'लव जिहाद' रटने वालों को अदालती फटकार
२० अक्टूबर २०१७केरल की श्रुति और अनीस अहमद, खुशकिस्मत निकले कि आखिर उन्हें अदालत ने साथ रहने की अनुमति दे दी. इस दंपत्ति की खुशियां उस समय बिखर ही गयी थीं जब श्रुति के पिता ने रजिस्टर्ड शादी को मान्यता देने से इनकार कर दिया और अपनी बेटी को घर पर एक तरह से नजरबंद ही कर दिया. कन्नूर जिले के अनीस ने केरल हाई कोर्ट में बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका डाली जिसकी सुनवाई करते हुए जस्टिस वी चिदम्बरेश और जस्टिस सतीश नाइनन की खंडपीठ ने ये अभूतपूर्व फैसला सुनाया.
कोर्ट ने प्रेम-विवाह की नैतिक और सामाजिक मान्यता पर अंगुली उठाने वालों को फटकार लगायी और कहा कि प्रेम को धर्म और जाति की संकीर्णता में बांधना बंद करो. केरल में सामुदायिक सौहार्द मत बिगाड़ों जो यूं ‘ईश्वर का अपना घर” कहा जाता है. श्रुति के साहस और धैर्य की प्रशंसा करते हुए कोर्ट ने प्रख्यात अमेरिकी नागरिक अधिकार कार्यकर्ता और कवयित्री माया एजेंलु की कुछ पंक्तियां उद्धृत की- "प्रेम नहीं पहचानता कोई अवरोध, वो पार कर लेता है बाधाएं, लांघ जाता है बाड़े, भेद देता है दीवारें, पहुंच जाता है उम्मीदों से भरे अपने गंतव्य पर.” कोर्ट ने संवैधानिक अधिकारों के साथ साथ नागरिक दायित्वों की याद भी दिलायी. उसने न सिर्फ स्त्री अधिकारों पर मुहर लगायी, निजता, मानवाधिकार, वयस्क अधिकार पर भी स्थिति स्पष्ट कर दी है. लोकतंत्र का निर्माण जिन उसूलों से होता है, कोर्ट ने उन उसूलों को ही एक तरह से अपने फैसले में पुनर्स्थापित किया है.
लेकिन कोर्ट के इस उदार, पारदर्शी और दूरगामी प्रभाव वाले फैसले की रोशनी में आप अगर कुछ समय पीछे लौटें तो ठिठक जाएंगे क्योंकि इसी कोर्ट से न्याय की गुहार लगाने एक मुस्लिम युवा शफी जहां भी पहुंचा था जिसकी पत्नी को उसके घरवालों ने यह कहकर उससे अलग कर दिया था कि शफी ने झांसा देकर उनकी बेटी का धर्म परिवर्तन कराया और शादी की. वहीं अखिला से हदिया बनी युवती ने इसे अपनी पसंद का रिश्ता बताया था. उनकी शादी कोर्ट में दर्ज है. यह मामला इतना बढ़ा कि सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रीय जांच एजेंसी को आदेश दे डाला कि इसमें कोई अवांछित हरकत तो नहीं हुई है यानी कि धर्म परिवर्तन के जरिए आतंकवादी साजिश तो नहीं हो रही है.
यह एक ऐसी बात थी जिसने शफी और हदिया की उम्मीदें बिखेर दीं. केरल सरकार ने उनका बचाव किया और सुप्रीम कोर्ट से कहा कि यह मामला इस तरह का नहीं है और एनआईए जांच की भी जरूरत नहीं है. हदिया भी अपने मातापिता के घर में एक तरह से नजरबंद ही है और शफी 30 अक्टूबर का इंतजार कर रहा है जब सुप्रीम कोर्ट इस मामले पर सुनवाई कर सकता है. शफी की कहानी भी केरल हाई कोर्ट से गुजरी थी. हाई कोर्ट ने हदिया के मामले में परिवार और संस्कार की दलीलें दी थीं और कोर्ट कुछ ऐसी बातें कहता दिखता था मानो वो स्त्री आजादी और मानवाधिकारों को लेकर अनुदार हो. उसी कोर्ट की एक पीठ- 'लव जिहादियों' और रूढ़िवादियों को फटकार रही है तो हैरानी होती है. जाहिर है शफी और हदिया के मामले में यह आदेश भी एक नजीर की तरह काम कर सकता है.
कोर्ट का पिछला आकलन, उसका नया आदेश, और सुप्रीम कोर्ट के नजरिये के बीच गौर करने वाली बात यह भी है कि किस तरह देश अब भी पिछड़े मूल्यों और संस्कारों के नाम पर अनुदारवादियों के कब्जे में है. समाज में आधुनिकता तो आयी है लेकिन वैचारिक दरिद्रता जस की तस है. इसीलिए तो कभी प्रेम तो कभी विवाह कभी छुआछूत तो कभी रस्मभभूत के नाम पर- नागरिकों का दमन किया जाता है. दमन करने वाली शक्तियां भी नागरिकों के बीच से पनपती हैं और तमाम आजाद ख्याल मूल्यों को अपनी कट्टरता से ढांप लेती हैं. आखिर अदालतें ही कब तक इन मामलों मे दखल देती रहेंगी और फैसले सुनाती रहेंगी. हम लोग खुद कब जागेंगे और अपनी रूढ़ियों की बेड़ियां तोड़ेंगे. कब हम वास्तव में स्त्रियों, दलितों, अल्पसंख्यकों, उत्पीड़ितों के अधिकारों की हिफाजत करने वाला देश बन पाएंगे.
मेनस्ट्रीम राजनीतिक दलों और सरकारों से प्रगतिशीलता की अपेक्षा तो अब रही नहीं. वे स्वार्थों और कई किस्म के लाभों से संचालित हैं. उन्हें इस बात की परवाह क्योंकर होगी कि देश में नागरिक कितने अनेकों तरीकों से बदहाल हैं. लेकिन युवाओं की यही चुनौती सबसे बुनियादी है कि वे इस राजनीति को बदलें. राजनीतिक स्वरूप में आमूलचूल बदलाव लाना होगा और सामाजिक स्तर पर बहुत छोटी छोटी, बहुत दूर दूर बिखरी हुई लड़ाइयों में शरीक होना होगा. प्रतिरोध की चेतना का विकास करना होगा. परंपरा का सम्मान करना चाहिए लेकिन उसकी आड़ में मासूम और मुक्त स्वप्नों का शिकार नहीं कर सकते. एक छोटा सा प्रगतिशील जागरूक दखल आने वाले समय का एक बड़ा लोकतांत्रिक मूल्य बन सकता है- ये कभी नहीं भूलना चाहिए. फिर वो चाहे कोर्ट हो या अनीस-श्रुति या शफी-हदिया जैसे साधारण नागरिक.