1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें

विदेशियों के लिए मुश्किल जर्मनी

१८ सितम्बर २०१३

जर्मनी में भारतीय मूल के तीन सांसदों में एक ग्रीन पार्टी के योसेफ विंकलर हैं. वे स्कूल के दिनों से ही ग्रीन पार्टी में सक्रिय रहे हैं और स्थानीय निकाय में ग्रीन प्रतिनिधि के रूप में राजनीति के गुर सीखे हैं.

https://p.dw.com/p/19juW
तस्वीर: Josef Winkler/MdB

योसेफ विंकलर की मां चिनम्मा केरल की रहने वाली हैं. मार्टिन विंकलर से शादी के बाद वह जर्मनी के शहर बाड एम्स में बस गईं. यहीं से पहली बार योसेफ विंकलर ने चुनाव जीता. अब वह ग्रीन संसदीय दल के उपनेता हैं. डॉयचे वेले से उनकी बातचीत के कुछ अंश.

डॉयचे वेले: आपने नर्सिंग की पढ़ाई की और फिर आप राजनीति की राह पर निकल आए. यह बदलाव कैसे हुआ?

योसेफ विंकलर: मैं स्कूल के बाद यूनिवर्सिटी नहीं गया. मैं कुछ व्यावहारिक करना चाहता था. इसलिए मैंने कोबलेंस में नर्सिंग की पढ़ाई की. लेकिन ऐसा भी नहीं है कि मैं एक क्षेत्र छोड़ कर अचानक ही एक बिलकुल नए क्षेत्र में आ गया. मैं स्कूल में भी स्थानीय राजनीति में सक्रिय था. 19 साल का था जब नगर परिषद में चुना गया. नर्सिंग की ट्रेनिंग के साथ साथ मैं लगातार राजनीति भी करता रहा. हां, उस वक्त मैंने इसे पेशा नहीं, बस शौक समझा था.

स्कूल में ही आप ग्रीन पार्टी के साथ जुड़ गए थे. इस पार्टी की तरफ आपका झुकाव कैसे हुआ?

मेरे पिता ग्रीन पार्टी का गठन करने वाले लोगों में से एक थे, इसलिए पार्टी को तो मैं शुरू से ही जानता था. उस समय (80 के दशक में) और कोई भी ऐसी पार्टी नहीं थी जो पर्यावरण पर जोर दे रही हो. जर्मनी की नदियां इतनी गंदी हो चुकी थीं कि आप मछलियां भी नहीं खा सकते थे. फिर चेर्नोबिल में परमाणु हादसा हुआ. तब कोबलेंस के पास भी एक नया परमाणु ऊर्जा घर बनाया जा रहा था. मैं भी इसके खिलाफ था और ग्रीन पार्टी ही थी जो अपनी आवाज उठा रही थी.

इसके अलावा एक बड़ी वजह यह भी थी कि ग्रीन पार्टी नस्ली भेदभाव के खिलाफ भी काम कर रही थी. संसद में तब तक ऐसी और कोई पार्टी मौजूद नहीं थी.

क्या आपको भी कभी बचपन में अपने रंग के कारण भेदभाव का सामना करना पड़ा?

नहीं, मुझे ऐसे कोई बुरे अनुभव याद नहीं. जर्मन मेरी मातृभाषा है, इसलिए ऐसा तो कभी हुआ नहीं कि मुझे कुछ समझ ना आया हो और स्कूल में बच्चों ने मेरा मजाक उड़ाया हो.

रोजमर्रा में मेरे साथ यह जरूर होता है कि लोग सोचते हैं कि मैं किसी और देश का हूं और जैसे ही बात करने लगता हूं तो सोचते हैं कि भला यह इतनी अच्छी जर्मन कैसे बोल लेता है. हां, यह भी भेदभाव तो है, लेकिन मैं इसका बुरा नहीं मानता.

जहां तक कि विदेशियों के समेकन की बात है, जर्मनी में काफी जटिल कानून हैं. इसकी वजह क्या है?

मुझे लगता है कि कई सालों तक तो जर्मनी इस बात को मानने को ही तैयार नहीं था कि विदेशी यहां रहना चाहते हैं. यहां की व्यवस्था ही कुछ ऐसी है कि विदेशियों के लिए स्थिति मुश्किल बन जाती है. इसकी वजह हैं सीडीयू और सीएसयू जैसी रूढ़िवादी पार्टियां.

पहले तो 16 साल तक हेल्मुट कोल चांसलर रहे. हां, श्रोएडर के दौर में कुछ बदलाव देखने को मिले थे. जब एसपीडी और ग्रीन पार्टियां उभर कर सरकार में आईं तब विदेशियों को काफी फायदा मिला. लेकिन पिछले कुछ समय से सीडीयू की सरकार है और गठबंधन में एफडीपी है. तो एक बार फिर विदेशियों को ले कर गलत धारणाएं बनने लगी हैं. चुनाव प्रचार में तो समेकन की बातें हो रही हैं, लेकिन कथनी और करनी में बहुत फर्क है. हर पार्टी की अपनी एक विचारधारा होती है और यही मुश्किल बनी हुई है.

यदि ग्रीन पार्टी सत्ता में आती है तो समेकन के पहलू से किन बदलावों की उम्मीद की जा सकती है?

हमने यह सोचा है कि हम एसपीडी के साथ गठबंधन सरकार बनाएंगे. सबसे पहले तो हम दोहरी नागरिकता के लिए काम करेंगे. यदि कोई व्यक्ति जर्मनी का नागरिक बनना चाहता है, तो उसे अपने देश की नागरिकता छोड़ने की कोई जरूरत नहीं होनी चाहिए. हमें इसमें कोई दिक्कत नजर नहीं आती.

यहां की नागरिकता के लिए भाषा का ज्ञान अनिवार्य है, लेकिन अगर किसी की उम्र 70 साल है और मान लीजिए कि वह पिछले 30-40 साल से बिना जर्मन जाने हुए भी बर्लिन में रह रहा है, तो उसे स्कूल भेजने की कोई जरूरत नहीं. लोगों के लिए समझ और एक दोस्ताना रवैया भी कानून का हिस्सा होना चाहिए.

और जहां तक राजनीतिक शरणार्थियों की बात है, तो आप हर किसी को असायलम तो नहीं दे सकते. लेकिन फिलहाल प्रक्रिया बहुत ही लंबी है. लोग यहां आ कर छह छह महीने तक इंतजार करते हैं. उन्हें नहीं पता होता कि उन्हें यहां रहने की अनुमति मिलेगी भी या फिर उन्हें वापस लौट जाना होगा. इस तरह मानसिक रूप से उन्हें कष्ट पहुंचता है. हम सरकार में आते ही इसे बदलना चाहेंगे.

जर्मनी में मत ना देने वाले युवाओं की संख्या बढ़ती जा रही है. इसे आप कैसे बदलना चाहेंगे?

युवाओं को राजनीति उबाऊ लगती है. स्कूलों में कोशिश तो की जाती है कि उन्हें समझाया जाए कि मतदान की अहमियत क्या है, लेकिन वे सोचते हैं कि हमें राजनीति से क्या. मध्य पूर्व में हो रही क्रांति उनके लिए एक सबक है. वे देख रहे हैं कि कैसे उन देशों में युवा अपने हकों के लिए लड़ रहे हैं, वे अपना नेता खुद चुनना चाहते हैं, किसी तानाशाह की हुकूमत नहीं.

मैं खुद स्कूलों में जाता हूं और उनसे बात करता हूं. उन्हें समझाता हूं कि राजनीति जटिल जरूर लगती है, कई फैसले आपको समझ नहीं आते, लेकिन आप उसे बदल सकते हैं. युवाओं की जगह केवल फुटबॉल के स्टेडियम में या फिर रियलिटी शो के सेट पर ही नहीं, राजनीति में भी है. मैं खुद इसका उदाहरण हूं.

आप इंडो-जर्मन संसदीय ग्रुप के प्रमुख हैं. भारत और जर्मनी के रिश्तों में आप भविष्य में किस तरह के बदलाव देखते हैं?

दोनों देशों के बीच कई तरह के एक्सचेंज प्रोग्राम चल रहे हैं. भारत से तो अच्छी तादाद में स्टूडेंट जर्मनी आ रहे हैं, लेकिन अब भी जर्मनी से बहुत ज्यादा लोग भारत नहीं जा रहे. इस पर काम करने की जरूरत है. ऐसा नहीं है कि जर्मनी के छात्रों की भारत में रूचि नहीं है. लेकिन दोनों देशों के जीवन स्तर में बहुत अंतर है. सरकारों को चाहिए कि वे इसमें निवेश करें, ताकि भारत जर्मन छात्रों के लिए आकर्षक बन सके.

साथ ही कुछ गलत धारणाओं को भी दूर करने की जरूरत है. मीडिया में जिस तरह की खबरें आती हैं, उन्हें पढ़ कर लोगों को लगता है कि जर्मनी नाजियों से भरा हुआ है, यहां कोई अंग्रेजी नहीं बोलता या फिर पूरा भारत बाढ़ की चपेट में है, वहां हर रोज ट्रेन के हादसे होते हैं. पर ऐसा तो नहीं है.

इंटरव्यू: ईशा भाटिया, बिंगेन

संपादन: महेश झा

योसेफ विंकलर 2002 से जर्मन संसद 'बुंडेसटाग' के सदस्य हैं और ग्रीन पार्टी के संसदीय दल के उपनेता हैं. वे 2003 से इंटर पार्लियामेंटरी यूनियन में जर्मन प्रतिनिधिमंडल के सदस्य हैं और इंडो-जर्मन संसदीय ग्रुप के प्रमुख हैं.


इस विषय पर और जानकारी को स्किप करें

इस विषय पर और जानकारी