लॉकडाउन के बाद फिर से सामान्य होने लगी है जिंदगी
१७ जुलाई २०२०कोलोन और बॉन की हालत भी अलग नहीं. लोग कब तक घरों में बंद रहते. ढील मिली तो बाहर निकलने लगे, बाहर निकले तो संकोच खत्म होने लगे. ये सोचने के लिए कि कुछ हफ्ते पहले सड़कें कैसी रही होंगी, आंखें मूंदने की जरूरत होती है, खोजकर पुरानी तस्वीरें निकालनी पड़ती है. कुछ ही हफ्तों में सब कुछ कितना बदल गया है. लेकिन बदला ही नहीं है, हकीकत पर यादों की मोटी परत भी चढ़ा गया है.
हर अनुभव अनूठा होता है. नहीं होता तो शायद उसे अनुभव ही नहीं कहते. लेकिन कोरोना ने जो अनुभव दिया है वह अनूठा होने के साथ ही अप्रत्याशित और अभूतपूर्व है. किसने सोचा था कि एक वायरस आएगा और हमारी सारी जिंदगी को तबाह और तहस नहस कर जाएगा. डर का ऐसा माहौल पैदा कर जाएगा, जिससे पार पाना मुश्किल हो. लेकिन साथ ही हर समस्या का समाधान कर सकने का गुमान रखने वाले इंसान को बता जाएगा, कि जिंदगी वो नहीं, जैसा तुम गढ़ना चाहते हो. किसे पता था कि एक वायरस के डर से पूरी कायनात ठहर जाएगी.
शुरुआत में भारत ने उठाए साहसी कदम
जब मैं मार्च में भारत से लौटा तो कोरोना का कहर शुरू हो रहा था. एक वायरस आ रहा था, तेजी से फैल रहा था और लोगों को लग रहा था कि बाहर से आने वाले इस वायरस को सीमा पर रोका जा सकता है. सबने अपनी सीमाओं को बंद करना शुरू किया. लेकिन जब तक सीमाएं बंद हुईं तब तक बहुत सारे लोग एक दूसरे के यहां जा चुके थे, एक दूसरे को संक्रमित कर चुके थे और स्वास्थ्य सेवा पर अप्रत्याशित बोझ डाल चुके थे.
सारी कोशिशें वायरस के फैलने को रोकने और बीमारों का इलाज करने पर लग गई थीं. वायरस के प्रसार को रोकने के लिए लोगों का मिलना जुलना रोकना जरूरी था और बीमारों की देखभाल के लिए स्वास्थ्य सेवा को फौरन बेहतर बनाना जरूरी था. जो ऐसा कर पाया उसे कामयाबी मिली, जिसने कोताही की, उसके यहां संक्रमित होने वालों के नंबर बढ़ते गए.
जर्मनी में भी भारत की ही तरह सीमाओं को बंद कर दिया गया, हालांकि फैसला सोच समझकर लिया गया. यहां लॉकडाउन नहीं हुआ, शटडाउन हुआ ताकि लोगों पर मनोवैज्ञानिक बोझ न पड़े, ताकि लोग खरीदारी के लिए या रोजमर्रे का सामान लेने बाजार जा सकें, खेलकूद सकें. फ्लैटों में रहने वाले परिवारों की जिंदगी आसान नहीं, यदि सारा समय घर में बंद रहना पड़े. उन लोगों के लिए थोड़ी आसानी थी, जो अपने घरों में रह रहे थे, जिनके पास बालकनी या छोटा मोटा गार्डन था. घर से बाहर निकल सकते थे, गार्डन में कुछ चहलकदमी कर सकते थे. कमरे में बंद होने या मन के मुताबिक कुछ नहीं कर पाने का अहसास ही डिप्रेशन पैदा करने वाला होता है.
ऐसे मुश्किल वक्त का पहला अनुभव
लेकिन जिंदगी कितनी भी खुशनुमा गुजर रही हो, समस्याओं का अहसास मुश्किल वक्त में ही होता है. कोरोना महामारी का शुरुआती वक्त भी ऐसा ही था. बच्चों, परिवार वालों और संगी साथियों की चिंता, कि कौन किस हाल में है. जिन लोगों के दफ्तर बंद थे, वो तो घरों में सुरक्षित थे, लेकिन जो लोग काम कर रहे थे, सुपर मार्केट के कर्मचारी, ट्रांसपोर्ट कर्मी, दवा की दुकानों में काम करने वाले या फिर अस्पतालों के कर्मी, उनके ऊपर भारी जिम्मेदारी थी. खुद का ख्याल रखने के अलावा समाज को चलाने की जिम्मेदारी. परिवार में कोई डॉक्टर, तो उसकी चिंता कि सुरक्षित है या नहीं. हालांकि उसकी वजह से पता भी चलता था कि अस्पतालों की हालत क्या है और यह सुनकर राहत का अहसास होता कि अस्पतालों में भीड़ बढ़ नहीं रही है. सब कुछ नियंत्रण में है.
सबसे ज्यादा बोझ लोगों के मन पर था. सबसे बड़ा बदलाव लोगों की सोच में आ रहा था. माहौल बदला बदला सा था. इस बीच आदतें बहुत हद तक बदल चुकी हैं. कोरोना से पहले स्नेह का मतलब नजदीकी थी तो कोरोना ने ये सिखाया कि दूरी ही जीवन है. अब जो लोग एक दूसरे के गले मिल रहे हैं, हाथ मिला रहे हैं, एकदम करीब आ रहे हैं, वे एक तरह का राजनीतिक स्टेटमेंट दे रहे हैं कि हमें कोरोना से कोई डर नहीं. लेकिन अपने को खतरे में भी डाल रहे हैं. इस वायरस का चाल चलन अभी तक किसी को पूरी तरह पता नहीं. इसलिए सावधानी में ही भलाई है. लेकिन जो आदतें अप्रत्याशित स्थिति के कारण बदल रही हैं, वे क्या फिर से वापस लौट पाएंगी?
जब सब कुछ बंद था, तो अजीब सी राहत थी. पर्यावरण को फिर से संभलने का मौका मिला. जानबूझकर सारी दुनिया में ऐसी तालाबंदी कभी संभव नहीं होती. जर्मनी में टूरिस्ट इलाकों में सालों से कार फ्री वीकएंड का प्रयोग चल रहा है. खासकर अंगूर वाले इलाके में वादियों को कार के धुंए और शोर से भरने के बदले सप्ताहांत को कारों को छोड़कर ये इलाका पर्यटकों को आकर्षित करता है. अब हमें पहली बार पता चला कि हमारी इंसानी गतिविधियों का पर्यावरण और मौसम पर क्या असर होता है. क्या हम उससे सीख ले पाएंगे? कोरोना लॉकडाउन का यही सबसे बड़ा सवाल रहेगा.
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