लोकतंत्र के लिए ईमानदार और तथ्यों पर बहस जरूरी
२ नवम्बर २०२०संयुक्त राज्य अमेरिका हमेशा विरोधाभासों का देश रहा है, एक ध्रुवीकृत राष्ट्र. केवल दो राजनीतिक पार्टियां हैं, डेमोक्रेटिक और रिपब्लिकन जो राजनीति में वास्तविक भूमिका निभाती हैं. सरकारों को गठबंधन सरकार बनाने के लिए समझौते की जरूरत नहीं होती, या तो वे बहुमत से जीतते हैं, या चुनाव हार जाते हैं.
यह दलगत राजनीति सदियों से मीडिया में झलकती रही है. यहां तक कि 18वीं सदी में पहली बार नियमित रूप से प्रकाशित होने वाले अमेरिकी अखबार भी दिन के महत्वपूर्ण राजनीतिक फैसलों पर स्पष्ट रुख अपनाते थे. आज, प्रसारक, अखबार और अन्य प्रकाशन, दूसरे कई देशों की तरह एक खास राजनीतिक लाइन पर चलते हैं, और लोग को आम तौर पर उन्हीं स्रोतों से खबर पाना चाहते हैं जो उनके राजनीतिक विचारों से मेल खाता हो.
मीडिया अब विश्वसनीय नहीं रहा
डॉनल्ड ट्रम्प के राष्ट्रपति पद पर लगभग चार वर्षों के बाद, दो चीजें अब मौलिक रूप से अलग हैं:
- अमेरिकी मीडिया संगठनों ने वस्तुनिष्ठ राजनीतिक रिपोर्टिंग की कोशिश छोड़ दी है, और अब राजनीतिक खिलाड़ियों में तब्दील हो गए हैं.
- ट्रम्प के इन नियमित आरोपों का असर पड़ा है कि मीडिया "झूठ" और "फर्जी खबर" के अलावा कुछ भी नहीं है.
पहले कभी भी पत्रकारिता के पेशे की विश्वसनीयता इतनी कम नहीं रही. दोनों बातें निश्चित रूप से एक दूसरे से जुड़ी हैं, और सोशल मीडिया ने इसमें बढ़ावा देने वाले की भूमिका निभाई है. अमेरिका में विवादास्पद राजनीतिक अवधारणाओं और संभावित समाधानों पर चर्चा के लिए कम ही स्थान बचे हैं. इस चुनाव अभियान ने हमें इसका परिणाम दिखाया है, अधिक से अधिक लोग केवल अपने छोटे से सोशल मीडिया संपर्कों पर जानकारी के लिए भरोसा कर रहे हैं. इसके भयानक नतीजे हुए हैं, और साजिश की बात करने वालों और लोकतंत्र के दुश्मनों के लिए दरवाजा खुल गया है.
एकतरफा होने में चरम पर पहुंचने के कारण अब मीडिया को भी विश्वसनीय स्रोत के रूप में नहीं देखा जाता. तीखी और ध्रुवीकरण करने वाली सुर्खियों को महत्व देकर, अल्गोरिदम अब मजबूती से दोनों राजनीतिक खेमों में बहस को नियंत्रित कर रहे हैं.
तथ्यों और वैज्ञानिक निष्कर्षों में इन बुलबुलों को भेदने का दम नहीं रहा, जो ट्रम्प के दावों से दब गए हैं. पिछले कुछ हफ्तों में मैंने औसत अमेरिकियों से बातचीत में खुद इस ताकत को देखा है, जो दावा करते हैं कि हिलेरी क्लिंटन युवा बच्चों को अपने तहखाने में बंद रखती हैं या कि COVID-19 एक मनहूस समूह का दुनिया का नियंत्रण करने के प्रयास से ज्यादा कुछ नहीं.
अमेरिका के बिखरने का खतरा
राजनीतिक परिदृश्य के दूसरी तरफ उदासीन, समृद्ध शहर वासी हैं जो पीढ़ियों के लिए फैक्टरी की नौकरियों पर निर्भर परिवारों का वैश्विक नजरिया मानने को तैयार नहीं हैं, नौकरियां जो लगातार कम होती जा रही हैं. या ऐसे लोग कोयला खनन पर निर्भर थे, जिनका अब कोई भविष्य नहीं है. स्थिति डरावनी है, और डरावनी होनी भी चाहिए. अमेरिका इस समय कमजोर है और कई कारणों से वह बिखर सकता है.
आंशिक रूप से शिक्षा प्रणाली के कारण, लेकिन आबादी के विकास के कारण भी. इस तथ्य ने बहुत सारे लोगों को नर्वस कर दिया है कि अल्पसंख्यक आबादी बढ़ रही है और करीब दो दशक में श्वेत प्रभुत्व खत्म हो जाएगा, कम से कम संख्या के लिहाज से. इसने देश के कई भागों में अभी भी मौजूद गहरे बैठे नस्लवाद को उभार दिया है.
तथ्य और वस्तुनिष्ठता की चाह
लोकतंत्र बातचीत और बहस से चलता है, बेहतरीन समाधान पर गर्मागर्म चर्चा से और ये सिर्फ अमेरिका में ही नहीं. लेकिन ये सब केवल कुछ खास शर्तों के तहत मौजूद रह सकते हैं, और उनमें एक यह है कि तथ्यों को हमेशा एक भूमिका निभानी चाहिए. उचित चर्चा संभव ही नहीं है अगर हर तर्क का मुकाबला "फेक न्यूज" के आरोप से हो.
यदि इस प्रवृत्ति को रोकना है, तो यह स्कूलों में स्पष्ट प्राथमिकताएं तय करके ही होगा. बच्चों को सोशल मीडिया से निपटना सीखना होगा, प्रोपेगैंडा को पहचानना होगा और एक्टिविज्म के बारे में जानना होगा. उन्हें पता होना चाहिए कि कौन सी वेबसाइटें विश्वसनीय हैं, और कौन से समूह नहीं हैं.
यहां मीडिया प्रोफेशनल एक भूमिका निभा सकते हैं. हमें खोई विश्वसनीयता फिर से हासिल करने और लोकतांत्रिक समाज में प्रासंगिक बने रहने के लिए वस्तुनिष्ठता पर जोर देना होगा.
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