रवांडा नरसंहार के आरोपी पर 29 साल बाद फ्रांस में मुकदमा
१४ नवम्बर २०२३बात 6 अप्रैल, 1994 की है. वह दिन रवांडा के इतिहास में एक दुखद मोड़ था. उस शाम रवांडा के तत्कालीन राष्ट्रपति जुवेनाल हाबियारिमाना पड़ोसी देश तंजानिया से वापस आ रहे थे. जब उनका विमान राजधानी किगाली में उतरने वाला था, तभी जमीन से हवा में वार करने वाली मिसाइलों ने उसे मार गिराया. इस हमले में विमान पर सवार सभी लोग मारे गए. इसमें बुरुंडी के राष्ट्रपति सिप्रियां न्तारयामीरा भी शामिल थे.
इस हमले के अपराधियों की पहचान आज तक नहीं हो पाई है. हालांकि, माना जाता है कि रवांडा में हुए नरसंहार में इस घटना की अहम भूमिका रही, जिसमें महज तीन महीने में 5 से 10 लाख लोग मारे गए. बड़ी संख्या में औरतों का बलात्कार हुआ.
राष्ट्रपति हाबियारिमाना रवांडा के बहुसंख्यक हुतू समुदाय के थे. तुत्सी अल्पसंख्यक समूह पर हत्या का आरोप लगा. इसके बाद, तुत्सी और हुतू समूह के उदारवादी लोगों की बड़े पैमाने पर हत्या की गई. 1994 में रवांडा की पूरी जनसंख्या में मात्र 15 फीसदी लोग ही तुत्सी समुदाय के थे. जबकि 84 फीसदी लोग हुतू समुदाय के थे. इन्हीं दोनों समुदायों के बीच गृहयुद्ध छिड़ा और निशाना बने दोनों तरफ के मासूम लोग.
अपराध रवांडा में मुकदमा फ्रांस में
दक्षिणी रवांडा प्रांत के बुटारे में, जिसे आज हुए के नाम से जाना जाता है, सामूहिक हत्या में शामिल आरोपी और स्त्री रोग विशेषज्ञ पर इस मंगलवार को पेरिस में मुकदमा चल रहा है. अगले महीने 19 दिसंबर को इस मुकदमे में फैसला सुनाए जाने की उम्मीद है. रवांडा नरसंहार से संबंधित यह फ्रांस में चलने वाला सातवां मुकदमा है. वादी पक्ष इसे प्रतीकात्मक महत्व वाला मामला बताते हैं.
आरोपी सोस्थेन मुनियेमाना की उम्र अब 68 वर्ष हो चुकी है. वह एक हुतू हैं. उस समय बुटारे में रहते थे और मेडिकल कॉलेज अस्पताल में स्त्री रोग विशेषज्ञ थे. हालांकि, बुटारे में तुत्सी लोगों की हत्या राष्ट्रपति की मौत के दो हफ्ते बाद शुरू हुई थी.
मुनियेमाना के मुताबिक, वह जून 1994 में रवांडा से भाग गए थे. वे पहले डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कांगो गए और उसके बाद फ्रांस चले आए. तीन बच्चों के पिता मुनियेमाना तब से अपने परिवार के साथफ्रांस में ही रह रहे हैं. वे 2001 से दक्षिणी-पश्चिमी शहर विनेव-सीयो-लॉट के सेंट-साइर अस्पताल में स्त्री रोग विशेषज्ञ के तौर पर काम कर रहे थे.
जान बूझकर शामिल हुए या अनजाने में
डॉक्टर पर अब नरसंहार और मानवता के खिलाफ अपराधों में शामिल होने का आरोप लगाया गया है. उन पर इन अपराधों की तैयारी करने और सक्रिय तौर पर अंजाम देने, दोनों में शामिल होने का आरोप है. ऐसा कहा जाता है कि अन्य प्रमुख स्थानीय लोगों के साथ, उन्होंने अंतरिम सरकार का समर्थन करते हुए एक खुले पत्र पर हस्ताक्षर किया था, जिसने व्यवस्थित रूप से नरसंहार को अंजाम दिया.
कहा जाता है कि मुनियेमाना को संकट समिति के लिए चुना गया था जिसने तुत्सी समुदाय के लोगों का पता लगाने के लिए बाधाएं खड़ी की. उन पर स्थानीय सरकारी दफ्तरों में लोगों को अमानवीय परिस्थितियों में बंद करने और उन्हें दूसरी जगहों पर ले जाने में सहायता करने का भी आरोप है. कथित तौर पर सरकारी कार्यालयों की चाबियां मुनियेमाना के पास थीं.
मुनियेमाना के वकील जाँ इव दुपो इन आरोपों को सिरे से खारिज करते हैं. उनका कहना है कि खुला पत्र 16 अप्रैल को लिखा गया था. उस समय तक बुटारे में नरसंहार शुरू नहीं हुआ था. दुपो ने डीडब्ल्यू को बताया, "मेरे मुवक्किल ने सोचा कि अंतरिम सरकार इस गृहयुद्ध को रोक सकती है.” इसके अलावा उनका दावा है कि मुनियेमाना ने 17 अप्रैल, 1994 को बैठक में भाग लिया था, लेकिन उन्हें किसी भी आधिकारिक पद के लिए नहीं चुना गया था और समिति का उद्देश्य नरसंहार को रोकने की कोशिश करना था.
दुपो ने कहा कि अंतिम आरोप गलतफहमी पर आधारित था. उनके अनुसार, उनके मुवक्किल को 23 अप्रैल को एक स्थानीय सरकारी कार्यालय की चाबियां मिलीं ताकि वह लोगों को बचाने के लिए उन्हें छिपा सकें. इसके बाद मेयर कार्यालय ने उन्हें लेने के लिए एक वैन भेजी.
दुपो ने कहा, "और जब वैन पहुंची, तो मेरे मुवक्किल ने दरवाजा खोला, ताकि लोग वहां से भाग सकें और वैन में चढ़ सकें. ऐसा चार मौकों पर हुआ. यह सच है कि इनमें से अधिकतर लोग मारे गए और उनकी पहचान नहीं हो पाई, लेकिन मेरे मुवक्किल को इस बारे में कुछ नहीं पता है.”
उन्होंने कहा कि रवांडा की मौजूदा सरकार गवाहों को उनके मुवक्किल के खिलाफ गवाही देने का दबाव डाल रही है, क्योंकि वह संभावित रूप से विपक्ष का नेता बन सकते हैं. दुपो ने आगे कहा, "यदि आप ह्यूमन राइट्स वॉच की हालिया रिपोर्ट पढ़ते हैं, तो यह कहती है कि रवांडा की मौजूदा सरकार विदेश में रहने वाले संभावित विरोधियों को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तरीके से चुप कराने के लिए हर संभव कोशिश कर रही है.”
न्याय की भावना में मुकदमा
न्यायाधीश ऑरेलिया डेवोस ने 10 वर्षों तक पेरिस अभियोजन कार्यालय में मानवता के खिलाफ अपराधों और युद्ध अपराधों के लिए विशेष इकाई की अध्यक्षता की है. उन्होंने कहा कि वे इस तर्क को कई बार सुन चुकी हैं.
डेवोस कहती हैं, "हम इस प्रकार के अपराधों के मामले में नियमित रूप से इस तरह का तर्क सुनते हैं. अपराधियों को अक्सर यह महसूस होता है कि वे अपने सिस्टम का बचाव कर रहे थे, अपने देश का बचाव कर रहे थे. तंजानिया में इंटरनेशनल क्रिमिनल ट्रिब्यूनल फॉर रवांडा (आईसीटीआर) में 1995 से 2015 के दौरान पेश हुए रवांडा नरसंहार के सभी आरोपियों ने अपने बचाव में अक्सर यह तर्क दिया कि मुझ पर राजनीतिक कारणों से मुकदमा चलाया जा रहा है. गवाहों को स्पष्ट रूप से इस उद्देश्य के लिए प्रशिक्षित किया गया है.”
कलेक्टिव ऑफ सिविल पार्टीज फॉर रवांडा (सीपीसीआर) के सह-संस्थापक अलाँ गोथिये को भी राजनीतिक दबाव के दावों पर संदेह है. वह नरसंहार को लेकर मुकदमा दायर करने वाले 25 सिविल वादियों का प्रतिनिधित्व करते हैं. उन्होंने डीडब्ल्यू को बताया, "हम अक्सर रवांडा में होते हैं और मैंने व्यक्तिगत रूप से कभी किसी को इस तरह के दबाव में नहीं देखा है.”
गोथिये ने कई मुकदमों में हिस्सा लिया है, लेकिन उन्होंने कहा कि इस मुकदमे का प्रतीकात्मक महत्व काफी ज्यादा है. वह कहते हैं, "इस बार जिस व्यक्ति पर मुकदमा चल रहा है वह एक डॉक्टर है. उसका पेशा आम तौर पर लोगों का इलाज करना और उनकी देखभाल करना है. उस व्यक्ति पर बड़ी संख्या में लोगों की हत्या में मदद करने का आरोप है. उन्होंने सैनिक, मेयर और पुलिसकर्मी के खिलाफ मुकदमा चलाया है, लेकिन डॉक्टर पर मुकदमा चलाना नया है.”
मजबूत फ्रांसीसी संकेत
किंग्स कॉलेज लंदन में कानून की व्याख्याता निकोला पाल्मर ने 2006 से रवांडा नरसंहार का अध्ययन किया है. वह कहती हैं, "फ्रांसीसी न्यायपालिका की इसमें विशेष भूमिका रही. मेरे मौजूदा प्रोजेक्ट के तहत रवांडा के बाहर नरसंहार के संदिग्धों के खिलाफ चल रहे मामलों पर नजर है. फिलहाल, मेरे पास दुनिया भर के 20 अलग-अलग देशों में 120 मामले हैं. इनमें से 32 मामले फ्रांस में शुरू किए गए थे.”
पाल्मर ने कहा कि नरसंहार के बाद न्याय मांगने का यह अंतिम चरण था. वह कहती हैं, "अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आईसीटीआर से पहले, स्थानीय स्तर पर शुरुआती मुकदमे चल रहे थे. उस समय राष्ट्रीय अदालतों और घरेलू स्तर पर काफी ज्यादा कानूनी प्रक्रियाएं जारी थीं. अब रवांडा से भाग चुके लोगों के खिलाफ जवाबदेही तय करने के लिए वास्तविक प्रयास किए जा रहे हैं.” डेवोस ने कहा कि यह फ्रांस की नैतिक जिम्मेदारी है कि वह ऐसे मामलों पर फैसला दे. भले ही, मामलों की जटिलता और कर्मचारियों की कमी की वजह से वे दशकों तक खिंचते रहे.
सिविल पार्टियों ने पहली बार 1995 में फ्रांस में मुनियेमाना के खिलाफ मुकदमा दायर किया था. डेवोस ने कहा, "पूर्व में हो चुकी घटनाओं या मामलों पर कानून से जुड़ी फ्रांसीसी पाबंदियों के अनुसार, हम नरसंहार के किसी आरोपी को रवांडा में प्रत्यर्पित नहीं कर सकते, क्योंकि उस समय वहां नरसंहार पर कोई कानून नहीं था. इसलिए हमें ऐसे मामलों को सुनवाई के लिए यहां लाना चाहिए.”
नरसंहार के लिए सजा से छूट नामुमकिन
फ्रांस ने 2010 में मुनियेमाना के प्रत्यर्पण के अनुरोध को खारिज कर दिया था. दरअसल, रवांडा की ग्राम अदालतों ने मुनियेमाना की गैर-हाजिरी में ही उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी. फ्रांस के लियों शहर में रहने वाले अंतरराष्ट्रीय कानून के प्रोफेसर और यूनेस्को रिसर्च प्रोजेक्ट मेमोरी, कल्चर्स एंड इंटरकल्चरलिटी के प्रमुख रोजर काउडे ने डीडब्ल्यू को बताया, "रवांडा के बाहर अदालती कार्यवाही एक और उद्देश्य भी पूरा करती है. मेरा प्रोजेक्ट यादों पर केंद्रित है, ताकि यह पक्का किया जा सके कि रवांडा नरसंहार को भुलाया न जाए.”
वह आगे कहते हैं, "हमारा मिशन मानवता के खिलाफ अपराधों को रोकने के लिए ठोस कदम उठाना भी है. अध्ययनों से पता चलता है कि दुनिया में कई जगहों पर नरसंहार के खतरे हैं, जिनमें मुख्य रूप से अफ्रीका, मध्य पूर्व, एशिया शामिल हैं. पेरिस में चल रहे मुकदमे से भविष्य में होने वाले नरसंहारों को रोकने में मदद मिल सकती है. नरसंहार मानवता के खिलाफ अपराध है जो पूरे अंतरराष्ट्रीय समुदाय को चिंतित करता है.”
वह आगे कहते हैं, "अंतरराष्ट्रीय समुदाय और अलग-अलग देश यह सुनिश्चित करने के लिए प्रतिबद्ध हैं कि मानवता के खिलाफ अपराधों के लिए कोई छूट नहीं है. इन अपराधों के कथित अपराधी दुनिया में कहीं भी सुरक्षित नहीं हैं और उनके पास शरण लेने या न्याय से बचने की कोई जगह नहीं है.”