अपना अंगूठा खो दिया और मेरी बांह भी काट दी गई. बाद में बांह तो जुड़ गई लेकिन अब इस हिस्से में कुछ महसूस नहीं होता." राज्य में होने वाली चुनावी हिंसा के वह इकलौते पीड़ित नहीं है, बल्कि पिछले दो दशकों के दौरान केरल में दर्जनों लोग मौत के घाट उतारे गए हैं.
जयराजन पर दो दशक पहले भी हमला हुआ था, हालांकि विरोधी दल जयराजन पर भी इस तरह के हमले भड़काने का आरोप लगाते रहे हैं. जयराजन ऐसे सभी आरोपों को खारिज करते हैं. लेकिन केरल के वडकरा क्षेत्र से जयराजन की उम्मीदवारी ने एक बार फिर केरल की राजनीति में गहमागहमी पैदा कर दी है.
इसी साल फरवरी में मतदान की तारीखों के घोषित होने के बाद, विपक्षी दल कांग्रेस के दो कार्यकर्ताओं की हत्या कर दी गई. कांग्रेस और वाम दलों के कार्यकर्ताओं के बीच प्रदेश में संघर्ष लंबे वक्त से चला आ रहा है. वाम दलों के सामने सिर्फ कांग्रेस से ही निपटने की ही चुनौती नहीं है, बल्कि उनके सामने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) भी अपनी जमीन पसार रहा है. राजनीतिक लेखक उल्लेख एनपी कहते हैं कि जब से केरल में बीजेपी और आरएसएस और सक्रिय हुए हैं तब से बदले की राजनीति तेज हो गई है. उन्होंने कहा कि ऐसा रक्तपात केरल पर बड़ा धब्बा है.
उल्लेख के मुताबिक हिंसा सबसे पहले कांग्रेस पार्टी ने शुरू की थी. वे मानते हैं, "कांग्रेस ने विरोधी खेमों के आंदोलनों को दबाने के लिए वही रणनीति अपनाई, जो स्वतंत्रता के पहले ब्रिटिश शासन अपनाता था. इस के जवाब में कम्युनिस्ट भी उग्र हो गए." उल्लेख मानते हैं कि अब यह विरोधी विचारधाराओं के लिए वर्चस्व स्थापित करने का मुद्दा बन गया है.
वर्चस्व की इस लड़ाई के चलते अब गांव के गांव किसी एक दल के वफादार बन गए हैं और आपसी प्रतिद्वंदियों के बीच लड़ाई-झगड़ा, मारधाड़ भी आम हो बात हो गई है. इतना ही नहीं, यहां होने वाली आपसी लड़ाई का भी हर पक्ष हिसाब किताब रखता है, जो बताता है कि कब कौन जीता और कौन हारा. राजनीतिक दुश्मनी के चलते मारे गए लोगों के लिए गांवों में स्मारक भी बने हुए हैं.
कम्युनिस्ट नेता एएन शमशीर कहते हैं, "मेरे जिले में हमारी पार्टी के 93 कार्यकर्ता शहीद हो चुके हैं." वहीं आरएसएस के स्थानीय कार्यालय की एक दीवार मारे गए कार्यकर्ताओं का हिसाब रखती है. इस दीवार पर कई कार्यकर्ताओं की तस्वीरें लटकी हुई हैं.
वडकारा के गांव थलासेरी में बढ़ई का काम करने वाले प्रवीण की तो ऐसी लड़ाइयों के चलते जिंदगी ही बदल गई. प्रवीण ने बताया, "मुझ पर आठ लोगों ने चाकू और छुरी से हमला किया गया. मुझे सिर में मारा गया, मेरे पैर पर चोट की गई." इस लड़ाई के चलते प्रवीण आठ महीने बिस्तर पर पड़ा रहा और आज वह लंगड़ा कर चलता है.
प्रवीण को अब ऐसे "जीवित शहीद" लोगों की श्रेणी में रखा गया है, जो लड़ाई-झगड़ा झेलने के बाद भी बच निकले हैं. प्रवीण तो बच निकला लेकिन गांव के कई लोग राजनीतिक दलों की इस लड़ाई में कई अपनों को गवां चुके हैं.
साल 1969 में बीएन लीला महज 19 साल कीं थी, जब उन्होंने आरएसएस से जुड़े अपने पति को ऐसी ही राजनीतिक हिंसा में खो दिया. लीला ने दोबारा कभी शादी नहीं की, वह कहती हैं, "मैं ऐसे लोगों को देखकर दुख और तकलीफ महसूस करती हूं जो आज भी यही सब झेल रहे हैं."
साल 1942 में आरएसएस में शामिल हुए सी चंद्रशेखर इस इलाके के वरिष्ठ नेता हैं. उन्होंने बताया, "आज भी इन लड़ाई-झगड़ों में चाकू-छुरी का इस्तेमाल होता है. लेकिन पिछले तीन दशक से बम भी इस्तेमाल होने लगे हैं."
चंद्रशेखर कहते हैं कि स्थिति तभी बदल सकती है जब पुलिस और प्रशासन निष्पक्ष तरीके से काम करें. जब तक ऐसा नहीं होता तब तक बदलाव की उम्मीद करना बेकार है.
एए/आरपी (एएफपी)