विष्णु खरे के न रहने का सूनापन
१९ सितम्बर २०१८कुछ वर्ष पहले विष्णु खरे, दिल्ली की साहित्यिक सांस्कृतिक गतिविधियों से विदा लेकर मुंबई जा बसे थे. जहां उनका परिवार रहता है, लेकिन पिछले दिनों वे दिल्ली लौटे एक नए कार्यभार के लिए. उन्हें दिल्ली सरकार की हिंदी अकादमी का उपाध्यक्ष बनाया गया था. साहित्य की दुनिया में इसका जोरदार स्वागत किया गया था. दुर्भाग्य से वो अपनी विराट जीवंतता की एक और तूफानी पारी खेलने से रह गए. हिंदी अकादमी के तत्वावधान में तीन प्रमुख कवियों- असद जैदी, मंगलेश डबराल और देवीप्रसाद मिश्र का काव्यपाठ आयोजन उनका आखिरी एसाइनमेंट था. उनके लौट आने से दिल्ली में एक नयी आर्द्रता का आगमन हुआ ही था कि उन्होंने विदा ले ली. ये कम स्तब्धकारी नहीं है कि कम समय के अंतराल में हिंदी के तीन बड़े कवि, इस दुनिया से गए हैः चंद्रकांत देवताले, केदारनाथ सिंह और विष्णु खरे.
मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा में फरवरी 1940 में पैदा हुए विष्णु खरे इस समय हिन्दी के वरिष्ठतम कवि और पत्रकार-संपादक ही नहीं, प्रखर आलोचक, अनुवादक और फिल्म समीक्षक भी थे. विष्णु खरे नवभारत टाइम्स के दिल्ली, लखनऊ और जयपुर संस्करणों के संपादक भी रहे. हिंदी सिनेमा और विश्व सिनेमा पर केंद्रित उनके लेख और समीक्षाएं, बेजोड़ हैं. वो जर्मन भाषा के जानकार थे और जर्मनी और भारतीय साहित्य के बीच खासकर जर्मन हिंदी साहित्यिक गलियारों में एक सेतु जैसे थे.
वे जर्मनी आते रहते थे और डॉयचे वेले के साथ भी उनका निकट संपर्क था. फ्रैंकफर्ट पुस्तक मेले से लेकर कान फिल्म महोत्सव तक यूरोप, विष्णु खरे के लिए मानो दूसरे घर जैसा था. जर्मन विद्वान लोठार लुत्से उनके अनन्य मित्र थे और उनके साथ मिलकर उन्होंने हिंदी कवियों की रचनाएं जर्मन भाषा में प्रकाशित की थीं. कुछ वर्ष उन्होंने प्राग और विभिन्न जर्मन शहरों में बिताए. उन्होंने विश्व के प्रमुख कवियों की रचनाओं का हिंदी में अनुवाद किया और बाकायदा संग्रह निकाले, जिनमें टीएस इलियट, विस्वावा शिम्बोर्स्का, चेस्वाव मिवोश, आत्तिला योझेप, मिक्लोश राद्नोती आदि प्रमुख नाम हैं. फिनलैंड के महाकाव्य का उन्होंने हिंदी में ‘कालेवाला' शीर्षक से अनुवाद किया. उन्हें हिन्दी में रघुवीर सहाय सम्मान, मैथिलीशरण गुप्त सम्मान और शिखर सम्मान मिला था. विदेशों में भी उन्हें सम्मानित किया गया.
विष्णु खरे अपनी गद्यात्मक कविता बुनावट के लिए जाने जाते हैं. गद्य के सपाट से दिखते वितान के भीतर उनकी कविता अपने समय के उत्ताप, बेचैनियों, हैरानियों, बेशर्मियों और संघर्षों को रेखांकित करती चलती है. उनकी कविताएं पौराणिक आख्यानों से लेकर देहात, शहर, और सड़क और मकान और फूल और तितली और चिड़िया और न जाने कितने शहरी दबे कुचले वंचित हाशियों को संबोधित हैं. विडंबना और द्वंद्व और एक पक्की धुन उनकी कविताओं में नुमायां रहती है.
अपनी रचनाशीलता में जितने व्यापक थे अपने विचारों और अपनी टिप्पणियों में उतने ही स्पष्ट और बेलाग थे. अपनी बात के खरे. हिंदी में उनकी कई टिप्पणियों पर विवाद हुए लेकिन विष्णु खरे ने कभी इस बात की परवाह नहीं की और अधिकांश मौकों पर यही देखा गया कि किसी विषय पर उनके विचार या पूर्वकथन सटीक ही होते थे. वे कुपित रहते थे, हिन्दी की कमजोरियों का प्रलाप उन्हें जरा भी पसंद न था. वे मानते थे कि हिन्दी में बड़े पैमाने पर अच्छी कविताएं लिखी जा रही हैं. उनकी शिनाख़्त किए जाने को लेकर वे अक्सर बेचैन और उत्सुक रहते थे.
विष्णु खरे उन वरिष्ठों में नहीं थे जो एक झटके में तारीफ से आपको सराबोर कर दें, उलटे वे ऐसा कुछ कह सकते थे आप बिदकने लगें या आप असहज होने लगें या अपनी गलती पर गौर कर लें. लेकिन यही उनकी खूबी थी, यही उनका लेखकीय प्रताप था. वे जितने कड़क और हरदम घूरते हुए से थे उतने ही नटखट भी. इन पंक्तियों का लेखक जब जर्मनी की यात्रा पर था तो उसे छेड़ते हुए विष्णु खरे ने कहाः "जा रहे हो, कोई मेम भी देख लेना.” उन विष्णु खरे के लिए जो जर्मनी के दिनों में चिढ़ाते थेः लौट के बुद्धु घर को आए, उनके लिए मन ही मन पिछले कुछ दिनों से शमशेर बहादुर सिंह की एक कविता के हवाले से दुआ कर रहा था कि "लौट आ, ओ फूल की पंखड़ी फिर फूल में लग जा.....लौट आ ओ धार!!”
लेकिन ये दुआ कुबूल नहीं हुई. कोमा के रास्ते विष्णु खरे अपनी मृत्यु में दाखिल हो गए.
वो अपनी एक कविता में कहते हैं, "मैं चिड़ियों का संकल्प पा सकता हूं और न उड़ान / मैं सिर्फ अपनी मृत्यु में उनकी कोशिश करना चाहता हूं.” अपनी मृत्यु को भी एक नयी उड़ान और एक नए संकल्प की तरह देखने वाले इस विलक्षण कवि को हमारा सलाम.