रंग और वजूद के भंवर में फंसी हैं भारतीय महिलाएं
५ मार्च २०२१कई दशक पहले भारत की सरहद पार कर एक नए देश और बिल्कुल अलग परिवेश में कदम रखने वाली भारतीय महिलाओं के सामने जहां अपनी सामाजिक-सांस्कृतिक पहचान के साथ नए सिरे से जिंदगी तराशने का सवाल था, वहीं यहां पैदा हुई नई पीढ़ी के सामने भी पहचान का संकट कम नहीं हुआ है. ब्रिटिश-भारतीय युवतियों की जिंदगी में त्वचा का रंग और जेंडर अब भी नकारात्मक भूमिका निभाता है. यही नहीं, उलझनों को और बढ़ाता है भारतीय परवरिश और ब्रिटिश परिवेश के बीच खुद को तलाशने का सफर. पुरानी पीढ़ी और नई पीढ़ी के नजरिए में टकराव की आहट भी है और बदले वक्त के साथ बदलने की जरूरत का अहसास भी.
वजूद, नजरिया और जेंडर
पच्चीस बरस की मानसी कल्याण ब्रिटेन के लेस्टर शहर में रहती हैं. वो ब्रिटेन में पैदा हुईं लेकिन भारतीयता उन्हें विरासत में मिली है यानी शारीरिक तौर पर गेहुआं रंग और एक घर जहां भारतीय होने के सांस्कृतिक मायने कदम-कदम पर समझाए जाते हैं. मानसी ने बातचीत में बताया कि ब्रिटिश-भारतीय पहचान उनके लिए एक ऐसी उलझन है जिसे सुलझाना उन्हें अपने बस की बात नजर नहीं आती. मानसी कहती हैं, "मैं खुशनसीब हूं कि मेरे घरवाले उतने रूढ़िवादी नहीं हैं जितना मैंने अपने दोस्तों के परिवारों में देखा है. मुझे पढ़ने और करियर चुनने की आजादी मिली लेकिन कहीं ना कहीं से कुछ ऐसा निकलेगा जिससे ये अहसास हो ही जाएगा कि मैं लड़की हूं. जैसे अगर मैं शाम को घर से बाहर निकलना चाहूं तो मेरे पापा थोड़ा हिचकिचाएंगे, ना जाने को कहेंगे. लड़की होने का डर भीतर इस कदर बसा हुआ है कि एक शाम आठ बजे के आस-पास मैं सड़क पर अकेले टहलने निकली. अचानक मुझे लगा कि मेरे पीछे कोई चल रहा है. मेरा हाथ पॉकेट में रखे एक छोटे से की-चेन की तरफ बढ़ गया और जब मैंने पलट कर देखा तो वो मेरी परछाई थी. मुझे समझ नहीं आता कि क्या ये सिर्फ भारतीय घर में बड़ा होने का असर है. मैं भारतीय हूं या ब्रिटिश, ये एक ऐसी मानिसक उलझन है जिससे उबरना नामुमकिन लगता है."
युवा पीढ़ी ब्रिटिश और भारतीय सामाजिक-सांस्कृतिक ढांचों के बीच अपना वजूद तलाशने की जद्दोजहद में है लेकिन अब से दशकों पहले ब्रिटेन आने वाली भारतीय महिलाओं के लिए शायद ये उलझन उतनी बड़ी नहीं थी. राधिका हावर्थ ब्रिटेन की राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवा यानी नेशनल हेल्थ सर्विस (एनएचएस) में काम करती हैं और इंस्टाग्राम पर ‘रैडिकल किचेन' नाम के पेज के जरिए पहचानी जाती हैं. ग्वालियर में पलने-बढ़ने वाली राधिका, 1986 में अकेले ब्रिटेन आईं. वो बताती है, "नए देश में कुछ करने और पहचान बनाने का जुनून था. मैंने ये सफर अकेले शुरू किया लेकिन अपनी भारतीय पहचान को लेकर कभी कोई शक नहीं था. राधिका हावर्थ बताती हैं, "मुझे हमेशा से पता था मैं कौन हूं, कहां से आई हूं. एक छोटे भारतीय शहर की परवरिश ने मुझे इसके लिए तैयार किया था. चुनौतियां पहचान की नहीं थी लेकिन अपनी जगह बनाने की जरूर थी. मुझे लगता है कि भारतीय परवरिश में सवाल करने की आजादी नहीं है जिससे अगर निपटा ना जाए तो आप खुद को हर मीटिंग में पीछे की कुर्सी पर चुप-चाप बैठा हुआ पाएंगे. मुझे आगे निकलना था और मैंने पूरी ताकत लगाकर ऐसा किया लेकिन उसके लिए अपनी पहचान से समझौता करने का सवाल नहीं था. मुझे ब्रिटेन में जहां भी सलवार-कमीज पहनकर जाने का मन होता था मैं पहनती थी."
राधिका से मिलती जुलती राय है लंदन में रहने वाली सैज वोरा की. सैज के माता-पिता पूर्वी अफ्रीका में रहने के बाद ब्रिटेन पहुंचे. सैज ने जब ब्रिटेन में कदम रखा तो वो सात बरस की थीं. उस वक्त को याद करते हुए सैज कहती हैं, "मेरे माता-पिता 1967 में यहां आए. वो वक्त बहुत अलग था. घर पर मेरे पिता लिबरल थे लेकिन मां को लगता था कि मुझे लड़की होने की ट्रेनिंग भी मिलनी चाहिए. हालांकि मुझे पढ़ने से रोका नहीं गया जो शायद दक्षिण एशियाई घरों में अब भी हो रहा है. जहां तक सांस्कृतिक पहचान का सवाल है तो मैंने अपनी मर्जी से अपनी भारतीयता को कायम रखा है. मैं सीधे अर्थों में भारतीय नहीं हूं लेकिन अपने माता-पिता से जो बातें विरासत में मिली हैं, वो मेरे जेहन में हैं. मुझे लगता है कि शायद एक मां के तौर पर मैं पूरी तरह भारतीय हूं."
रंग और भेदभाव
एक दिलचस्प बात ये उभर कर सामने आई कि नस्लीय भेद-भाव पीढ़ी दर पीढ़ी महिलाओं के अनुभव का हिस्सा रहा है, भले ही वो बहुत महीन तरीके से सामने आया हो या फिर कुछ इस तरह कि अहसास ही ना हो कि ऐसा कुछ हो भी रहा है. रंगभेद ने ब्रिटेन में कई पड़ाव तय किए हैं और उस तंग नजरिए से भारतीय महिलाएं निपटती रही हैं. मानसी ने अपने अनुभव से बताया कि "लंबे समय तक मुझे ये बात समझ नहीं आई कि रंग और नस्लीय भेद कैसे काम करता है. अब जब मैं पीछे मुड़कर देखती हूं तो समझ आता है कि पांचवी में पढ़ते समय माथे पर चंदन की बिंदी लगाने पर, मुझसे अजीब बर्ताव क्यों होता था. तब इन बातों को स्कूल में बुलींग कह कर टाल दिया जाता लेकिन अब समझ आता है कि वो दरअसल भेदभाव का पहला पाठ था. अब लगता है जैसे वो सब नहीं होता लेकिन सच ये है कि भेदभाव सिस्टम का हिस्सा है. अब कोई आपके मुंह पर भले ही कुछ ना कहे लेकिन नौकरियों में गोरे रंग का गहरा असर है. एक दक्षिण एशियाई लड़की होने के चलते मेरा रास्ता अपने आप लंबा हो जाता है.”
रंग से उपजी गैर-बराबरी हर उम्र में महिलाओं के लिए चुनौती रही है और उस पर जीत हासिल करने का रास्ता इतना लंबा हो सकता है कि किसी को भी थका दे. सैज वोरा नामचीन ब्रॉडकास्टिंग कंपनी में लंबे अरसे तक काम करती रहीं और ऊंचे पद तक पहुंची लेकिन वो कहती हैं, "एक हद के बाद आपको ये अहसास होता है कि एक शीशे की दीवार है जिसको तोड़ने में आपकी सारी शक्ति खर्च हो जाएगी. मुझे लगता है कि ब्रिटेन में वो दीवार जेंडर से ज्यादा रंगभेद से बनी है क्योंकि मैंने 1980 के दशक में काम करना शुरू किया जब न्यूजरूम में बहुत कम औरतें पहुंचती थीं. आपका करियर एक ऊंचाई पर भले ही पहुंच जाए लेकिन गोरा रंग ही उस दीवार के पार ले जा सकता है.” हालांकि राधिका कहती हैं कि उन्हें रंग-भेद का ज्यादा अनुभव नहीं हुआ लेकिन एक बार काम पर किसी ने उनसे ये जरूर पूछा कि सुना है भारत में सड़क पर चीते और गाय घूमते हैं. इसके जवाब में राधिका ने कहा कि "जी हां, गाय और चीते घूमते हैं और मेरा घर पेड़ पर था जिस पर मैं बंदर की तरह रहती थी.”
समुदाय और पुरातनपंथी सोच
भेदभाव का एक और पहलू ये भी है कि ये सिर्फ गोरे रंग का मोहताज नहीं है. भारतीय महिलाएं कहती हैं कि रंगभेद से शायद उतना बड़ा नुकसान ना भी पहुंचे लेकिन उनके अपने समुदाय के भीतर ऐसे लोग लगातार मिलते रहे हैं जो दकियानूसी सोच रखते हैं. औरतों की बराबरी, उनका स्वतंत्र अस्तित्व उन्हें बर्दाश्त नहीं होता. ये सवाल पूछे जाने पर कि आखिर ब्रिटेन ने उनको एक भारतीय के तौर पर क्या दिया है, राधिका जोर देकर कहती हैं कि "मेरी पहली शादी टूट गई. मैंने तलाक लिया और दूसरी शादी की. जो मन में आया वही काम किया, जैसी चाही, वैसी ही जिंदगी जी. आप सोचिए कि एक तलाकशुदा औरत होने पर भारत में मेरी जिंदगी क्या वही होती जो आज है. मुझे यहां पर अपने चुनाव करने का मौका मिला जो मुझे नहीं लगता कि उस वक्त भारत में मुमकिन होता. शायद अब हालात थोड़े बदल गए होंगे. ब्रिटेन में सामाजिक मूल्य थोड़े अलग जरूर हैं लेकिन औरतों के लिए आजाद जिंदगी जीने के मौके ज्यादा हैं.”
चुनाव और अपनी जिंदगी खुद चुनने की आजादी का सवाल बड़ा है और ऐसा लगता है कि ब्रिटेन में ये ज्यादा आसानी से सुलभ है, लेकिन सभी को ऐसे मौके मिल रहे हों ऐसा नहीं है. यहां तक कि इंटरनेट और सोशल मीडिया भी लड़कियों की आवाज दबाने का माध्यम बने हुए हैं. मानसी अपने बुरे अनुभव को बांटते हुए कहती हैं, "एक भारतीय लड़की की आवाज दबाने में ब्रिटेन में बसा भारतीय समुदाय पीछे नहीं रहता. भारत में चल रहे किसान आंदोलन पर मैंने सोशल मीडिया पर अपनी प्रतिक्रियाएं लिखीं तो हमारे ही दायरे के लोगों ने मुझे सलाह दी कि जाकर अपने पिता से पूछो कि वो इस पर क्या सोचते हैं, तुम्हें क्या पता. उन्हें लगता है कि एक लड़की की अपनी कोई राय नहीं होती, उसके लिए भी पिता की रजामंदी लेनी चाहिए.”
भारतीय महिलाओं के अनुभवों का पुलिंदा इस बात पर मोहर लगाता है कि सांस्कृतिक पहचान, सोच और नजरिया सरहदों के मोहताज नहीं हैं. सोशल मीडिया के बढ़ते कदमों ने औरतों को जहां अपनी आवाज उठाने का मौका दिया है वहीं उनके खिलाफ एक और मोर्चा भी पैदा किया है. औरतों ने परिवार के साथ सरहदें पार की हों या फिर ब्रिटेन में मिली भारतीय विरासत के साथ जीना सीखने की कोशिश कर रही हों, उनके रास्ते चुनौतियों से भरे रहे हैं और वो उनसे आगे निकलने में लगातार कामयाब भी होती रही हैं.
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