लॉकडाउन की वजह से खेती की ओर रुख कर रहे हैं शिक्षित युवा
१५ मई २०२०प्रयागराज के लालगोपालगंज के रहने वाले संजय कुमार ग्रेटर नोएडा की सैमसंग कंपनी में इंजीनियर थे. पैंतीस हजार रुपये महीने की उनकी तनख्वाह थी. लॉकडाउन शुरू होने से ठीक पहले संजय अपने गांव वापस आ गए और अब ठान लिया है कि लौटकर शहर नहीं जाएंगे. संजय कुमार बताते हैं, "हमारी नौकरी गई नहीं लेकिन हम खुद छोड़कर आ गए. हमारे कई साथी भी छोड़ गए. इसके पीछे कारण यह था कि तमाम कंपनियों में छंटनी हो रही थी और हमें भी आशंका थी कि हमारी नौकरी चली जाएगी. जिस दिन मोदी जी ने जनता कर्फ्यू लगाया यानी 22 मार्च को मैं अपने कुछ दोस्तों के साथ गांव वापस आ गया.”
संजय कुमार बताते हैं कि यहां वो अपना थोड़ा बहुत जो सामान था लेकर आ गए और यह सोच लिया कि गांव में रहकर खेती करेंगे. वो कहते हैं, "मैं दिल्ली, मुंबई और ग्रेटर नोएडा में अलग-अलग कंपनियों में सात साल से नौकरी कर रहा हूं. जितना काम करता हूं और जितनी मेरी योग्यता है, उसके हिसाब से पैंतीस-चालीस हजार रुपये की नौकरी कोई बहुत ज्यादा नहीं है. दस-बारह घंटे काम भी करना पड़ता है और घर से दूर रहना अलग. वहां से आने के बाद मैंने अपने खेत में तरबूज, खरबूजा, खीरा, ककड़ी, लौकी जैसी सब्जियां और फल बोए हैं. हालांकि इससे पहले मैंने कभी खेती नहीं की थी लेकिन उम्मीद है कि कर लूंगा.”
शहरों से हो रहा है गांवों को पलायन
संजय कुमार की तरह गाजीपुर के रहने वाले आफताब अहमद भी हैं. आफताब अहमद बेंगलुरु की एक कंपनी में सॉफ्टवेयर इंजीनियर थे. अच्छा-खासा वेतन पाते थे लेकिन उसी अनुपात में खर्च भी था. इसलिए बचत कुछ खास नहीं होती थी. उनकी पत्नी भी एक स्कूल में पढ़ाती थीं. आफताब बताते हैं, "लॉकडाउन से पहले ही कंपनी ने छंटनी और वेतन में कटौती के संकेत दे दिए थे. गांव में हमारे पास करीब बारह बीघे खेत हैं और मेरे पिताजी अकेले ही वहां थोड़ी-बहुत खेती कराते हैं. गाजीपुर के कुछ किसान पिछले कुछ सालों में सब्जियों की अच्छी खासी खेती कर रहे हैं और सब्जियां एक्सपोर्ट कर रहे हैं. मैंने सोचा कि क्यों न हम भी ऐसा करें. बस यही सोचकर सब कुछ समेटकर चल दिया.”
आफताब ने अभी कुछ खास योजना तो नहीं बनाई है लेकिन दो बातें उनके दिमाग में स्पष्ट हैं, एक तो वो लौटकर शहर नहीं जाएंगे और दूसरे, गांव में ही खेती और मछली-पालन करेंगे. वो बताते हैं, "खेती में क्या करना है, उस पर थोड़ा रिसर्च कर रहा हूं. ऑर्गेनिक तरीके से अनाज और सब्जियों का भी उत्पादन का विकल्प है और फूलों की खेती का भी. कुछ पैसे बचाकर रखे हैं, उन्हें खेती में ही इन्वेस्ट करना है और उम्मीद है कि आमदनी भी इतनी हो जाएगी जितने में हम सम्मान के साथ जीवन-यापन कर लेंगे.”
प्रेरित हो रहे हैं शहरों में काम कर रहे युवा
बागपत के रहने वाले सूरज सिंह और पीलीभीत के दीपक शर्मा भी इसी सोच के हैं कि यदि तकनीक का इस्तेमाल करके योजनाबद्ध तरीके से खेती की जाए तो उससे फायदा कमाया जा सकता है. दीपक शर्मा एमबीए हैं, दो साल विदेश में भी रह चुके हैं और अभी गुड़गांव की एक निजी कंपनी में अच्छे पद पर काम कर रहे हैं. दीपक कहते हैं, "नौकरी में पैसा भी अच्छा है, सुविधाएं भी हैं लेकिन जितना मानसिक तनाव रहता है, उसकी तुलना में ये सुविधाएं कहीं नहीं ठहरती हैं. मैं किसान परिवार से हूं. मेरे जिले में कुछ युवाओं ने ऑर्गेनिक खेती करके अच्छी खासी आमदनी की है और मैं भी उनसे प्रेरित हो रहा हूं. कभी भी नौकरी छोड़कर खेती की ओर मुड़ सकता हूं.”
दिल्ली में वरिष्ठ पत्रकार एसपी सिंह कहते हैं कि युवाओं में हाल के दिनों में खेती के प्रति आकर्षण बढ़ा जरूर है लेकिन ऐसे युवाओं की संख्या अभी भी बहुत कम है. उनके मुताबिक, "उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान और हरियाणा जैसे राज्यों में कई किसानों ने सफलता के झंडे गाड़े हैं और युवा उनसे प्रेरित भी हुए हैं. प्राइवेट सेक्टर में नौकरियों की स्थिति पिछले कुछ वर्षों से खराब हुई है. कुछ उच्च पदों को छोड़ दिया जाए तो मध्यम और नीचे स्तर पर वेतन बहुत ही कम हैं. जाहिर है, उतने वेतन से महानगरों में रह पाना मुश्किल है. ऐसे में जिनके पास गांव में खेती-बारी है, वो ऐसे सफल किसानों से प्रेरित होकर इधर आना चाहते हैं. जिनमें थोड़ा थैर्य होगा, कुछ पूंजी भी होगी, वो निश्चित तौर पर सफल भी होंगे.”
बाजार पर दबाव किसानों का नुकसान
कृषि मामलों से जुड़े जानकारों का ये भी कहना है कि बड़ी तादाद में लोगों, खासकर युवाओं का खेती में लगना भी कोई बहुत अच्छे संकेत नहीं हैं. लखनऊ के एक कॉलेज में अर्थशास्त्र पढ़ाने वाले डॉक्टर सर्वेश कुमार कहते हैं, "खाद्यान्न उत्पादन में भारत आत्मनिर्भर है. एक्सपोर्ट क्वॉलिटी के ही खाद्यान्न की उपयोगिता है अन्यथा उत्पादन ज्यादा होगा और बाजार सीमित होगा तो दाम गिरेंगे जिससे नुकसान उत्पादक वर्ग यानी किसान का ही सबसे ज्यादा होगा. लेकिन हम जिन प्रगतिशील किसानों को देख रहे हैं जिन्होंने कृषि क्षेत्र में सफलता का तमगा हासिल किया है, वो खाद्यान्न की ओर नहीं बल्कि फल, सब्जी, फूल, औषधीय पौधों इत्यादि के उत्पादन की ओर झुके हैं. इस क्षेत्र में अभी भी बहुत जरूरत और संभावनाएं हैं.”
बांदा जिले के जखनी गांव में गांव के ही कुछ लोगों ने समूह बनाकर खेती के बल पर आत्मनिर्भर बनने का उदाहरण पेश किया है. गांव के ही उमाशंकर पांडेय कहते हैं, "बुंदेलखंड के इस सूखे इलाके में भी हमारे गांव में कभी पानी की किल्लत नहीं होती है. हमने पानी के संरक्षण की व्यवस्था की, उसका इस्तेमाल खेती में किया और आज स्थिति यह है कि हमारे यहां की सब्जियां पूरे जिले में बिकती हैं और हम लोग करोड़ों रुपये का बासमती चावल हर साल बेचते हैं.” उमाशंकर पांडेय बताते हैं कि उनके गांव के कई लोग दिल्ली और मुंबई जैसे शहरों में नौकरी और व्यवसाय छोड़कर गांव में खेती और व्यवसाय में लगे हैं. वे कहते हैं, "बड़े शहरों में तमाम लोग ऐसे हैं जो केवल अपने गुजारे भर का ही कमा पाते हैं या फिर थोड़ा बहुत उससे ज्यादा. ऐसे लोगों के लिए तो गांवों में तमाम अवसर हैं. जरूरी नहीं कि सब लोग खेती ही करें, बल्कि और भी कई रोजगार हैं. जब ज्यादा लोग गांवों में रहेंगे तो जरूरतें भी पैदा होंगी और चीजों की आपूर्ति भी होगी.”
सरकार की रोजगार मुहैया कराने की कोशिश
उत्तर प्रदेश और बिहार में लाखों की संख्या में प्रवासी मजदूर लॉकडाउन के कारण अपने राज्यों की ओर लौटे हैं और ये सिलसिला अभी जारी है. यूपी सरकार प्रवासी मजदूरों को स्थानीय स्तर पर ही रोजगार मुहैया कराने की व्यापक कार्ययोजना तैयार कर रही है. राज्य के अपर मुख्य सचिव अवनीश अवस्थी कहते हैं, "ऐसे लोगों को मनरेगा और दूसरी योजनाओं के तहत काम मिल सकेगा." अवनीश अवस्थी के मुताबिक, जो प्रशिक्षित श्रमिक हैं, उन्हें उनकी योग्यता के अनुसार काम देने की योजना बनाई जा रही है ताकि आने वाले दिनों में राज्य से पलायन को रोका जा सके.
हालांकि कृषि क्षेत्र में निवेश की अभी उतनी संभावनाएं नहीं हैं लेकिन यदि व्यापक पैमाने पर युवा इस ओर आकर्षित होते हैं तो निश्चित तौर पर इस दिशा में भी सरकारी योजनाएं बनेंगी. भारत सरकार के वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय की संस्था एपिडा की ओर से क्षेत्रीय किसानों को इस दिशा में प्रोत्साहित भी किया जा रहा है. करीब तीन साल पहले गाजीपुर के कुछ किसानों ने एपिडा की मदद से मिर्च, लौकी और अन्य सब्जियों का उत्पादन करना शुरू किया था और अब ये किसान अपने उत्पादों को मध्य पूर्व देशों के अलावा यूरोप को भी निर्यात कर रहे हैं.
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